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ग्रीनविच की वैधशाला

grinvich ki vaidhshala

सूर्यनारायण व्यास

सूर्यनारायण व्यास

ग्रीनविच की वैधशाला

सूर्यनारायण व्यास

और अधिकसूर्यनारायण व्यास

    पिछले वर्ष जब मैं यूरोप गया था, यद्यपि मैं केवल विदेश का एक दर्शक पथिक ही बनकर रहा था, अपने 'ज्योतिषी' होने की बात प्रकट नहीं होने दी थी। क्योंकि थोड़े समय में, मैं बहुत कुछ देख लेना-जान लेना चाहता था। तथापि इतना आकर्षण तो स्पष्ट ही था कि मैं इंग्लैंड की ग्रीनविच और हॉलैंड की प्रसिद्ध वैधशाला देखे बिना नहीं लौटना चाहता था। 'ज्योतिषी' होने का विज्ञापन करता, तो भी मेरी वैधशाला-संबंधी जिज्ञासा तो मेरे ज्योतिषी-रूप को कहीं कहीं प्रकट कर देने वाली ही थी।

    ग्रीनविच और हालैंड की महती वैधशालाओं के दर्शन कर उनके परिदर्शक से जब में कुछ प्रश्न कर बैठता तब तुरंत पहचान लिया जाता था कि मेरा भी इस विज्ञान से थोड़ा-बहुत संबंध है। ग्रीनविच की एक घटना है। वहाँ के एक वेष-ज्ञानवेत्ता के साथ भ्रमण करता में उस स्थान पर पहुँचा जहाँ 'सूर्य' की गति-विधि और इस ज्योतिलिंग के तत्त्वों की खोज करने वाला भीमकाय यंत्र लगा था। वहाँ सूर्य के विशेष प्रकार के अनेक अभिनव फोटो रखे हुए थे। मैंने उस संग्रह में से दो विशाल चित्रों पर ने विज्ञासा की—

    इन चित्रों को लेकर आप अन्ततः किस नतीजे पर पहुँचे हैं?

    मेरे इस प्रश्न पर दर्शक महाकाय बड़े चौकन्ने हुए। बात यह थी कि 1937 के 8 जून को दिन में 'सूर्य-मंडल' पर 'अरोरा बेरेलिस' के कारण विचित्र प्रकार का वातावरण गया था। लगभग लाखों मील तक आकस्मिक धूमिल अन्न-पटल-सा छा गया था कि सूर्य भी ठीक नहीं दिखाई पड़ता था, तीक्ष्ण प्रकाश ही। इसके परिणाम-स्वरूप वायरलेस, टेलिग्राफ़, रेडियो आदि बहुत देर तक व्यर्थ ही गए थे, गगनमंडल एक विचित्र स्थिति में गया था। उपर्युक्त फ़ोटोग्राफ़ उसी हाल में इस वैधशाला में लिए गए थे। मैं अक्टूबर में लंदन वे ग्रीनविच गया था, अतएव ये फ़ोटोग्राफ़ मुझे वहाँ अध्ययनार्य रखे हुए दिखाई दिए।

    मेरे प्रश्न से चौंककर प्रदर्शक कुछ ऐसी बातें करने लगा जो टाल-टूल की थीं। मैंने उस भलेमानुस से कहा—

    खेद है, मुझे आपके उत्तर से समाधान नहीं हुआा। आप यदि किसी योग्य वेचन ने मेरी भेंट करवा दें तो उत्तम होगा।

    वह अपनी स्थिति को तुरंत समझ गया और अपनी कमज़ोरी को स्वीकार करता हुआ एक प्रौढ़ सज्जन के निकट उसी विशालकाय भवन के अन्य कमरे में—ऑफ़िस में मुझे लिवा ले गया। वे सज्जन बड़े तपाक से, हाय मिलाकर जिज्ञासा-प्रवर्धक दृष्टि से देखते हुए बोले—

    आपने इस प्रदर्शक से क्या जानना चाहा था?

    मैंने अपना वही उपर्युक्त प्रश्न दुहरा दिया।

    वे महाशय उसी विषय का अध्ययन कर रहे थे और दूसरे बड़े-बड़े आकाश-द्रष्टा विद्वानों से पत्र-व्यवहार कर उसकी चर्चा चला रहे थे। उन्हें यह अपनी रुचि का विषय मिला था। वे सावधान हो गए और मेरी तरफ़ गंभीर, दृष्टि से देखकर कहने लगे, —हमने अभी कोई निर्णय तो नहीं किया है। और भला ऐसे ख़ास मामले पर शीघ्र निर्णय भी कैसे किया जाए? यह तो अनुसंधान का विषय है। प्रथम बार ही आकाश में ऐसी घटना घटी है। (बाद में पुनः ऐसा ही एक आक्रमण सूर्य पर हो चुका है)

    परंतु—मैंने उनकी बात रोकते हुए कहा—आपके अन्य वैज्ञानिकों का इस पर क्या मत है? वे इस घटना को किस रूप में देखते हैं?

    उन सज्जन ने पेपरों में मुद्रित अनेक विद्वानों के मतों के कटिंग मेरे सामने रख दिए। मैंने उन्हें बड़े ध्यान से देखा। उनमें विश्व के माने हुए विज्ञानाचार्य आइंस्टीन का भी मतोल्लेखन था। उनके कथन का आशय भी यही था कि यह घटना विचित्र है, सूर्य-मंडल में कोई परिवर्तन हो रहा है, और इस घटना की खोज होगी आवश्यक है इत्यादि। इसी प्रकार के खगोल-शास्त्रियों के और भी मत थे। मैंने इन सम्मतियों को पढ़ा और साधारण स्मित-मुद्रा से टेबल पर उन सज्जन के सामने फ़ाइल को धीरे से सरका दिया। वे ताड़ गए कि मैंने सम्भवतः उपेक्षा-दृष्टि की है। आख़िर वे अपने भाव को दबा सके और बोल ही पड़े—देखा आपने? कैसी गहन समस्या उपस्थित है? मैं इसी में उलझा हुआ हूँ। सूर्य के चित्रों से गति-विधि की सूक्ष्म जानकारी प्राप्त कर रहा हूँ।

    मैंने पुनः पूर्ववत् साधारण स्मित करते हुए कहा—

    क्षमा करें, मुझ पर इन सम्मतियों का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा है।

    उनकी आँखों में मैंने एक तेज़ी आती हुई देखी। वे मेरे चेहरे पर आँखें तीक्ष्णता से गड़ाकर चश्मा नाक पर ठीक जमाते हुए गहरी-चिंतनशीलता से बोले—

    तो फिर आपके भारतीय शास्त्रज्ञों का इस पर क्या कोई भिन्न मत है?

    मैं जुलाई से यूरोप में हूँ। पता नहीं, भारतीय विद्वानों में से पाश्चात्य नवानुसंधान दृष्टि के सर सुलेमान ने भी कोई बात प्रकट की है या नहीं? परंतु मैंने इधर यूरोप के पत्रों में दो-चार बार इस चर्चा को पढ़ा अवश्य है, और मेरा तो यह ख़याल है कि वराह-मिहिर आदि महान् खगोल-द्रष्टा पुरातन आचार्यों ने इस तरह की बातों पर भी काफ़ी प्रकाश डाला है। चाहे उनके समय इस तरह सूर्य में कोई वातावरण उत्पन्न हुआ हो या हुआ हो, उन्हें 'सूर्य' की इस अवस्था की भी कल्पना अवश्य है। उन्होंने इसके कारणों में से जो बातें सोची हैं वे सर्वथा मौलिक हैं और विचारणीय हैं। उन्होंने 'रिसर्च करने' की बात कहकर अपने पाठकों को अँधेरे में भटकता नहीं छोड़ा है।

    आप लोग तो आज भी इस एक ही मामले में एकमत से विचार नहीं कर रहे हैं। देखिए पेरु' नामक जगह से जिन लोगों ने 8 मील ऊपर जाकर फोटो लिए हैं वे कहते हैं कि सूर्य-पृष्ठ पर 10 लाख मील से अधिक गहरा धूमिल वातावरण था, और सूर्य-विंब के किनारों पर किरणों का जाल भी बजीव हालत में था। किंतु अमरीका के विद्वानों ने सूर्य-पृष्ठ पर किरण-जाल का फैला देखना 'पेरु' के फोटो लेने वालों के कैमरे का दोष ही बतलाया है, और आपके भी ये फ़ोटोग्राफ़ तो दूषित वातावरण और धूमिल किरण-जाल का होना प्रदशिंत कर रहे हैं।

    रहा भारतीय विद्वानों का सवाल। सो बात यह है कि पहले यूरोप में जिस समय यह ग्रहण तथा घटना हुई है उस समय भारत में सूर्य दिखाई नहीं दे रहा था, रात्रि का निविडांधकार था। भारतीय आपकी चर्चा से विस्मित्त अवश्य हुए, और अपने गर्ग, पराशर, बराहमिहिर को देखकर उन्हें मानों ऐसे प्रसंग पहले भी आए ही है, ऐसा ही मालूम हुआ है, अधिक विस्मय का तो कोई कारण नहीं हुआ है।

    उन महाशय के चेहरे पर विस्मय के भावों का उदय हो रहा था, वे चित्र-लिखित से मुझे देखते जा रहे थे। में कार का वाक्य ख़त्म कर चुप जा तब मानो उनकी विचार-तंद्रा भी भंग हुई। ज़रा सावधान होकर फिर उन्होंने कहा—लेकिन यह तो बतलाइए कि उनकी या आपकी सम्मति में यह घटना है क्या? इसमें कौन-सा प्रकृति का रहस्य निहित है?

    मैंने अपना क्रम जारी रखते हुए बतलाया—हाँ, मैं वही तो कह रहा था। भारतीय ग्रंथों में सूर्य-चंद्र के ग्रहण का स्थान सूर्य-चंद्र के भ्रमण-वृत्तों के सम्पात स्थान के पास माना है। सूर्य का भ्रमण क्रांति-वृत्तों में होता है ओर चंद्र का विक्षेप-वृत्त में। इन दोनों वृत्तों के परस्पर दो स्थानों में सम्मात होते हैं। एक सम्पात का नाम 'राहू' है, और दूसरे का नाम केतु' है। कभी ग्रहण केतु' को समीरता में होता है और कभी राहू की। पिछला सूर्य ग्रहण 'केतु' की निकटता में हुआ है। राहु और केतु ये दो बदृश्य किंतु उपग्रह माने हुए हैं। 'केतु-पर्व' के समय 'सूर्य' घूम-केतु की कक्षा को निकट रखकर ही 'विवर्ग' होता है। और घूमकेतु पुच्छल-तारे का नाम है, यह बतलाने की ज़रूरत नहीं है। घूमकेतु की हज़ार शकलें मानी गई है। यह कभी दृश्य होता है और कभी अदृश्य। अदृश्य में—उल्का वग़ैरह इसी का स्वरूप है, विद्युत् इसकी शक्ति है, बाण, रज, तम, घूम इत्यादि विकृतियों हैं। आकाश और भूमंडल पर्यंत इती के कारण दृश्य रूप लिया करते हैं। प्राचीन शास्त्रज्ञों ने इस महोत्पात कारक घूमकेतु की कक्षा का ज्ञान रखना ग्रहण के समय ज़रूरी बतलाया है। स्वयं ग्रहण को एक उत्पात कहा है। उसमें फिर इस महोत्पात का प्रवेश, सूर्य-मंडल तो ठीक, जाने कितनी भयावह स्थितियों का उत्पादक हो सकता है। भूकंप, प्रलय आदि भी इसी के उग्र-रूप कहे गए हैं। वराह‌मिहिर ने सष्ट रूप में कहा है कि सूर्य में इसके विविध रूप विकृति उत्पन्न करते हैं, और सूर्य-मंडल में 'दृश्य' होते हैं।

    गर्ग और वराहमिहिर ने सूर्य-चंद्र के ग्रस्त होने का परिणाम पवन, उल्कापत, रज, क्षिति-कंप, दिग्वाह आदि बतलाया है। इस दृष्टि से में तो समझता हूँ कि इस 8 जून के सूर्य-ग्रहण के अवसर पर 'सूर्य-पृष्ठ' पर रज-राधि का ही (पूलि-पटल का ही) शायद विशाल संग्रह ना गया हो। और दूसरी बात यदि घूमकेतु के अतिरिक्त हो सकती है तो वह 'परिवेष' है। परिवेष वायु, अभ्रं तया रश्मि-संवर्ष से बन जाता है। इसी प्रकार इन दो कारणों की तरह एक बात और भी है। वह सूर्य-पृष्ठ में कंप का हो जाना है। 'रवि-कंप' से रवि किरण जाल चंचल हो जाते हैं, रवि-मंडल का तापमान शीत-प्रभाव से, अँगारे पर शीतल छीटों के गिरने से जिस प्रकार धूमिल वातावरण बना देते हैं, उसी प्रकार यह भी हो सकता है। रवि-मंडल रजो-राधि से या कंप से आवृत ही धूमिल हो सकता है।

    इस तरह में अपना विवरण कहता गया, और अंत में मैंने बतलाया—मेरी यह निजी कल्पना नहीं है। यह वराहमिहिर एवं ऐसे ही अन्य प्राचीन आचार्यों का सूर्यानुसंधा है। यहाँ मेरे पास साधन नहीं है। में एफ दर्शक बनकर लाया हूँ, स्मृति के नापार पर ही बतला रहा हूँ।

    वे सज्जन तो बहुत ही आकर्षित हुए और कहने लगे—चाहे हुन कितने ही साधनसमन्वित हो, पर आपके इस घरू ज्ञान की समता अध्ययन-मात्र के बल पर हम नहीं कर सकते। हमारा अनुसंधान कल्पना-आश्रित है, अंधकार में प्रकाश की खोज है। आप किसी निश्चित मत पर दृढ़ होकर आगे बढ़ते हैं। अतएव आप जिस तथ्य पर शीघ्र पहुँच सकते हैं, अनुसंधान का पथ निकाल कर निश्चित दिशा पर जा सकते हैं; हमारा मार्ग उतनी ही सरलता से दूर है। मैं आज ऐसा समझ रहा हूँ कि सूर्य मंडल में बैठकर वहीं किसी वस्तु की खोज कर रहा हूँ।

    फिर तो उत्त सज्जन ने मुझे आग्रहपूर्वक चाय पिलाई और अपने फ़ोटोग्राफ़र को तुरंत बुलवाकर फ़ोटो लिवाया। इसके बाद मुझे उन्होंने बड़े स्नेह से अपना मित्र मानने का आग्रह किया। मैंने इसे अपना सौभाग्य समझा और उत्त समय मेरा हृदय इसलिए आनंद से भर गया कि अपने देश के विज्ञान पर इन्हें में कुछ प्रभावित कर सका। बातें बहुत-सी हुई। परस्पर प्रेम हो जाने से स्पष्ट चर्चाएँ हुईं। अंत में मुझे ज्ञात हुआ कि ये सज्जन उत्त महान् वैधशाला के उप-प्रधान है। उन्होंने साग घूमकर उस वैधशाला के विविध रूप की विशालता के दर्शन करवाए। अब मैंने उनसे विदा लेकर चलते समय इसी प्रकार ज्योतिष के फलादेश के अंग पर भी संक्षिप्त मधुर चर्चा छेड़ दी। वे इस पर भी मुझसे सहमत हो रहे थे। उन्होंने मुझे वहीं रोकने का बहुत आग्रह किया, परंतु समय थोड़ा था और अभी मुझे बहुत देखना था। शीघ्र ही फ़्रांस भी जाना था, अतएव स्नेहपूर्वक क्षमा चाही। दो रोज़ के बाद मैंने लंदन के दो-तीन प्रमुख पत्रों में देखा, मेरी इस भेंट का विवरण वैधशाला से प्रकाशित किया गया है और उसमें अन्यान्य प्रशंसानों के साथ यह ख़ासतौर पर बतलाया गया था कि ...आश्चर्य तो यह है कि भारतीय पंडित बड़ी से बड़ी समस्या को इतनी सरलता से हल करते है कि विस्मित हो जाना पड़ता है। और इसका कारण यही है कि उनके ज्ञान का आधार दृढ़ एवं महत्त्वपूर्ण है। उनके पुराने आचार्यों ने उनके लिए पथ-प्रदर्शक का काम बहुत उत्तम रीति से कर रखा है। उनका किसी निश्चित मत पर पहुँचना उनके निष्कंटक पथ का ही श्रेय है। इत्यादि।

    स्रोत :
    • पुस्तक : सचित्र मासिक पत्रिका भाग-41, खंड 1 (पृष्ठ 24)
    • संपादक : देवीदत्त शुक्ल, उमेशचंद्रदेव
    • रचनाकार : सूर्यनारायण व्यास
    • प्रकाशन : इंडियन प्रेस
    • संस्करण : 1940
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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