पिछले वर्ष जब मैं यूरोप गया था, यद्यपि मैं केवल विदेश का एक दर्शक पथिक ही बनकर रहा था, अपने 'ज्योतिषी' होने की बात प्रकट नहीं होने दी थी। क्योंकि थोड़े समय में, मैं बहुत कुछ देख लेना-जान लेना चाहता था। तथापि इतना आकर्षण तो स्पष्ट ही था कि मैं इंग्लैंड की ग्रीनविच और हॉलैंड की प्रसिद्ध वैधशाला देखे बिना नहीं लौटना चाहता था। 'ज्योतिषी' होने का विज्ञापन न करता, तो भी मेरी वैधशाला-संबंधी जिज्ञासा तो मेरे ज्योतिषी-रूप को कहीं न कहीं प्रकट कर देने वाली ही थी।
ग्रीनविच और हालैंड की महती वैधशालाओं के दर्शन कर उनके परिदर्शक से जब में कुछ प्रश्न कर बैठता तब तुरंत पहचान लिया जाता था कि मेरा भी इस विज्ञान से थोड़ा-बहुत संबंध है। ग्रीनविच की एक घटना है। वहाँ के एक वेष-ज्ञानवेत्ता के साथ भ्रमण करता में उस स्थान पर पहुँचा जहाँ 'सूर्य' की गति-विधि और इस ज्योतिलिंग के तत्त्वों की खोज करने वाला भीमकाय यंत्र लगा था। वहाँ सूर्य के विशेष प्रकार के अनेक अभिनव फोटो रखे हुए थे। मैंने उस संग्रह में से दो विशाल चित्रों पर ने विज्ञासा की—
इन चित्रों को लेकर आप अन्ततः किस नतीजे पर पहुँचे हैं?
मेरे इस प्रश्न पर दर्शक महाकाय बड़े चौकन्ने हुए। बात यह थी कि 1937 के 8 जून को दिन में 'सूर्य-मंडल' पर 'अरोरा बेरेलिस' के कारण विचित्र प्रकार का वातावरण आ गया था। लगभग लाखों मील तक आकस्मिक धूमिल अन्न-पटल-सा छा गया था कि सूर्य भी ठीक नहीं दिखाई पड़ता था, न तीक्ष्ण प्रकाश ही। इसके परिणाम-स्वरूप वायरलेस, टेलिग्राफ़, रेडियो आदि बहुत देर तक व्यर्थ ही गए थे, गगनमंडल एक विचित्र स्थिति में आ गया था। उपर्युक्त फ़ोटोग्राफ़ उसी हाल में इस वैधशाला में लिए गए थे। मैं अक्टूबर में लंदन वे ग्रीनविच गया था, अतएव ये फ़ोटोग्राफ़ मुझे वहाँ अध्ययनार्य रखे हुए दिखाई दिए।
मेरे प्रश्न से चौंककर प्रदर्शक कुछ ऐसी बातें करने लगा जो टाल-टूल की थीं। मैंने उस भलेमानुस से कहा—
खेद है, मुझे आपके उत्तर से समाधान नहीं हुआा। आप यदि किसी योग्य वेचन ने मेरी भेंट करवा दें तो उत्तम होगा।
वह अपनी स्थिति को तुरंत समझ गया और अपनी कमज़ोरी को स्वीकार करता हुआ एक प्रौढ़ सज्जन के निकट उसी विशालकाय भवन के अन्य कमरे में—ऑफ़िस में मुझे लिवा ले गया। वे सज्जन बड़े तपाक से, हाय मिलाकर जिज्ञासा-प्रवर्धक दृष्टि से देखते हुए बोले—
आपने इस प्रदर्शक से क्या जानना चाहा था?
मैंने अपना वही उपर्युक्त प्रश्न दुहरा दिया।
वे महाशय उसी विषय का अध्ययन कर रहे थे और दूसरे बड़े-बड़े आकाश-द्रष्टा विद्वानों से पत्र-व्यवहार कर उसकी चर्चा चला रहे थे। उन्हें यह अपनी रुचि का विषय मिला था। वे सावधान हो गए और मेरी तरफ़ गंभीर, दृष्टि से देखकर कहने लगे, —हमने अभी कोई निर्णय तो नहीं किया है। और भला ऐसे ख़ास मामले पर शीघ्र निर्णय भी कैसे किया जाए? यह तो अनुसंधान का विषय है। प्रथम बार ही आकाश में ऐसी घटना घटी है। (बाद में पुनः ऐसा ही एक आक्रमण सूर्य पर हो चुका है) ।
परंतु—मैंने उनकी बात रोकते हुए कहा—आपके अन्य वैज्ञानिकों का इस पर क्या मत है? वे इस घटना को किस रूप में देखते हैं?
उन सज्जन ने पेपरों में मुद्रित अनेक विद्वानों के मतों के कटिंग मेरे सामने रख दिए। मैंने उन्हें बड़े ध्यान से देखा। उनमें विश्व के माने हुए विज्ञानाचार्य आइंस्टीन का भी मतोल्लेखन था। उनके कथन का आशय भी यही था कि यह घटना विचित्र है, सूर्य-मंडल में कोई परिवर्तन हो रहा है, और इस घटना की खोज होगी आवश्यक है इत्यादि। इसी प्रकार के खगोल-शास्त्रियों के और भी मत थे। मैंने इन सम्मतियों को पढ़ा और साधारण स्मित-मुद्रा से टेबल पर उन सज्जन के सामने फ़ाइल को धीरे से सरका दिया। वे ताड़ गए कि मैंने सम्भवतः उपेक्षा-दृष्टि की है। आख़िर वे अपने भाव को दबा न सके और बोल ही पड़े—देखा न आपने? कैसी गहन समस्या उपस्थित है? मैं इसी में उलझा हुआ हूँ। सूर्य के चित्रों से गति-विधि की सूक्ष्म जानकारी प्राप्त कर रहा हूँ।
मैंने पुनः पूर्ववत् साधारण स्मित करते हुए कहा—
क्षमा करें, मुझ पर इन सम्मतियों का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा है।
उनकी आँखों में मैंने एक तेज़ी आती हुई देखी। वे मेरे चेहरे पर आँखें तीक्ष्णता से गड़ाकर चश्मा नाक पर ठीक जमाते हुए गहरी-चिंतनशीलता से बोले—
तो फिर आपके भारतीय शास्त्रज्ञों का इस पर क्या कोई भिन्न मत है?
मैं जुलाई से यूरोप में हूँ। पता नहीं, भारतीय विद्वानों में से पाश्चात्य नवानुसंधान दृष्टि के सर सुलेमान ने भी कोई बात प्रकट की है या नहीं? परंतु मैंने इधर यूरोप के पत्रों में दो-चार बार इस चर्चा को पढ़ा अवश्य है, और मेरा तो यह ख़याल है कि वराह-मिहिर आदि महान् खगोल-द्रष्टा पुरातन आचार्यों ने इस तरह की बातों पर भी काफ़ी प्रकाश डाला है। चाहे उनके समय इस तरह सूर्य में कोई वातावरण उत्पन्न हुआ हो या न हुआ हो, उन्हें 'सूर्य' की इस अवस्था की भी कल्पना अवश्य है। उन्होंने इसके कारणों में से जो बातें सोची हैं वे सर्वथा मौलिक हैं और विचारणीय हैं। उन्होंने 'रिसर्च करने' की बात कहकर अपने पाठकों को अँधेरे में भटकता नहीं छोड़ा है।
आप लोग तो आज भी इस एक ही मामले में एकमत से विचार नहीं कर रहे हैं। देखिए पेरु' नामक जगह से जिन लोगों ने 8 मील ऊपर जाकर फोटो लिए हैं वे कहते हैं कि सूर्य-पृष्ठ पर 10 लाख मील से अधिक गहरा धूमिल वातावरण था, और सूर्य-विंब के किनारों पर किरणों का जाल भी बजीव हालत में था। किंतु अमरीका के विद्वानों ने सूर्य-पृष्ठ पर किरण-जाल का फैला देखना 'पेरु' के फोटो लेने वालों के कैमरे का दोष ही बतलाया है, और आपके भी ये फ़ोटोग्राफ़ तो दूषित वातावरण और धूमिल किरण-जाल का होना प्रदशिंत कर रहे हैं।
रहा भारतीय विद्वानों का सवाल। सो बात यह है कि पहले यूरोप में जिस समय यह ग्रहण तथा घटना हुई है उस समय भारत में सूर्य दिखाई नहीं दे रहा था, रात्रि का निविडांधकार था। भारतीय आपकी चर्चा से विस्मित्त अवश्य हुए, और अपने गर्ग, पराशर, बराहमिहिर को देखकर उन्हें मानों ऐसे प्रसंग पहले भी आए ही है, ऐसा ही मालूम हुआ है, अधिक विस्मय का तो कोई कारण नहीं हुआ है।
उन महाशय के चेहरे पर विस्मय के भावों का उदय हो रहा था, वे चित्र-लिखित से मुझे देखते जा रहे थे। में कार का वाक्य ख़त्म कर चुप जा तब मानो उनकी विचार-तंद्रा भी भंग हुई। ज़रा सावधान होकर फिर उन्होंने कहा—लेकिन यह तो बतलाइए कि उनकी या आपकी सम्मति में यह घटना है क्या? इसमें कौन-सा प्रकृति का रहस्य निहित है?
मैंने अपना क्रम जारी रखते हुए बतलाया—हाँ, मैं वही तो कह रहा था। भारतीय ग्रंथों में सूर्य-चंद्र के ग्रहण का स्थान सूर्य-चंद्र के भ्रमण-वृत्तों के सम्पात स्थान के पास माना है। सूर्य का भ्रमण क्रांति-वृत्तों में होता है ओर चंद्र का विक्षेप-वृत्त में। इन दोनों वृत्तों के परस्पर दो स्थानों में सम्मात होते हैं। एक सम्पात का नाम 'राहू' है, और दूसरे का नाम केतु' है। कभी ग्रहण केतु' को समीरता में होता है और कभी राहू की। पिछला सूर्य ग्रहण 'केतु' की निकटता में हुआ है। राहु और केतु ये दो बदृश्य किंतु उपग्रह माने हुए हैं। 'केतु-पर्व' के समय 'सूर्य' घूम-केतु की कक्षा को निकट रखकर ही 'विवर्ग' होता है। और घूमकेतु पुच्छल-तारे का नाम है, यह बतलाने की ज़रूरत नहीं है। घूमकेतु की हज़ार शकलें मानी गई है। यह कभी दृश्य होता है और कभी अदृश्य। अदृश्य में—उल्का वग़ैरह इसी का स्वरूप है, विद्युत् इसकी शक्ति है, बाण, रज, तम, घूम इत्यादि विकृतियों हैं। आकाश और भूमंडल पर्यंत इती के कारण दृश्य रूप लिया करते हैं। प्राचीन शास्त्रज्ञों ने इस महोत्पात कारक घूमकेतु की कक्षा का ज्ञान रखना ग्रहण के समय ज़रूरी बतलाया है। स्वयं ग्रहण को एक उत्पात कहा है। उसमें फिर इस महोत्पात का प्रवेश, सूर्य-मंडल तो ठीक, न जाने कितनी भयावह स्थितियों का उत्पादक हो सकता है। भूकंप, प्रलय आदि भी इसी के उग्र-रूप कहे गए हैं। वराहमिहिर ने सष्ट रूप में कहा है कि सूर्य में इसके विविध रूप विकृति उत्पन्न करते हैं, और सूर्य-मंडल में 'दृश्य' होते हैं।
गर्ग और वराहमिहिर ने सूर्य-चंद्र के ग्रस्त होने का परिणाम पवन, उल्कापत, रज, क्षिति-कंप, दिग्वाह आदि बतलाया है। इस दृष्टि से में तो समझता हूँ कि इस 8 जून के सूर्य-ग्रहण के अवसर पर 'सूर्य-पृष्ठ' पर रज-राधि का ही (पूलि-पटल का ही) शायद विशाल संग्रह ना गया हो। और दूसरी बात यदि घूमकेतु के अतिरिक्त हो सकती है तो वह 'परिवेष' है। परिवेष वायु, अभ्रं तया रश्मि-संवर्ष से बन जाता है। इसी प्रकार इन दो कारणों की तरह एक बात और भी है। वह सूर्य-पृष्ठ में कंप का हो जाना है। 'रवि-कंप' से रवि किरण जाल चंचल हो जाते हैं, रवि-मंडल का तापमान शीत-प्रभाव से, अँगारे पर शीतल छीटों के गिरने से जिस प्रकार धूमिल वातावरण बना देते हैं, उसी प्रकार यह भी हो सकता है। रवि-मंडल रजो-राधि से या कंप से आवृत ही धूमिल हो सकता है।
इस तरह में अपना विवरण कहता गया, और अंत में मैंने बतलाया—मेरी यह निजी कल्पना नहीं है। यह वराहमिहिर एवं ऐसे ही अन्य प्राचीन आचार्यों का सूर्यानुसंधा न है। यहाँ मेरे पास साधन नहीं है। में एफ दर्शक बनकर लाया हूँ, स्मृति के नापार पर ही बतला रहा हूँ।
वे सज्जन तो बहुत ही आकर्षित हुए और कहने लगे—चाहे हुन कितने ही साधनसमन्वित हो, पर आपके इस घरू ज्ञान की समता अध्ययन-मात्र के बल पर हम नहीं कर सकते। हमारा अनुसंधान कल्पना-आश्रित है, अंधकार में प्रकाश की खोज है। आप किसी निश्चित मत पर दृढ़ होकर आगे बढ़ते हैं। अतएव आप जिस तथ्य पर शीघ्र पहुँच सकते हैं, अनुसंधान का पथ निकाल कर निश्चित दिशा पर जा सकते हैं; हमारा मार्ग उतनी ही सरलता से दूर है। मैं आज ऐसा समझ रहा हूँ कि सूर्य मंडल में बैठकर वहीं किसी वस्तु की खोज कर रहा हूँ।
फिर तो उत्त सज्जन ने मुझे आग्रहपूर्वक चाय पिलाई और अपने फ़ोटोग्राफ़र को तुरंत बुलवाकर फ़ोटो लिवाया। इसके बाद मुझे उन्होंने बड़े स्नेह से अपना मित्र मानने का आग्रह किया। मैंने इसे अपना सौभाग्य समझा और उत्त समय मेरा हृदय इसलिए आनंद से भर गया कि अपने देश के विज्ञान पर इन्हें में कुछ प्रभावित कर सका। बातें बहुत-सी हुई। परस्पर प्रेम हो जाने से स्पष्ट चर्चाएँ हुईं। अंत में मुझे ज्ञात हुआ कि ये सज्जन उत्त महान् वैधशाला के उप-प्रधान है। उन्होंने साग घूमकर उस वैधशाला के विविध रूप की विशालता के दर्शन करवाए। अब मैंने उनसे विदा लेकर चलते समय इसी प्रकार ज्योतिष के फलादेश के अंग पर भी संक्षिप्त मधुर चर्चा छेड़ दी। वे इस पर भी मुझसे सहमत हो रहे थे। उन्होंने मुझे वहीं रोकने का बहुत आग्रह किया, परंतु समय थोड़ा था और अभी मुझे बहुत देखना था। शीघ्र ही फ़्रांस भी जाना था, अतएव स्नेहपूर्वक क्षमा चाही। दो रोज़ के बाद मैंने लंदन के दो-तीन प्रमुख पत्रों में देखा, मेरी इस भेंट का विवरण वैधशाला से प्रकाशित किया गया है और उसमें अन्यान्य प्रशंसानों के साथ यह ख़ासतौर पर बतलाया गया था कि ...आश्चर्य तो यह है कि भारतीय पंडित बड़ी से बड़ी समस्या को इतनी सरलता से हल करते है कि विस्मित हो जाना पड़ता है। और इसका कारण यही है कि उनके ज्ञान का आधार दृढ़ एवं महत्त्वपूर्ण है। उनके पुराने आचार्यों ने उनके लिए पथ-प्रदर्शक का काम बहुत उत्तम रीति से कर रखा है। उनका किसी निश्चित मत पर पहुँचना उनके निष्कंटक पथ का ही श्रेय है। इत्यादि।
pichhle varsh jab mein yurop gaya tha, yadyapi mein keval videsh ka ek darshak pathik hi bankar raha tha, apne jyotishi hone ki baat prakat nahin hone di thi. kyonki thoDe samay mein, main bahut kuch dekh lena jaan lena chahta tha. tathapi itna akarshan to aspasht hi tha ki mein inglainD ki grinvich aur halainD ki prasiddh vaidhshala dekhe bina nahin lautna chahta tha. jyotishi hone ka vigyapan na karta, to bhi meri vaidhshala sambandhi jigyasa to mere jyotishi roop ko kahin na kahin prakat kar denevali hi thi.
grinvich aur halainD ki mahati vaidhshalaon ke darshan kar unke paridarshak se jab mein kuch parashn kar baithta tab turant pahchan liya jata tha ki mera bhi is vigyan se thoDa bahut sambandh hai. grinvich ki ek ghatna hai. vahan ke ek vesh gyanvetta ke saath bhrman karta mein us sthaan par pahuncha jahan surya ki gati vidhi aur is jyotininD ke tattvon ki khoj karnevala bhimakay yantr laga tha. vahan surya ke vishesh prakar ke anek abhinav photo rakhe hue the. mainne us sangrah mein se do vishal chitron par ne vigyasa kee—
in chitron ko lekar aap antatः kis natije par pahunche hain?
mere is parashn par darshak mahakay baDe chaukanne hue. baat ye thi ki 1937 ke 8 joon ko din mein surya manDal par arora berelis ke karan vichitr prakar ka vatavran aa gaya tha. lagbhag lakhon meel tak akasmik dhumil ann patal sa chha gaya tha ki surya bhi theek nahin dikhai paDta tha, na teekshn parkash hi. iske parinam svarup vayarles, teligraf, reDiyo aadi bahut der tak vyarth hi ge the, gaganmanDal ek vichitr sthiti mein aa gaya tha. uparyukt photograf utti haal mein is vaidhshala mein liye ge the. mein aktubar mein landan ve grinvich gaya tha, atev ye photograf mujhe vahan adhyaynarya rakhe hue dikhai diye.
mere parashn se chaunkkar pradarshak kuch aisi baten karne laga jo taal tool ki theen. mainne us bhalemanum se kaha—
khed hai, mujhe aapke uttar se samadhan nahin huaa. aap yadi kisi yogya vechan ne meri bhent karva den to uttam hoga.
wo apni sthiti ko turant samajh gaya aur apni kamzori ko svikar karta hua ek prauDh sajjan ke nikat usi vishalakay bhavan ke anya kamre men—aufis mein mujhe liva le gaya. ve sajjan baDe tapak ne, haay milakar jigyasa pravardhak drishti se dekhte hue bole—
apne is pradarshak se kya janna chaha tha?
mainne apna vahi uparyukt parashn duhra diya.
ve mahashay usi vishay ka adhyayan kar rahe the aur dusre baDe baDe akash drashta vidvanon se patr vyvahar kar uski charcha chala rahe the. unhen ye apni ruchi ka vishay mila tha. ve savdhan ho ge aur meri taraf gambhir, drishti se dekhkar kahne lage, —hamne abhi koi nirnay to nahin kiya hai. aur bhala aise khaas mamle par sheeghr nirnay bhi kaise kiya jaye? ye to anusandhan ka vishay hai. pratham baar hi akash mein aisi ghatna ghati hai. (baad mein punः aisa hi ek akarman surya par ho chuka hai).
parantu—mainne unki baat rokte hue kaha—apke anya vaigyanikon ka is par kya mat hai? ve is ghatna ko kis roop mein dekhte hain?
un sajjan ne pepron mein mudrit anek vidvanon ke maton ke kating mere samne rakh diye. mainne unhen baDe dhyaan se dekha. unmen vishv ke mane hue vigyanacharya ainstin ka bhi matollekhan tha. unke kathan ka ashay bhi yahi tha ki ye ghatna vichitr hai, surya manDal mein koi parivartan ho raha hai, baur is ghatna ki khoj hogi avashyak hai ityadi. isi prakar ke khagol shastriyon ke aur bhi mat the. mainne in sammatiyon ko paDha aur sadharan smit mudra se tebal par un sajjan ke samne fail ko dhire se sarka diya. ve taaD ge ki mainne sambhvatः upeksha drishti ki hai. akhir ve apne bhaav ko dava na sake aur bol hi paDe—dekha na apne? kaisi gahan samasya upasthit hai? mein isi mein uljha hua hoon. surya ke chitron se gati vidhi ki sookshm jankari praapt kar raha hoon.
mainne punः purvavat sadharan smit karte hue kaha—kshama karen, mujh par in sammatiyon ka koi vishesh prabhav nahin paDa hai.
unki ankhon mein mainne ek tezi aati hui dekhi. ve mere chehre par ankhen tikshnta se gaDakar chashma naak par theek jamate hue gahri chintanshilta se bole—to phir aapke bharatiy shastragyon ka is par kya koi bhinn mat hai?
main julai se yurop mein hoon. pata nahin, bharatiy vidvanon mein se pashchatya navanusandhan drishti ke sar suleman ne bhi koi vaat prakat ki hai ya nahin? parantu mainne idhar yurop ke patron mein do chaar baar is charcha ko paDha avashya hai, aur mera to ye khayal hai ki varah mihir aadi mahan khagol drashta puratan acharyon ne is tarah ki baton par bhi kafi parkash Dala hai. chahe unke samay is tarah surya mein koi vatavran utpann hua ho ya na hua ho, unhen surya ki is avastha ki bhi kalpana avashya hai. unhonne iske karnon mein se jo baten sochi hain ve sarvatha maulik hain aur vicharniy hain. unhonne risarch karne ki baat kahkar apne pathkon ko andhere mein bhatakta nahin chhoDa hai.
aap log to aaj bhi is ek hi mamle mein ekmat se vichar nahin kar rahe hain. dekhiye peru namak jagah se jin logon ne 8 meel uupar jakar photo liye hain ve kahte hain ki surya prishth par 10 laakh meel se adhik gahra dhumil vatavran tha, aur surya vimb ke kinaron par kirnon ka jaal bhi bajiv haalat mein tha. kintu amrika ke vidvanon ne surya prishth par kiran jaal ka phaila dekhana peru ke photo lenevalon ke kaimre ka dosh hi batlaya hai, aur aapke bhi ye photograf to dushit vatavran aur dhumil kiran jaal ka hona pradshint kar rahe hain.
raha nartiy vidvanon ka saval. si baat ye hai ki pahle yurop mein jis samay ye grhan tatha ghatna hui hai chas samay bharat mein surya dikhai nahin de raha tha, ratri ka niviDandhkar ya. bharatiy apaki charcha se vismitt avashya hue, aur apne garg, paradyar, barahamihir ko dekhkar unhen manon aise prsang pahle bhi aaye hi hai, aisa hi malum hua hai, adhik vismay ka to koi karan nahin hua hai.
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garg aur barahamihir ne surya chandr ke grast hone ka parinam pavan, ulkapat, raj, kshiti kamp, digvah aadi batlaya hai. is drishti se mein to samajhta hoon ki is 8 joon ke surya grhan ke avsar par surya prishth par raj radhi ka hi (puli patal ka hee) shayad vishal sangrah na gaya ho. aur dusri baat yadi ghumketu ke atirikt ho sakti hai to wo parivesh hai. parivesh vayu, abhran taya rashmi sanvarsh se ban jata hai. isi prakar in do karnon ki tarah ek baat aur bhi hai. wo surya prishth mein kamp ka ho jana hai. ravi kamp se ravi kiran jaal chanchal ho jate hain, ravi manDal ka tapaman sheet prabhav se, angare par shital chhiton ke girne se jis prakar dhumil vatavran bana dete hain, usi prakar ye bhi ho sakta hai. ravi manDal rajo radhi se ya kamp se avrit hi dhumil ho sakta hai.
is tarah mein apna vivran kahta gaya, aur ant mein mainne batlaya—meri ye niji kalpana nahin hai. ye barahamihir evan aise hi anya prachin achavon ka suryanusandha na hai. yahan mere paas saghan nahin hai. mein eph darshak bankar laya hoon, smriti ke napar par hi batala raha hoon.
ve sajjan to bahut hi akarshit hue aur kahne lage—chahe hun kitne hi sadhanasmanvit ho, par aapke is gharu gyaan ki samta adhyayan maatr ke bal par hum nahin kar sakte. hamara anusandhan kalpana ashrit hai, andhkar mein parkash ki khoj hai. aap kisi nishchit mat par driDh hokar aage baDhte hain. atev aap jis tathya par sheeghr pahunch sakte hain, anusandhan ka path nikal kar nishchit disha par ja sakte hain; hamara maarg utni hi saralta se door hai. main aaj aisa samajh raha hoon ki surya manDal mein baithkar vahin kisi vastu ki khoj kar raha hoon.
phir to utt sajjan ne mujhe agrahpurvak chaay pilai aur apne photografar ko turant bulvakar photo livaya. iske baad mujhe unhonne baDe sneh se apna mitr manne ka agrah kiya. mainne ise apna saubhagya samjha aur utt samay mera hriday isliye anand se bhar gaya ki apne desh ke vigyan par inhen mein kuch prabhavit kar saka. baten bahut si hui. paraspar prem ho jane se aspasht charchayen huin. ant mein mujhe gyaat hua ki ye sajjan utt mahan vaidhshala ke up pardhan hai. unhonne saag ghumkar us vaidhshala ke vividh roop ki vishalata ke darshan karvaye. ab mainne unse vida lekar chalte samay isi prakar jyotish ke phaladesh ke ang par bhi sankshipt madhur charcha chheD di. ve is par bhi mujhse sahmat ho rahe the. unhonne mujhe vahin rokne ka bahut agrah kiya, parantu samay thoDa tha aur abhi mujhe bahut dekhana tha. sheeghr hi fraans bhi jana tha, atev sneh purvak kshama chahi. do roz ke baad mainne landan ke do teen pramukh patron mein dekha, meri is bhent ka vivran vaidhshala se prakashit kiya gaya hai aur usmen anyanya prshansanon ke saath ye khastaur par batlaya gaya tha ki . . . ashcharya to ye hai ki bharatiy panDit baDi se baDi samasya ko itni saralta se hal karte hai ki vismit ho jana paDta hai. aur iska karan yahi hai ki unke gyaan ka adhar driDh evan mahattvpurn hai. unke purane acharyon ne unke liye path pradarshak ka kaam bahut uttam riti se kar rakha hai. unka kisi nishchit mat par pahunchna unke nishkantak path ka hi shrey hai. ityadi.
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mainne apna vahi uparyukt parashn duhra diya.
ve mahashay usi vishay ka adhyayan kar rahe the aur dusre baDe baDe akash drashta vidvanon se patr vyvahar kar uski charcha chala rahe the. unhen ye apni ruchi ka vishay mila tha. ve savdhan ho ge aur meri taraf gambhir, drishti se dekhkar kahne lage, —hamne abhi koi nirnay to nahin kiya hai. aur bhala aise khaas mamle par sheeghr nirnay bhi kaise kiya jaye? ye to anusandhan ka vishay hai. pratham baar hi akash mein aisi ghatna ghati hai. (baad mein punः aisa hi ek akarman surya par ho chuka hai).
parantu—mainne unki baat rokte hue kaha—apke anya vaigyanikon ka is par kya mat hai? ve is ghatna ko kis roop mein dekhte hain?
un sajjan ne pepron mein mudrit anek vidvanon ke maton ke kating mere samne rakh diye. mainne unhen baDe dhyaan se dekha. unmen vishv ke mane hue vigyanacharya ainstin ka bhi matollekhan tha. unke kathan ka ashay bhi yahi tha ki ye ghatna vichitr hai, surya manDal mein koi parivartan ho raha hai, baur is ghatna ki khoj hogi avashyak hai ityadi. isi prakar ke khagol shastriyon ke aur bhi mat the. mainne in sammatiyon ko paDha aur sadharan smit mudra se tebal par un sajjan ke samne fail ko dhire se sarka diya. ve taaD ge ki mainne sambhvatः upeksha drishti ki hai. akhir ve apne bhaav ko dava na sake aur bol hi paDe—dekha na apne? kaisi gahan samasya upasthit hai? mein isi mein uljha hua hoon. surya ke chitron se gati vidhi ki sookshm jankari praapt kar raha hoon.
mainne punः purvavat sadharan smit karte hue kaha—kshama karen, mujh par in sammatiyon ka koi vishesh prabhav nahin paDa hai.
unki ankhon mein mainne ek tezi aati hui dekhi. ve mere chehre par ankhen tikshnta se gaDakar chashma naak par theek jamate hue gahri chintanshilta se bole—to phir aapke bharatiy shastragyon ka is par kya koi bhinn mat hai?
main julai se yurop mein hoon. pata nahin, bharatiy vidvanon mein se pashchatya navanusandhan drishti ke sar suleman ne bhi koi vaat prakat ki hai ya nahin? parantu mainne idhar yurop ke patron mein do chaar baar is charcha ko paDha avashya hai, aur mera to ye khayal hai ki varah mihir aadi mahan khagol drashta puratan acharyon ne is tarah ki baton par bhi kafi parkash Dala hai. chahe unke samay is tarah surya mein koi vatavran utpann hua ho ya na hua ho, unhen surya ki is avastha ki bhi kalpana avashya hai. unhonne iske karnon mein se jo baten sochi hain ve sarvatha maulik hain aur vicharniy hain. unhonne risarch karne ki baat kahkar apne pathkon ko andhere mein bhatakta nahin chhoDa hai.
aap log to aaj bhi is ek hi mamle mein ekmat se vichar nahin kar rahe hain. dekhiye peru namak jagah se jin logon ne 8 meel uupar jakar photo liye hain ve kahte hain ki surya prishth par 10 laakh meel se adhik gahra dhumil vatavran tha, aur surya vimb ke kinaron par kirnon ka jaal bhi bajiv haalat mein tha. kintu amrika ke vidvanon ne surya prishth par kiran jaal ka phaila dekhana peru ke photo lenevalon ke kaimre ka dosh hi batlaya hai, aur aapke bhi ye photograf to dushit vatavran aur dhumil kiran jaal ka hona pradshint kar rahe hain.
raha nartiy vidvanon ka saval. si baat ye hai ki pahle yurop mein jis samay ye grhan tatha ghatna hui hai chas samay bharat mein surya dikhai nahin de raha tha, ratri ka niviDandhkar ya. bharatiy apaki charcha se vismitt avashya hue, aur apne garg, paradyar, barahamihir ko dekhkar unhen manon aise prsang pahle bhi aaye hi hai, aisa hi malum hua hai, adhik vismay ka to koi karan nahin hua hai.
un mahashay ke chehre par vismay ke bhavon ka uday ho raha tha, ve chitr likhit se mujhe dekhte ja rahe the. mein kaar ka vakya khatm kar chup ja tab mano unki vichar tandra bhi bhang hui. zara savdhan hokar phir unhonne kaha—lekin ye to batlaiye ki unki ya apaki sammati mein ye ghatna hai kyaa? ismen kaun sa prkriti ka rahasya nihit hai?
mainne apna kram jari rakhte hue batlaya—han, main vahi to kah raha tha. bharatiy granthon mein surya chandr ke grhan ka sthaan surya chandr ke bhrman vritton ke sampat sthaan ke paas mana hai. surya ka bhrman kranti vritton mein hota hai or chandr ka vikshep vritt mein. in donon vritton ke paraspar do sthanon mein sammat hote hain. ek sampat ka naam rahu hai, aur dusre ka naam ketu hai. kabhi grhan ketu ko samirta mein hota hai aur kabhi rahu ki. pichhla surya grhan ketu ki nikatta mein hua hai. rahu aur ketu ye do badrishya kintu upgrah mane hue hain. ketu parv ke samay surya ghoom ketu ki kaksha ko nikat rakhkar hi vivarg hota hai. aur ghumketu puchchhal tare ka naam hai, ye batlane ki zarurat nahin hai. ghoom ketu ki hazar shakle mani gai hai. ye kabhi drishya hota hai aur kabhi adrishya. adrishya men—ulka vaghairah itti ka svarup hai, vidyut iski shakti hai, baan, raj, tam, ghoom ityadi vishkritiyon hain. akash aur bhumanDal paryant iti ke karan drishya roop liya karte hain. prachin shastragyon ne is mahotpat karak ghumketu ki kaksha ka gyaan rakhna grhan ke samay zaruri batlaya hai. svayan grhan ko ek utpaat kaha hai. usmen phir is mahotpat ka pravesh, surya manDal to theek, na jane kitni bhayavah sthitiyon ka utpadak ho sakta hai. bhukamp, prlay aadi bhi isi ke ugr roop kahe ge hain. barahmihir ne sasht roop mein kaha hai ki surya mein iske vividh roop vikriti utpann karte hain, aur surya manDal mein drilya hote hain.
garg aur barahamihir ne surya chandr ke grast hone ka parinam pavan, ulkapat, raj, kshiti kamp, digvah aadi batlaya hai. is drishti se mein to samajhta hoon ki is 8 joon ke surya grhan ke avsar par surya prishth par raj radhi ka hi (puli patal ka hee) shayad vishal sangrah na gaya ho. aur dusri baat yadi ghumketu ke atirikt ho sakti hai to wo parivesh hai. parivesh vayu, abhran taya rashmi sanvarsh se ban jata hai. isi prakar in do karnon ki tarah ek baat aur bhi hai. wo surya prishth mein kamp ka ho jana hai. ravi kamp se ravi kiran jaal chanchal ho jate hain, ravi manDal ka tapaman sheet prabhav se, angare par shital chhiton ke girne se jis prakar dhumil vatavran bana dete hain, usi prakar ye bhi ho sakta hai. ravi manDal rajo radhi se ya kamp se avrit hi dhumil ho sakta hai.
is tarah mein apna vivran kahta gaya, aur ant mein mainne batlaya—meri ye niji kalpana nahin hai. ye barahamihir evan aise hi anya prachin achavon ka suryanusandha na hai. yahan mere paas saghan nahin hai. mein eph darshak bankar laya hoon, smriti ke napar par hi batala raha hoon.
ve sajjan to bahut hi akarshit hue aur kahne lage—chahe hun kitne hi sadhanasmanvit ho, par aapke is gharu gyaan ki samta adhyayan maatr ke bal par hum nahin kar sakte. hamara anusandhan kalpana ashrit hai, andhkar mein parkash ki khoj hai. aap kisi nishchit mat par driDh hokar aage baDhte hain. atev aap jis tathya par sheeghr pahunch sakte hain, anusandhan ka path nikal kar nishchit disha par ja sakte hain; hamara maarg utni hi saralta se door hai. main aaj aisa samajh raha hoon ki surya manDal mein baithkar vahin kisi vastu ki khoj kar raha hoon.
phir to utt sajjan ne mujhe agrahpurvak chaay pilai aur apne photografar ko turant bulvakar photo livaya. iske baad mujhe unhonne baDe sneh se apna mitr manne ka agrah kiya. mainne ise apna saubhagya samjha aur utt samay mera hriday isliye anand se bhar gaya ki apne desh ke vigyan par inhen mein kuch prabhavit kar saka. baten bahut si hui. paraspar prem ho jane se aspasht charchayen huin. ant mein mujhe gyaat hua ki ye sajjan utt mahan vaidhshala ke up pardhan hai. unhonne saag ghumkar us vaidhshala ke vividh roop ki vishalata ke darshan karvaye. ab mainne unse vida lekar chalte samay isi prakar jyotish ke phaladesh ke ang par bhi sankshipt madhur charcha chheD di. ve is par bhi mujhse sahmat ho rahe the. unhonne mujhe vahin rokne ka bahut agrah kiya, parantu samay thoDa tha aur abhi mujhe bahut dekhana tha. sheeghr hi fraans bhi jana tha, atev sneh purvak kshama chahi. do roz ke baad mainne landan ke do teen pramukh patron mein dekha, meri is bhent ka vivran vaidhshala se prakashit kiya gaya hai aur usmen anyanya prshansanon ke saath ye khastaur par batlaya gaya tha ki . . . ashcharya to ye hai ki bharatiy panDit baDi se baDi samasya ko itni saralta se hal karte hai ki vismit ho jana paDta hai. aur iska karan yahi hai ki unke gyaan ka adhar driDh evan mahattvpurn hai. unke purane acharyon ne unke liye path pradarshak ka kaam bahut uttam riti se kar rakha hai. unka kisi nishchit mat par pahunchna unke nishkantak path ka hi shrey hai. ityadi.
स्रोत :
पुस्तक : सचित्र मासिक पत्रिका भाग-41, खंड 1 (पृष्ठ 24)
संपादक : देवीदत्त शुक्ल, उमेशचंद्रदेव
रचनाकार : सूर्यनारायण व्यास
प्रकाशन : इंडियन प्रेस
संस्करण : 1940
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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