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डॉ. सुधींद्र बोस

Dau. sudhindr bos

नीलकमल ए. पेरूमल

नीलकमल ए. पेरूमल

डॉ. सुधींद्र बोस

नीलकमल ए. पेरूमल

और अधिकनीलकमल ए. पेरूमल

    तीन वर्ष पहले की बात है। अमेरिका की स्टैंडर्ड ऑयल कंपनी का एक माल कलकत्ते से न्यूयार्क जा रहा था। कलकत्ते से चलते समय एक दुबला-पतला ख़ूबसूरत-सा बँगाली नवयुवक जहाज़ के मल्लाहों में भर्ती हुआ। वह पढ़ा-लिखा था। उसने ढाका के विक्टोरिया-कॉलेज से अँग्रेज़ी में विशेष योग्यता के साथ मैट्रिक पास किया था। एक पढ़े-लिखे हिंदू नवयुवक का इस प्रकार मल्लाहों में भर्ती होना, एक अजीब-सी बात थी, क्योंकि साधारणतः जहाज़ी खलासियों में केवल बँगाली मुसलमान ही भर्ती हुआ करते हैं, सो वे भी अनपढ़। ख़ैर लोग इस बात को भूल गए उस नवयुवक को भूल गए, वह कौन था, कहाँ है, इसकी किसी को ख़बर नहीं; मगर सन् 1916 में एकाएक संसार ने देखा कि वही नवयुवक यूनाइटेड स्टेट्स अमेरिका की सेनेट की कमेटी के सामने भारतीयों को अमेरिका में घुसने से रोकने के लिए जो क़ानून बन रहा था, उसका प्रतिवाद करने के लिए अमेरिका-प्रवासी भारतीयों का प्रतिनिधि बनकर वकालत कर रहा है। उसके बाद से हम देखते हैं कि वह अमेरिका की एक प्रसिद्ध यूनिवर्सिटी में अध्यापन का कार्य करता है, संसार के बड़े-से-बड़े राजनीतिज्ञों, सेनेटरों और प्रसिद्ध पुरुषों से भेंट करता है, वह अच्छी से अच्छी स्पीचें देता है, बढ़िया-से-बढ़िया लेख लिखता है, सारी दुनिया का सफ़र करता है। यही नवयुवक डॉ. सुधींद्र बोस हैं, जो अमेरिका के एक प्रसिद्ध राजनीतिवेत्ता डॉ. बेनजामिन एफ. शैम्बॉके के कथानानुसार—“अमेरिका में पूर्वीय राजनीति के सबसे महान अध्यापक, वक्त्ता लेखक हैं।

    सुधींद्र बोस का जन्म ढाका में सन् 1883 में हुआ था। उनके पिता किसी बड़े भारतीय राजा के यहाँ नौकर थे, और उनके बड़े भाई बहुत दिनों तक ढाका के विक्टोरिया-कॉलेज के प्रिंसिपल थे।

    नवयुवक सुधींद्र बड़े तेज़ विद्यार्थियों में था, जिससे उसके शिक्षक बड़े प्रसन्न रहते थे। उसकी अँग्रेज़ी देखकर उसके साथियों को ईर्ष्या होती थी। मैट्रिकुलेशन की परीक्षा पास करने पर उसे अँग्रेज़ी में विशेष निपुणता प्राप्त करने के लिए पारितोषिक भी मिला था।

    सुधींद्र बचपन ही से विदेश-यात्रा करने और संसार देखने का स्वप्न देखा करता था। अंत में एक दिन वह स्टैंडर्ड ऑयल कंपनी के एक माल ढोनेवाले जहाज़ पर सहकारी भंडारी (Assistant Stewart) बनकर भारत से रवाना हो गया। जहाज़ बँगाल की खाड़ी, अरब-समुद्र, स्वेज़ की नहर, भूमध्य सागर भौर ऐटलांटिक महासागर से होता हुआ कई महीने में न्यूयार्क पहुँचा। इस बीच में सुधींद्र पक्के मल्लाह बन गए, लेकिन वे मल्लाह बनने के लिए तो वहाँ गए नहीं थे। मल्लाही तो केवल अमेरिका पहुँचने का एक साधन मात्र थी।

    बोस जाकर न्यूयार्क में उतरे। वहाँ सब चीज़ें निराली और विचित्र थीं। न्यूयार्क को देखते हुए कलकत्ता एक छोटा देहांत-सा मालूम होता था। गगनचुंबी इमारतें, पुरुष-स्त्रियों की भीड़-भाड़, फ़ैशने बिल गाड़ियाँ आदि देखकर वे आश्चर्य में पड़ गए। अब वे एक स्वतंत्र देश में थे, कहाँ वे अपने इच्छानुसार जो चाहे, कर सकते थे; मगर अमेरिका की धन-लिप्सापूर्ण बातों से बोस का भारतीय मस्तिष्क शीघ्र ही ऊब उठा। वे शीघ्र ही न्यूयार्क से फिलडेलफिया चले गए, और वहाँ के एक बड़े 'स्टोर' में सात डॉलर प्रति सप्ताह पर नौकर हो गए, मगर वे वहाँ भी अधिक दिनों तक टिक सके। वे किसी कॉलेज में भर्ती होने के दिन गिना करते थे। अंत में चालीस डॉलर जेब में रखकर वे इलिनास की यूनिवर्सिटी में जाकर भर्ती हो गए। अपना ख़र्च चलाने के लिए उन्होंने सब प्रकार के काम किए। वे लाइब्रेरी में सहकारी रहे, ट्रैवलिंग एजेंट रहे, अख़बारों में रिपोर्टर का काम किया, होटलों में तश्तरियाँ धोईं तथा और भी अनेकों काम किए। अंत में उन्होंने बी. ए. पास किया, और एक वर्ष बाद वे एम. ए. हो गए।

    सन् 1910 में उन्हें आयोवा की सरकारी यूनिवर्सिटी में एक फेलोशिप मिला और सन् 1913 में उन्हें राजनीति शास्त्र में पी-एच. डी. की डिग्री मिली। पी-एच. डी. की उपाधि के लिए उन्होंने जो निबंध लिखा था, उसका विषय था 'भारत में ब्रिटिश राज के कुछ पहलू'। पी. एच. डी. की उपाधि के साथ-साथ सुधींद्र का विद्यार्थी जीवन समाप्त हो गया। उन्होंने अपनी योग्यता से यूनिवर्सिटी को सर्वोच्च उपाधि प्राप्त की थी, और वे फिर उसी यूनिवर्सिटी में अध्यापक हो गए। आज भी वहीं अध्यापन करते हैं।

    डॉक्टर बोस की उम्र अब उनचास वर्ष है। उनका क़द मझोला चेहरा अंडाकार, माथा चौड़ा और होंठ पतले हैं। वे किसी क़दर संकोचशील व्यक्ति हैं। उनके फ़ुर्सत का अधिकांश समय घर पर या यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में अध्ययन करते बीतता है। मेरे अंदाज़ से वे लगभग आठ घंटे रोज़ पढ़ने-लिखने में बिताते हैं। वे हिंदू ढंग पर प्रतिदिन बड़े सवेरे उठते हैं। जाड़ा हो, या गर्मी, आप उन्हें छह बजे सवेरे अपने सुंदर बँगले में किताबों और काग़ज़ों के ढेर के बीच बैठे अध्ययन करते पाएँगे। वे सात बजे नाश्ता करते हैं, और आठ बजे कॉलेज पहुँच जाते हैं। अमेरिकनों की भाँति वे बारह बजे भोजन करते हैं, और संध्या का भोजन साढ़े पाँच बजे खाते हैं। उसके बाद वे फिर अपने घर के पुस्तकालय में चले जाते हैं, और सोने के समय तक पढ़ा करते हैं।

    जब मैं पहले-पहल डॉक्टर बोस से मिला, तो मैं आश्चर्य से हक्का-बक्का रह गया, क्योंकि अपनी विस्तृत विदेश यात्रा में, मैं अभी तक किसी ऐसे भारतीय से नहीं मिला था, जिसने ठेठ हिंदू-ढंग से दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया हो। वे ही नहीं, बल्कि उनकी धर्मपत्नी ने भी—जो एक भद्र अमेरिकन महिला हैं—मुझे ठीक उसी भारतीय ढंग से नमस्कार किया। उन्होंने मुझसे मुस्कुराते हुए कहा—श्रीमती बोस को और मुझे इस बात की प्रसन्नता हैं कि हमी लोगों ने आयोवा नगर में पहला भारतीय उपनिवेश स्थापित किया था।

    यह कहते-कहते उनके चेहरे का रंग बदल गया, और यह प्रत्यक्ष झलकने लगा कि उन्हें अपने हिंदू होने का कितना अभिमान है। ईसाई अमेरिका में वर्षों से डॉक्टर बोस हिंदू धर्म का झंडा ऊँचा किए हुए हैं। वे हिंदू-धर्म पर होनेवाले आक्रमणों का ऐसे उत्साह और दृढ़ता से सामना करते हैं, जिसे देखकर आश्चर्य होता है। अनेकों बार उन्होंने भारतीय धर्मों का महत्त्व अमेरिकनों को समझाया है।

    मैंने अमेरिकन जीवन अख़्तियार कर लिया है, क्या इससे मेरे मन में हिंदू होने का जो अभिमान है, उसमें फ़र्क़ पड़ सकता है। उन्होंने मुझसे पूछा था।

    एक बार एक अमेरिकन ने मुझसे कहा कि चूँकि मैं अमेरिकन हो गया हूँ, इससे मुझे ईसाई हो जाना चाहिए।

    मैंने कहा, क्या यह ज़रूरी है कि सभी अमेरिकन ईसाई ही हों? यह तो सरासर बेवकूफ़ी है!

    बहुत से भारतीयों को यह सुनकर आश्चर्य होगा कि डॉक्टर बोस अमेरिका में भी कैसा ठेठ हिंदू-जीवन व्यतीत करते हैं। उनका ख़ूबसूरत बँगला आयोवा नगर के शांत भाग में है। सरस्वती, रामकृष्ण, विवेकानंद, श्रीकृष्ण, ताजमहल आदि के चित्र उनके कमरों की शोमा बढ़ाते हैं। बैठक के क़ालीन ईरानी हैं, और मेज़ पर रखे हुए पीतल के गुलदान बनारस और दिल्ली के कारीग़रों की करामात हैं। इतना ही नहीं, धूम्रपान का भारतीय हुक्का भी एक ओर रखा दिखाई देता है। इस अमेरिकन घर में पहुँचकर एक बार ऐसा जान पड़ता है, मानो हम हिंदुस्तान में पहुँच गए हैं। गत पंद्रह वर्ष से 'मॉडर्न-रिब्यू' का नियमित पाठक होने के कारण मैं डॉक्टर बोस के लेखों को बड़े चाव से पढ़ा करता था। सन् 1909 में—जब वे विद्यार्थी ही थे—उन्होंने पहले-पहल इलिनास के विश्वविद्यालय पर लेख लिखा था। तब से वे इस सुंदर मासिक पत्र के नियमित लेखक हैं। वे ऐसी स्पष्ट और स्वच्छ शैली में लिखते हैं, जिससे पाठक के मन में उनकी प्रत्येक बात प्रवेश कर जाती है, इसलिए उनके लेखों से मुझे बहुत ज्ञान प्राप्त हुआ है।

    अच्छा यह बताइए कि आपके लेखों को पाठक इतने चाव से क्यों पढ़ते हैं, क्या आप औरों से भित्र ढंग से लिखते हैं! मैंने पूछा।

    हाँ, मैं प्रत्येक बात को संक्षेप में स्पष्ट रूप से और निडरतापूर्वक लिखता हूँ। इस प्रकार के लेख अन्य लेखों की अपेक्षा लोगों के मन को अधिक भाते हैं। लिखने का तरीक़ा ही यही है। उन्होंने उत्तर दिया।

    डॉक्टर बोस बर्नर्ड शॉ, मेनकेन और फ्रैंक हैरिस के समान निडर और खरी बात कह‌ने वाले लेखकों के बहुत क़ायल हैं। इन लोगों की सफलता का रहस्य उनकी स्पष्ट वादिता और ज़ोरदार शैली में ही है। बोस भी हमेशा ऐसे ही ढंग से लिखते हैं, इसीलिए उनके लेख पाठकों को बहुत रुचते हैं। यही कारण है अनेकों अमेरिकन और भारतीय संपादकों के यहाँ से लेख भेजने को प्रार्थना का ताँता लगा रहता है। एक दिन रविवार को मैं उनके पास बैठा था, उस समय उन्होंने मुझे ढेर-के-ढेर पत्र दिलाए, जिनमें अमेरिकन प्रकाशकों ने उनसे भारत के संबंध में कुछ लिखने की प्रार्थना की थी।

    मुझे लिखने के लिए बहुत थोड़ा समय मिलता है—उन्होंने कहा—लेकिन इन लोगों के लिए लेख लिखने में मेरा मुख्य उद्देश देश की सेवा करना है, क्योंकि भारतीय द्वारा लिखित खेतों को पढ़कर अनेकों अमेरिकन भारत को अधिक अच्छी तरह समझ सकेंगे। साथ ही मैं इस बात की कोशिश किया करता हूँ कि भारत और पूर्वीय देशों के लोग भी अमेरिका की अच्छी-से-अच्छी बातें समझ सकें।

    भारतीय अख़बारों में लेख लिख-लिखकर उन्होंने पाश्चात्य सभ्यता की अच्छी-से-अच्छी बातें बताई हैं। उनके लेखों को पढ़कर बहुत से लोगों का ज्ञानवर्द्धन हुआ है। उनके लेखों की प्रशंसा में संसार के कोने-कोने से इतने पत्र आते हैं, जिन्हें देखकर मैं हैरान रह गया। वास्तव में उन्होंने अपनी लेखनी से भारत की यथार्थ सेवा की है।

    अमेरिका में रहने वाले पूर्वीय व्यक्तियों में डॉक्टर बोस के समान वक्त्ता शायद ही कोई होगा। मैंने कई अवसरों पर उन्हें बोलते हुए सुना है। क्लास रूम में विद्यार्थियों को व्याख्यान देते समय उनकी शैली और होती है, और गिरजे के धार्मिक श्रोताओं को वक्तृता देते समय उनकी शैली और होती है। उनकी वक्तृता में खोज, स्पष्टता और परिहास रहता है। उनमें हाथ-पैर का नाटकीय परिणालन नहीं होता, मगर स्वाभाविक हिलना-डुलना भी बंद नहीं होता। वे अपने श्रोताओं की घंटों तक मंत्र मुग्ध रख सकते हैं। वक्तृता समाप्त हो जाने पर भी श्रोताओं की तबियत हॉल से बाहर जाने को नहीं चाहती।

    एक अमेरिकन शहर में उनके व्याख्यान की समाप्ति पर एक महिला ने कहा—मैं सोचती थी कि आप और एक घंटे तक व्याख्यान देंगे।

    नहीं श्रीमतीजी, मैं इतने ही समय में ख़तम किया करता हूँ। बोस ने उत्तर दिया।

    शिक्षक के रूप में भी डॉक्टर बोस का रिकार्ड भी ईर्ष्या के योग्य हैं। वे आयोवा यूनिवर्सिटी के फेकल्टी के एक प्रभावशाली सदस्य हैं। अमेरिका के कोने-कोने से सैकड़ों विद्यार्थी आयोवा में एकत्रित होते हैं, क्योंकि वे पूर्वीय राजनीति एक पूर्वीय शिक्षक से पड़ सकेंगे।

    जब मैं आयोवा-कॉलेज में पड़ता था, तब मेरे सहपाठी मुझसे बहुधा पूछा करते थे—“क्या तुम बोस को जानते हो?” जब मैं हौ कहता, तो वे कहते कि उनके क्लास में हमें सबसे अधिक आनंद आता है।

    वे कहते—बोस पूर्व की सबसे जाज्ज्वल्यमान उपज हैं।

    डॉक्टर बोस तीन पुस्तकों के रचयिता हैं। एक तो भारत में ब्रिटिश राज के कुछ पहलू जो उन्होंने पी-एच.डी. की परीक्षा के लिए लिखी थी। इसमें आदिकाल से भारत का महत्व दिखाया गया है, और यह बताया गया है कि उसने संसार की संस्कृति बढ़ाने में कितना भाग लिया था और फिर ब्रिटिश राज का ग़ुलाम होकर उसका कैसा पतन हुआ।

    उनकी दूसरी पुस्तक 'अमेरिका में पंद्रह वर्ष' में एक निष्यक्षपात लेखक अमेरिकन जीवन का सच्चा चित्र अंकित करता है। जापान पर चेंबर लेन की प्रामाणिक पुस्तक की भाँति अमेरिका के विषय में डॉक्टर बोस को किताब भी प्रामाणिक कहीं का सकती है, और जिन लोगों ने नई दुनिया नहीं देखी, वे इस पुस्तक के द्वारा अमेरिका की वास्तविक बातें जान सकते हैं।

    'अमेरिका की झलक' (Glimpses of America) उनकी तीसरी पुस्तक है। यह 'अमेरिका पंद्रह वर्ष की पूरक पुस्तक है।

    एक दिन हम लोग पत्रकार-कला पर बात कर रहे थे। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में इस विषय की जितनी पुस्तकें हैं, उन्होंने उन सबको पढ़ा है। वास्तव में बहुत कम भारतीय ऐसे ज्ञान-पिपासु होंगे, जैसे डॉक्टर बोस।

    भारतवर्ष में समाचार पत्रों को अभी बहुत उन्नति करनी है। हम लोग अमेरिकन पत्रों का अनुकरण करके बहुत कुछ लाभ उठा सकते हैं। भला, वर्तमान भारतीय प्रेस से हमें कब तक संतोष होगा? अब हमें इस ओर अधिक उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। डॉक्टर ने कहा था। उनका यह भी विश्वास है कि पत्रकार-कला का स्कूल खोलने से भारतीय नवयुवकों को लाभ पहुँचेगा, अख़बारों में काम करने के पहले उन्हें पत्रकार-कला का ज्ञान होगा।

    डॉक्टर बोस की बातचीत बड़ी दिलचस्प होती है, विशेषकर भोजन करते समय जब कभी मैं उनके यहाँ भोजन करने को निमंत्रित हुआ हूँ, मुझे उनके वार्तालाप से बड़ा आनंद मिला है। इस विषय में श्रीमती बोस भी कम नहीं है। यह आनंददायक वार्तालाप केवल मेरे हिस्से में ही नहीं था, अमेरिका आनेवाला जो कोई भी भारतीय उनसे मिला है, उसने उनके वार्तालाप का आनंद उठाया है। भारतीय उनके यहाँ ठेठ भारतीय अथिति-सत्कार पाते हैं। भोजन में भी दाल-भात और भारतीय मिठाइयों से उनका सत्कार किया जाता है।

    एक दिन मैंने आयोवा नगर में यहूदी-समाज के सामने भारत पर व्याख्यान दिया था। मेरे व्याख्यान की समाप्ति पर एक नवयुवक मेरे पास आया, और कहने लगा—कुछ भी हो, भारतवर्ष ने कुछ महान मस्तिष्क वाले पुरुष ज़रूर उत्पन्न किए हैं। दूर क्यों जाइए, यहीं पर डॉक्टर बोस का उदाहरण के लीजिए। वे दलित व्यक्तियों के सदा सहायक रहे हैं; वास्तव में पिछले अनेक वर्षों से वे असहाय और पददलितों की रक्षा में ही दत्तचित्त हैं। बहुत कम अमेरिकन ऐसे मिलेंगे, जो छाती पर हाथ रखकर सच्चाई के साथ कह सकेंगे कि उन्होंने भी दलितों की इस प्रकार रक्षा की है।

    मैं सुनकर चुप हो गया। अचानक मेरे मन में एक अप्रत्याशित गौरव जाग्रत हो उठा, क्योंकि मैं एक ऐसे व्यक्ति की प्रशंसा सुन रहा था, जिसे भारत माता ने उत्पन्न किया है। यद्यपि वे भारत के पददलितों की रक्षा के लिए भारत में उपस्थित नहीं हैं, मगर उनके चले आने से भारत को जितनी हानि हुई है, अमेरिका को—नहीं, सारे संसार को—उतना ही लाभ पहुँचा है।

    डॉक्टर बोस में पूर्व की समस्त उत्तमोत्तम विशेषताएँ और पाश्चात्य की सर्वोतम संस्कृति है। यद्यपि वे अमेरिका के नागरिक है, मगर उन्हें ठेठ भारतीय कहने में कोई भूल होगी। वे गत तीस वर्षों से अमेरिका में पूर्वीय देशों पर लेक्चर देते हैं, और पूर्वीय देशों के सामयिक पत्रों में अमेरिका के संबंध में लिखते हैं। पूर्व और पश्चिम में एक दूसरे को ठीक-ठीक समझाने के लिए बोस ने जितना प्रयत्न किया है, उतना शायद ही और किसी व्यक्ति ने किया होगा। वे दोनों को अच्छी तरह जानते हैं, और उन्हें एक दूसरे को सच्चे रूप में समझाते हैं। वे पूर्व और पश्चिम की सांस्कृतिक, राजनैतिक और आध्यात्मिक एकता के लिए प्रयत्नशील हैं। उनके जीवन का उद्देश्य है पूर्व—पश्चिम में भातृ-भाव स्थापित करना, और इसके लिए वे अपना कर्तव्य पालन कर रहे हैं। बाक़ी रही उनके व्यक्तित्व की बात, सो मैंने जो अपनी आँखों देखा, वह ऊपर लिखा जा चुका है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विशाल भारत भाग 10 (पृष्ठ 61)
    • संपादक : बनारसीदास चतुर्वेदी
    • रचनाकार : नीलकमल ए. पेरूमल
    • प्रकाशन : इंडियन प्रेस
    • संस्करण : 1932
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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