उसका साथ यद्यपि तीन ही वर्ष रहा, पर उस संक्षिप्त अवधि में भी हम दोनों अटूट मैत्री की डोर में बँध गए। उन दिनों पूरा आश्रम ही संगीतमय था। कभी 'चित्रांगदा' का पूर्वाभ्यास, कभी 'माचेर-खेला', कभी 'श्यामा' और कभी 'ताशेर देश'। उन दिनों आश्रम में सुरीले कंठों का अभाव नहीं था। खुकू दी (अमिता), मोहर (कनिका देवी), स्मृति, इंदुलेखा घोष, विश्री जगेशिया, सुचित्रा ऐसी ही कोकलकंठी सुगायिकाओं के कंठों में एक कड़ी और जुड़ी। जैसा ही कंठ, वैसी ही खाँटी बंगाली जोतदारी ठसक। बूटा-सा कद, उज्ज्वल गौर वर्ण, बड़ी-बड़ी फ़िरोज़ी शरबती आँखें, जो पल-पल गिरगिट-सा रंग बदलती थीं। पहले ही दिन उसने संगीत सभा में बाउल गीत गाया-
कंठे आमार
शेष रागिनीर
वेदन बाजे
बाउल शेजेगो!
तो पूरा आश्रम झूम उठा और फिर तो वह देखते-ही-देखते लोकप्रिय गायिकाओं में अग्रणी हो गई। यद्यपि वह छात्रावास में कभी नहीं रही। पहले खेल के मैदान के छोर पर और बाद में आश्रम के सीमांत पर बनी एक पुरानी कोठी को किराए पर लेकर उसकी विधवा माँ अपने परिवार को लेकर रहने लगी।
उसी ने बताया कि वे अठारह भाई-बहन हैं, पर सब इधर-उधर। कुछ बहनों का विवाह हो गया था, कुछ को विदेश भेजा। वे प्रवासिनी बन गई थीं। बड़े भाई की मृत्यु हो चुकी थी। केवल दो भाई गोपाल और बादल आश्रम में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। उनका रहन-सहन, ओढ़ना-पहनना, खान-पान एकदम ज़मींदाराना था। कई दास-दासियाँ थीं। खाना पकाने वाला उड़िया ठाकुर था, जिसकी अद्भुत पाक-कला से नुकू (यही अरुंधती का 'पुकारने का नाम' था) की पूरी मित्र-मंडली बुरी तरह प्रभावित हो चली थी। एक ओर उनका अभिजात्य, दूसरी ओर वैसी ही विनम्र शिष्टता। उसकी माँ, जिन्हें हम 'माशी माँ' कहते थे, दीर्घांगी व्यक्तित्व संपन्न तेजस्वी महिला थीं। बहुत कम बोलती थीं, पर स्नेह-धारा जैसे उनकी विषादपूर्ण आँखों से निरंतर झरती रहती थी। प्राय: ही हमें खाने को बुलातीं और स्वयं हाथ का पंखा झलतीं। हमें परमतृप्ति से खाते देख स्वयं भी तृप्त हो उठतीं।
मैंने नुकू के जितने भी भाई-बहन देखे, सबका रंग-रूप-ठप्पा प्राय: एक-सा ही था। केवल छोटे भाई प्रवीर या बादल को छोड़ कर। वही ऐंग्लोइंडियनी रंग और हरी-हरी आँखें। कभी भी किसी अनुष्ठान में वंदेमातरम गाने का अवसर आता, तो हम दोनों को ही एक साथ बुलाया जाता। हमारे संगीत गुरु शैलजा रंजन मजूमदार कहते थे, 'तादेरे गला बेश मिते जाए। तारोई जाबी।' ('तुम दोनों का कंठस्वर मेल खाता है, इसी से तुम्हीं दोनों को जाना होगा।')
एक बार यही 'वंदेमातरम' गान गाने के लिए हमें शिउड़ी ग्राम जाना पड़ा था। बैलगाड़ी में हिचकोले खाते-खाते जब शिउड़ी पहुँचे, तो संध्या हो गई। उद्बोधिनी संगीत के बाद ही लौटना पड़ा। मार्ग में अँधेरा हो गया। सहसा आँधी आई और बैलगाड़ी में लटकी लालटेन भी बुझ गई। यद्यपि हमारे साथ और भी लोग थे, पर सुना था वह मार्ग बहुत सुविधा का नहीं हैं। पास ही में कहीं कापालिकों की आराध्या अट्टहास देवी का मंदिर भी है।
बार-बार गाड़ीवान कह रहा था, 'भय पाबेन ना दीदीमनीरा, किस्सू हौबे ना!' (डरिएगा मत दोदीमनी, कुछ नहीं होगा) पर जब तक बोलपुर नहीं पहुँचे, हम दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़े भय से काँपती रही थीं।
अरुंधती का चेहरा विधाता ने अवकाश ही में गढ़ा होगा। खड्ग की धार-सी नाक, छोटे दो रसीले अधर और मद-भरी आँखें। न कोई मेकअप, न सज्जा, फिर भी अष्टभुजा का-सा दिव्य रूप।
एक घटना बरबस अतीत की ओर खींच रही है। एक बार आश्रम के मेले में आश्रम की कुछ छात्राओं ने चाय का एक स्टॉल लगाया। सबने सफ़ेद साड़ी पहनी, संथाली जूड़ों में जवापुष्प खोंसा और सिर पर धरी तिरछी गांधी कैप। 'मेनू' की सज्जा सँवारी जया अप्पास्वामी ने। देखते-ही-देखते हमारी दुकान पर भीड़ लग गई। आश्रम का चाय वाला बूढ़ा कालू, जिसका स्टॉल ठीक हमारे स्टॉल के सामने था, हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाने लगा, 'दीदीमनीरा, आमार दोकाने जे केइ आशछे ना। सब दादा बाबूरा तो अपना देरई दोकाने!' (दीदीमनी, मेरी दुकान में तो ग्राहक फटक ही नहीं रहे हैं, सब दादा बाबू तो आप ही की दुकान पर जा रहे हैं।)
हमने उसे आश्वस्त किया कि हम अपनी दुकान चार बजे ही उठा लेंगे। कोई नहीं आया तो हम सब छात्राएँ उसी के स्टॉल पर खाकर उसकी क्षतिपूर्ति करेंगी। एक तो हमारे स्टॉल पर वे सर्वथा नवीन स्वादवाली सामग्री परिवेशित हो रही थी, जो बंगाल की जिह्वा के लिए अभिनव थी। इडली बड़ा, उधर उत्तर-प्रदेशी समोसे, बिहार का तिलबुग्गा और अनरसे। सर अकबर हैदरी भी हमारी दुकान पर पधारे तो उन्हें एक समोसा खिला हमने दस रुपए उगाह लिए। वह भी तब, जब एकन्नी में मसाले से ठँसा-फँसा समोसा अन्यत्र उपलब्ध था। मृणाल दी (मृणालिनी साराभाई), बूढ़ी दी (नंदिता कृपलानी), दक्षिण को लीला एप्पन, चकर-चकर चहकने वाली चेट्टी, चीन की मारी बाँग सब परिवेशन के लिए फौजी अनुशासन में खड़ी थीं। जिस मेज पर मैं और नुकू थे, देखा उसी ओर एक अपरिचित जोड़ा चला आ रहा है। अपरूप सुंदरी यौवनाक्रांता छरहरी कनक छड़ी-सी तरुणी और उतना ही काला-कदंब बौना-सा सहचर।
मैंने नुकू के कान में फुसफुसा कर कहा, 'एई दैख नुकू ब्यूटी एंड बीस्ट!'
वह हँस कर चुप रही। दोनों हमारी मेज पर बड़ी देर तक खाते, बतियाते हँसते-खिलखिलाते रहे, फिर उस व्यक्ति ने नुकू को बुलाकर कहा, 'एई नुकू बिल निए आय!'
मैं चौंकी। तब क्या वह इन्हें जानती थी? पर तब ही, उसने बड़ी दुष्टता से हँसकर मेरा हाथ पकड़ उन दोनों के सम्मुख खींचकर कहा, 'जानो छोट दी, आमार बंधु तोमादेर की बोलछे? ब्यूटी एंड बीस्ट!'
मैं लज्जा से कट कर रह गई। मुझे क्या पता था कि छोट दी नुकू की सगी बड़ी बहन हैं और कल ही कलकत्ता से आई हैं और उनके सहचर, जिन्हें मैंने अज्ञानवश 'बीस्ट' की उपाधि से विभूषित किया था, वे उसके सगे जीजा हैं। पर उसके रसिक जीजा ने शायद मेरी अपदस्थता भाँप ली थी। बड़े अधिकार से मेरा हाथ खींच, अपने पास बिठाकर बोले, 'बेश करेछो हे, आमार सुंदरी गिन्नी के ब्यूटी बलेछो तो थेंक्स!'
उन्हें 'बीस्ट' कहा था, यह वह आह्लादी उदार व्यक्ति भूल गया। इसके बाद दो बार उनसे मिलना हुआ। वही प्रसंग और वैसे ही उदार हँसी। यही नहीं, पूजा में उन्होंने मेरे लिए विशेष उपहार के रूप में एक हाँडी संदेश ही नहीं भिजवाए, एक सुंदर धानी घनरेवाली साड़ी भी भेजी। साथ में था एक पत्र-
ओहे शालीर बंधु,
ए साड़ी तोमाके खूब मानाबे
आमादेर भालबाशा निमो
- ब्यूटी एँड बीस्ट।
(अरी, साली की सखी, यह साड़ी तुम पर ख़ूब फबेगी। हमारा प्यार लो- ब्यूटी एंड बीस्ट।)
आज भी वह स्नेहप्रवण चेहरा याद आते ही अपनी बचकानी उक्ति पर लज्जा आती है। छोट दी अभी भी आश्रम में हैं। जमाई बाबू नहीं रहे। वही दो वर्ष पूर्व नुकू ने मुझे बंबई में मिलने पर बताया था। वह अपने पति प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक श्री तपन सिन्हा के साथ जसलोक में अपनी बायपास सर्जरी कराने आई थी। अंत तक शल्यक्रिया नहीं हुई। अस्पताल के व्यवहार से वह क्षुब्ध होकर मेरे यहाँ चली आई और दिन भर हम दोनों ने साथ बिताया। कितनी बातें कीं। कितनी ही अनकही रह गईं। अरुंधती ने अपने जीवन-काल में ही प्रचुर ख्याति बटोरी थी। पहले स्वयं चलचित्रों के माध्यम से अपने अपूर्व अभिनय द्वारा, गायिका के रूप में और 'यात्रिक', 'क्षुधित पाषाण', 'महाप्रस्थानेर पथे', 'छुटी', 'गोपाल' आदि चलचित्रों की निर्देशिका के रूप में!
देखना, कभी तेरे किसी उपन्यास पर भी फिल्म बनाऊँगी, पर हिंदी तो आता नहीं। तू ही बँगला में सिनॉप्सिस बनाना। यही कभी माणिक दा (सत्यजीत रे) ने भी कहा था, किंतु मन-की-मन में रह गई। मेरे उपन्यास धरे ही रह गए, नुकू चली गई।
जब उसे बंबई में देखा, तो धक्का लगा था। कहाँ गया वह रूप, वह रंग! जब आश्रम के असंख्य छात्रों के हृदय वह अपनी फ़िरोज़ी आँखों की चिलमन में दाबे, गर्वोन्नत मरालग्रीवा उठाए, राजमहिषी की-सी चाल में घूमती थी। मग्न दंतपंक्ति, काल धूसर गौरवर्ण, जिसकी पीताभ आभा पर सुदीर्घ व्याधि ने स्याही-सी फेर कर रख दी थी। कौन कहेगा यह कभी आश्रम की सर्वश्रेष्ठ सुरसुंदरी के रूप में जानी जाती थी। ठीक ही कहा है शायद-
मा कुरु धनजन यौवन गर्वम्
हरति निमेषे काल: सर्वम्।
बहुत पहले पक्षाघात का एक सशक्त झटका उसके पैरों में भी अपने कुटिल हस्ताक्षर छोड़ गया था। 'देखद्दीश तो पायेर की दुरवस्था! (देख रही है, पैरों की कैसी दुरवस्था हो गई है!) मेरी आँखों में आँसू आ गए।
एक बार उसकी सज्जा करने में जुटी गौरी दी (नंदलाल बोस की बड़ी पुत्री) ने मेरी ही उपस्थिति में कहा था, 'आहा, ऐकेबारे मुगल ब्यूटी!' (आहा, एकदम मुगल ब्यूटी!)
पर आँखें अब भी वैसी ही थीं- अमिय हलाहल मद भरे। ठीक जैसे किसी ऐतिहासिक बुलंद इमारत के खँडहर में अनूठे कँगूरों से विभूषित झरोखे, ज्यों के त्यों धरे हों। इसके बाद उसका एक ही पत्र मिला था। वह बायपास के लिए विदेश जा रही है, पर वहाँ से भी कोरी ही लौटी, फिर पहुँची बेंगलौर। उसने भी शल्यक्रिया को निरापद नहीं बताया। कई धमनियाँ रक्त के थक्कों से अवरुद्ध हो गई थीं, फिर एक दिन वह बिना किसी से विदा लिए चुपचाप चली गई।
- पुस्तक : हिंदी समय
- रचनाकार : शिवानी
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.