सावण सरसी कामणी चरन कमल सिउ पिआर॥
मन तन रता सच रंग इको नाम अधार।
बिखिआ रंग कूड़ाविआ दिसन सभे छार॥
हर अंम्रित बूंद सुहावणी मिल साधू पीवणहार।
वण तिण प्रभ संग मउलिआ संम्रथ पुरख अपार॥
हर मिलणै नो मन लोचदा करम मिलावणहार।
जिनी सखीए प्रभ पाइआ हंउ तिन कै सद बलिहार॥
नानक हर जी मइआ कर सबद सवारणहार।
सावण तिना सुहागणी जिन राम नाम उर हार॥
सावन के महीने में प्रभु के चरण-कमलों से प्रीति करने वाली जीवात्मारूपी स्त्री आनंद से प्रफुल्लित है। उसका तन और मन दोनों प्रभु की प्रीति में लीन हैं। अब उसका एकमात्र सहारा उस मालिक का नाम है। उसे विषयों के आनंद झूठे, बेस्वाद और ख़ाक जैसे लगते हैं। साधु के मिल जाने से वह हरिनाम का अमृत पीने में सफल हो गई है। उसे अनंत सर्वसमर्थ प्रभु के संग से सारी वनस्पति हरी-भरी लग रही है। जीवात्मा को हरि के प्रेम का आनंद लेते देखकर मेरे मन में भी उस प्रियतम से मिलने की कामना जाग उठी है, पर यह उसकी कृपा से ही पूरी होगी। मैं अपनी उन सखी आत्माओं पर बलिहारी जाती हूँ जिन्होंने उसे पा लिया है। गुरु साहिब प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु! दया करके मुझे शब्द के द्वारा आत्मा को सँवारनेवाले संत की संगति बख़्शो, क्योंकि शब्द-अभ्यास गुरु के उपदेश के बिना अपने आप नहीं किया जा सकता। सावन का महीना उन सुहागिन आत्माओं के लिए सुखदायक होता है जिन्होंने परमेश्वर के नाम को अपने हृदय का हार बना लिया हो।
- पुस्तक : गुरु अर्जुन देव (पृष्ठ 236)
- संपादक : महिंदर सिंह जोशी
- रचनाकार : गुरु अर्जुनदेव
- प्रकाशन : राधास्वामी सत्संग ब्यास
- संस्करण : 2012
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