सतगुरु पूरे परम उदारा। दया दृष्टि से मोहिं निहारा॥
दूर देश से चलकर आया। दरशन कर मन अति हरखाया॥
सुन-सुन बचन प्रीत हिय जागी। चरन सरन में सूरत पागी॥
करम भरम संशय सब भागा। राधास्वामी चरन बढ़ा अनुरागा॥
सुरत शब्द मारग दरसाया। बिरह अंग ले ताहि कमाया॥
कुल कुटुंब का मोह छुड़ाना। सतसंगत में मन ठहराना॥
सुमिरन भजन रसीला लागा। सोता मन धुन सुन कर जागा॥
मेहर हुई स्रुत नभ पर दौड़ी। त्रिकुटी जा गुर चरनन जोड़ी॥
अचरज लीला देखी सुन में। मुरली धुन अब पड़ी श्रवन में॥
पहुँची फिर सतगुरु दरबारा। अलख अगम को जाय निहारा॥
वहाँ से भी फिर अधर सिधारी। मिल गए राधास्वामी पुरुष अपारी॥
वहाँ जाय कर आरत गाई। पूरन दया सामने पाई॥
- पुस्तक : संत काव्य-धारा (पृष्ठ 350)
- संपादक : परशुराम चतुर्वेदी
- रचनाकार : संत सालिगराम
- प्रकाशन : किताब महहल, इलाहाबाद
- संस्करण : 1981
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