सखी मोहि नींद न आवै री, एरी बैरन बिरह जगावै॥
सूनी सेज पिया बिन व्याकुल, पीर सतावै री॥
रैन न चैन दिवस दुख व्यापै, जग नहिं भावै री॥
तड़फत बदन बिना सुख सइयाँ, सब जरि जावै री॥
विषधर लहर डसै नागिन सी, ज्यों जस खावै री॥
देवै मौत दई बिरहन को, होते मरि जावै री॥
कैफ बिना तुलसी तन सूखै, जिय तरसावै री॥
विरहनी कहती है कि हे सखी! मुझे नींद नहीं आती। यह बैरी विरह मुझे रात भर जगाए रखता है। पिया के बिना सेज सूनी है और मन व्याकुल है और विरह की पीर सता रही है। मुझे रात को चैन नहीं है, दिन भी दुख में बीत जाता है और यह संसार मुझे नहीं सुहाता। पिया के सुख के बिना मेरा बदन तड़प रहा है, ऐसा मालूम होता है कि सब कुछ जल रहा है। उसी तरह सतगुरु के मिलन के बिना सब भक्तजन और विरहीजन तड़प रहे हैं। विरहनी पुनः कहती है कि मुझे ज़हर की लहर चढ़ रही है जैसे साँप ने काट लिया हो। विरहिनी तंग होकर फिर कहती है कि इससे तो विधाता विरहिन को मौत दे देता। वह पैदा होते ही मर क्यों न गई? तुलसी साहब फ़रमाते हैं कि बिना पिया सुख के विरहिन का तन सूख गया है, और जिया तरस रहा है। इसी तरह भक्त भी संत समागम के बिना तड़प और तरस रहा है और विरहिन की भाषा बोलने पर मजबूर हो गया है।
- पुस्तक : तुलसी साहब (हाथरस वाले) की बानी (पृष्ठ 5)
- संपादक : ज्ञान दास माहेश्वरी
- रचनाकार : तुलसी साहब
- प्रकाशन : स्वामी बाग, आगरा
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