सभना मरणा आइआ वेछोड़ा सभनाइ।
पुछहु जाइ सिआणिआ आगै मिलणु कि नाह॥
जिन मेरा साहिबु वीसरै वडड़ी वेदन तिनाह॥
भी सालाहिहु साचा सोइ।
जाकी नदरि सदा सुखु होइ॥ ॥रहाउ॥
वडा करि सालाहणा है भी होसी सोइ।
सभना दाता एकु तू माणस दाति न होई॥
जो तिसु भावै तो थीऐ रंन कि रुनै होइ॥
धरती उपरि कोट गड़ केती गई वजाइ।
जो असमानि न मावनी तिन नकि नथा पाइ॥
जे मन जाणहि सूलीआ काहे मिठा खाहि॥
नानक अउगुण जेतड़े तेते गली ज़ंजीर।
जे गुण होनि त कटीअनि से भाई से वीर॥
अगै गए न मंनीअनि मारि कढहु वे पीर॥
सभी का मारना आवश्यक है और सब का वियोग भी (अवश्यसंभावी) है। किसी चतुर (सयाने) के पास जाकर पूछो कि (मर कर) किसी को (हरी का) मिलाप परलोक में होगा? जिन्होंने मेरे साहब को भुला दाय है, उन्हें बड़ी वेदना होगी (तात्पर्य यह कि उन्हें अनेक कष्ट भोगने पड़ेगे)।
उस सच्चे (परमात्मा) की फिर, (पुनः—बराबर) स्तुति करो, जिसकी कपादृष्टि से सदैव सुख प्राप्त होता है। महान (समझ) कर, (उसकी) स्तुति करो, (वही प्रभु) (वर्तमान में) है, (भूत में) था (और भविष्य में) रहेगा। (हे प्रभु), एक तू ही सब का दाता है, मनुष्य के (दिए हुए) दान ही नहीं सकते। जो (उस प्रभु को) भाता है वही होता है; स्त्रियों की भाँति रोने से क्या होता है?
धरती के ऊपर कोट (दुर्ग) और गढ़ बनाकर, कितने ही (लोग) (नौबत) बजा गए, (तात्पर्य यह कि राज्य कर कए)। जो (लोग अहकार से) आकाश में भी नहीं समाते थे, उनकी नाक में (गुलामी की भाँति) नाथ डाल दी गई। हे मन, यदि (तू) विषयो को) शूली की भाँति जानता, तो (उन्हें) मीठे (की भाँति) क्यों खाता?
हे नानक, (जिस मनुष्य में) जितने अवगुण होते हैं, (उसके गले में उतनी ही जंजीरे (पड़ेगी)। यदि गुण, हो, (तभी ये जंजीरे) कटेगी, गुण ही हमारे भाई और मित्र है। (जिन के गुरु नहीं है मरणोपरांत) आगे (परलोक में) वे माने नहीं जाएगे, (स्वीकार नहीं किए जाएगे) और बेपीर (निगुण) कह कर (परमात्मा के दरबार से वे) निकाल दिए जाएगे।
- पुस्तक : गुरु नानकदेव वाणी और विचार (पृष्ठ 213)
- संपादक : रमेशचंद्र मिश्र
- रचनाकार : गुरु नानक
- प्रकाशन : संंत साहित्य संस्थान
- संस्करण : 2003
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