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काइआ कागदु मनु परवाणा

kaia kagadu manu parwana

गुरु नानक

गुरु नानक

काइआ कागदु मनु परवाणा

गुरु नानक

और अधिकगुरु नानक

    काइआ कागदु मनु परवाणा। सिर के लेखन पड़े इआणा॥

    दरगह घड़ीअहि तीने लेख। खोटा कमि आवै वेखु।

    नानक जे विचि रूपा होइ। खरा खरा आखै सभु कोइ॥ रहाउ॥

    कादी कूड़ु बोलि मलु खाइ। ब्राहमणु नावै जीआ घाइ॥

    जोगी जुगति जाणे अंधु। तीने ओजाड़े का बंधु॥

    सो जोगी जो जुगति पछाणै। गुर परसादी एको जाणै॥

    काजी सो जो उलटी करै। गुर परसादी जीवतु मरै॥

    सो ब्राहमणुजो ब्रहम बीचारै। आपि तरै सगले कुल तारै॥

    दानसबंदु सोई दिलि धोवै। मुसलमाणुसोई मलु खोवै॥

    पड़िआ बूझै सो परवाणु। जिसु सिरि दरगह का नीसाणु॥

    शरीर कागज़ है और मन (स्वभाव, आचरण) (उसके ऊपर लिखा हुआ) परवाना (आदेशपत्र) है। मूर्ख (अज्ञानी) पुरुष (अपने) मत्थे के ऊपर (लिखा हुआ परमात्मा का) लेख नहीं पढ़ता। परमात्मा के दरबार में तीन प्रकार के लेख लिखे जाते है (उत्तम, मध्यम और निकृष्ट)। (विचार करके) देखो (जो) खोटा है, (वह) काम नहीं आता।

    हे नानक, जिस (सिक्के) में चाँदी होती है, (उसी को) सब ‘खरा-खरा’ है; (और वहीं काम में आता है, खोटा सिक्का काम में नहीं आता, वह खोटो में फेक दिया जाता है)।

    काजी झूठ बोल बोलकर मल (हराम की कमाई) खाता है। ब्रह्मण जीवों को मारकर (दुःख देकर), (फिर प्रदर्शन के लिए तीर्थों में) नहाता फिरता है। योगी अंधा (अज्ञानी) है, वह (परमात्मा से मुक्त होने की) युक्ति नहीं जानता, (उपयुक्त) तीनों ही उजाड़ के समान हैं।

    (वास्तव में) (सच्चा) योगी वही हैं, जो (परमात्मा से मिलन की) युक्ति जानता है और (वह) गुरु की कृपा से एक मात्र (हरी को ही) जानता है। काजी वही है जो (माया की ओर से चित्त) उलट ले, (मोड़ ले) और गुरु की कृपा से जीवित ही (अपने अहंकारी से) मर जाय; वही ब्राह्मण है, जो ब्रह्म-तत्तव का विचार करता है; (ऐसा ब्रह्माण) स्वयं तो तरता ही है, अपने समस्त वंश को भी तार देता है।

    जो (अपना) हृदय धोता है, (शुद्ध करता है), वही चतुर है। [दानशमंद—फारसी=चतुर, सयाना, बुद्धिमान, अक्लमंद]। जो पापों का मल नष्ट कर दे, वही (वास्तव में) मुसलमान है। जो पढ़े हुए (शास्त्रों) को समझता है, (आचरण करता है) वही प्रामाणिक है—(लोक में भी, परलोक में भी) और (उसी के) मत्थे पर (हरी के) दरबार में प्रामाणिकता की मुहर लगती है [निशान=चिह्रन, छाप, मुहर]।

    स्रोत :
    • पुस्तक : गुरु नानकदेव वाणी और विचार (पृष्ठ 232)
    • संपादक : रमेशचंद्र मिश्र
    • रचनाकार : गुरु नानक
    • प्रकाशन : संत साहित्य संस्थान
    • संस्करण : 2003

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