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मो सो पतित न पापी और

mo so patit na papi aur

रज्जब

रज्जब

मो सो पतित न पापी और

रज्जब

और अधिकरज्जब

    मो सो पतित पापी और।

    प्रथम देह धरि नाम विसारय्यो, अरु तरुणी तन त्यौर॥

    चरण विमुख सूक्यो इहिं अवसर, करत दशों दिशि और।

    देखो हरत परत दोय हारे, स्वर्ग नरक नहिं ठौर॥

    अति अपराध कृतघ्न प्राणी, दे दे पारय्यो कौर।

    सो प्रति पाल पिछान पीठ दई, इहिं चोरी भयो चोर॥

    बहुत गुण सीख साँच बिन, गहत झूठ झकझोर।

    रज्जब कहै रामजी केतक, सब गुनहन शिर मौर॥

    मेरे समान पतित और पापी दूसरा कोई भी नहीं है। पहले तो देह धारण करके मैं प्रभु का नाम भूल गया हूँ, फिर युवावस्था में युवती पर दृष्टि डालता रहा हूँ। प्रभु के चरणों से विमुख होकर मैंने इस सुअवसर को खो दिया है। सांसारिक विषयों के लिए दशों दिशा में दौड़ लगा रहा हूँ। देखो, विषयों का अपहरण करते-करते मैं इतना गिर गया हूँ कि स्वर्ग और नरक दोनों ही में मुझे स्थान नहीं है। मैं अपराधी और कृतघ्न प्राणी हूँ। जिसने मुझे टुकड़ा दे-देकर पाला था, उन मेरे रक्षक प्रभु को पहचानकर भी मैंने पीठ फेर ली है। इस चोरी के कारण मैं चोर हूँ, सत्य के बिना मैं कोई गुण प्राप्त कर सका और बड़ी तेज़ी से झूठ को ही ग्रहण करता रहा हूँ। हे रामजी! मैं कितने दोष कहूँ, मैं तो सब दोषियों में शिरोमणि हूँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : श्री रज्जब वाणी (पृष्ठ 1159)
    • संपादक : रत्न स्वामी नारायणदास
    • रचनाकार : रज्जब
    • प्रकाशन : संत साहित्य प्रकाशन
    • संस्करण : 1980

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