मेरे दरद की पीर कसक, किससे मैं कहूँ॥
ऐसा हकीम होय, जोई जान दे दहूँ।
खटके कलेजे बीच, बान तीर से सहूँ॥
घायल की समझ सूर, चूर घाव में रहूँ।
हीये हवाल हाल, गला काट के लहूँ॥
जैसे तड़फती मीन नीर, पीर ज्यों सहूँ।
जैसे चकोर चंद, चाह चित्त से चहूँ॥
सोची सुबह और साम, पिया धाम कस गहूँ।
तुलसी बिना मिलाप, छुरी मार मर रहूँ॥
विरहिणी कहती है कि मैं अपने दर्द की पीर और कसक किससे कहूँ? जो हकीम मेरे दर्द को दूर कर दे, मैं उस पर अपनी जान न्योछावर कर दूँ। जैसे कलेजे में तीर चुभता है इस तरह की पीर मुझे सता रही है। मैं घायल हूँ। घायल की दशा कोई शूरवीर ही समझता है। मुझे ऐसी तड़प लग रही है कि अपना गला काट दूँ। जैसे पानी के बिना मछली तड़पती है उस तरह मैं तड़पती हूँ। जैसे चकोर चंद्रमा को चाहता है, उसी तरह मैं अपने प्रीतम से मिलना चाहती हूँ। मैं रात दिन चिंता में रहती हूँ कि कैसे अपने प्रीतम के धाम में वास पाऊँ। तुलसी साहब फ़रमाते हैं कि पिया के न मिलने से ऐसा लगता है कि मैं छुरी मार कर मर जाऊँ।
- पुस्तक : तुलसी साहब (हाथरस वाले) की बानी (पृष्ठ 9)
- संपादक : ज्ञान दास माहेश्वरी
- रचनाकार : तुलसी साहब
- प्रकाशन : स्वामी बाग, आगरा
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