जगत में खोज किया बहु भांत
jagat mein khoj kiya bahu bhant
जगत में खोज किया बहु भांत। न पाई मैंने घट में शांत॥
गौर कर देखा जग का हाल। फंसे सब करम भरम के जाल॥
फैल रहे जग में मते अनेक। धार रहे थोथे इष्ट की टेक॥
भेद कोई घर का नहिं जाने। भरम बस सीख नहीं माने॥
मान में खप रहे पंडित भेख। कर्म में बंध रहे मुल्ला शेख॥
भाग मेरा जागा अजब निदान। मिला मैं राधास्वामी संगत आन॥
सुनी मैं महिमा अचरज बोल। करी मैं राधास्वामी मत की तोल॥
भरम और संशय उठ भागे। विरह अनुराग हिये जागे॥
पता निज मालिक का पाया। भेद निज घर का दरसाया॥
समझ में आई भक्ति रीत। शब्द की धारी मन परतीत॥
सुरत का पाया अजब लखाव। सिफ़त सुन गुरु की बाढा भाव॥
कहूँ क्या महिमा सतसंग सार। भरम और संशय दीने टार॥
प्रीत नित बढ़ती गुरु चरना। धार लई मन में गुरु सरना॥
समझ मैं मन में अस धारी। संत बिन जाय न कोई पारी॥
बना उन सरन न उतरे पार। शब्द बिन होय न कभी उद्धार॥
सराहूं छिन-छिन भाग अपना। मिला मोहि सुरत शब्द गहना॥
हुआ मेरे हिरदे में उजियार। दया राधास्वामी कीन्ह अपार॥
पकड़ धुन चढ़ता नभ की ओर। जोत लख सुनता अनहद घोर॥
सुन्न धुन सुनकर चढ़ी आगे। गुफा में जहां सोहंग जागे॥
सत्तपुत दरश पुरुष कीन्हा। परे तिस अलख अगमि चीन्हा॥
वहाँ से लखिया राधास्वामी धाम। मिला अब निज घर किया बिस्राम॥
- पुस्तक : संत काव्य-धारा (पृष्ठ 350)
- संपादक : परशुराम चतुर्वेदी
- रचनाकार : संत सालिगराम
- प्रकाशन : किताब महहल, इलाहाबाद
- संस्करण : 1981
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