हरि जू राषि लेहु पति मेरी
hari ju rashi lehu pati meri
हरि जू राषि लेहु पति मेरी।
जम को त्रास भइउ उर अंतरि, सरन गही किरिपानिधि तेरी॥
महा पतित मुगध लोभी फुनि, करत पाप अब हारा।
भै भरवे को विसरत नाहनि, तिह चिंता तनु जारा॥
किये उपाव मुकति के कारनि, दहदिसि कउ उठि धाइआ।
घट ही भीतरि बसै निरंजनु, ताको मरमु न पाइआ॥
नाहिन गुनु नाहिन कछु जपु-तपु, कउनु करमु अब कीजै।
नानक हारि परिउ सरनागति, अभै दानु प्रभ दीजै॥
- पुस्तक : कल्याण पत्रिका (संतबानी अंक) (पृष्ठ 397)
- संपादक : हनुमान प्रसाद पोद्दार
- रचनाकार : गुरु तेगबहादुर
- प्रकाशन : गीता प्रेस गोरखपुर
- संस्करण : जनवरी 1955
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