मंघिर माहे सोहंदीआ हर पिर संग बैठड़ीआह॥
तिन की सोभा किआ गणी जे साहिब मेलड़ीआह।
तन मन मउलिआ राम सिउ संग साध सहेलड़ीआह॥
साध जना ते बाहरी से रहन इकेलड़ीआह।
तिन दुख न कबहू उतरै से जम कै वस पड़ीआह॥
जिनी राविआ प्रभ आपणा से दिसन नित खड़ीआह।
रतन जवेहर लाल हर कंठ तिना जड़ीआह॥
नानक बांछै धूड़ तिन प्रभ सरणी दर पड़ीआह।
मंघिर प्रभ आराधणा बहुड़ न जनमड़ीआह॥
अगहन (मघर) के महीने में जो आत्माएँ प्रीतिपूर्वक का शृंगार करती हैं, प्रियतम उनके अंग-संग रहता है। जिनकी प्रेमपूर्ण भक्ति को स्वीकार करके मालिक ने अपने साथ मिला लिया हो, उनकी शोभा का वर्णन नहीं किया जा सकता। जिन्हें संतों की संगति प्राप्त हो जाती है, उनका तन, मन प्रभु के प्रेम में प्रफुल्लित रहता है। इसके विपरीत जो संतों की दया-मेहर से वंचित रह जाती हैं, वे उसके वियोग का संताप सहती हैं और संसार छोड़ने पर यमदूतों के वश में पड़ जाती हैं। जिन्होंने प्रियतम को अपने हृदय में बसाकर उससे मिलाप का रस प्राप्त कर लिया हो, वे मानों सदा उसकी हुजूरी में रहती हैं। उनके गले में हरिनाम के रत्न, जवाहर, लाल सुसज्जित हैं। गुरु साहिब को उन सौभाग्यशाली आत्माओं की चरण-धूलि की चाह है जो प्रभु की शरण प्राप्त करके उसके द्वार पर, उसकी शरण में पहुँच गई हैं। आप फ़रमाते हैं कि मनुष्य जन्मरूपी अगहन के महीने में जी-जान से प्रभु का सिमरन किया जाए तो पुनर्जन्म के बंधन से मुक्ति मिल जाती है।
- पुस्तक : गुरु अर्जुन देव (पृष्ठ 240)
- संपादक : महिंदर सिंह जोशी
- रचनाकार : गुरु अर्जुनदेव
- प्रकाशन : राधास्वामी सत्संग ब्यास
- संस्करण : 2012
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