ब्याकुल बिरह दिवानी, झड़े नित नैनन पानी।
हर दम पीर पिया की खटके, सुध बुध बदन हिरानी॥
होश हवास नहीं कुछ तन में, बेदम जीव भुलानी।
बहु तरंग चित चेतन नाहीं, मन मुरदे की बानी॥
नाड़ी बैद बिथा नहिं जाने, क्यों औषध दे आनी।
हिय में दाग जिगर के अंदर, क्या कहुँ दरद बखानी॥
सतगुरु बैद बिथा पहिचानें, बूटी है उनकी जानी।
तुलसी यह रोग रोगिया बूझे, जिन को पीर पिरानी॥
विरहिणी कहती है कि मैं अपने पिया की प्रीत के वियोग में विरह दीवानी हो गई हूँ। मैं व्याकुल होकर रात-दिन रोती रहती हूँ। प्रीतम की याद प्रत्येक पल मेरे हृदय में खटकती रहती है। मुझे न तन की सुध है न मन की सुध है, यानी किसी तरह का कोई होश-हवास नहीं है और सब कुछ भूल चुकी हूँ। मेरे मन में अनेक तरंगें उठती हैं और चित्त में चैतन्यता नहीं रही और मन मुर्दे के समान हो गया है। मेरी व्यथा, वैद्य नाड़ी देखकर नहीं बता सकता है, तो फिर वह मेरी विपदा यानी रोग दूर करने की उचित औषधि भी कैसे दे सकता है? मेरे तो हृदय में घाव है, जिसमें भंयकर टीस उठती रहती है, जिसका वर्णन मैं नहीं कर सकती हूँ। तुलसी साहब कहते हैं कि मेरी व्यथा के जानकार तो सतगुरु हैं और वे उसकी दवा भी जानते हैं। यह रोग केवल वही व्यक्ति समझता है, जिसके हृदय में भारी पीड़ा व दर्द हो।
- पुस्तक : तुलसी साहब (हाथरस वाले) की बानी (पृष्ठ 13)
- संपादक : ज्ञान दास माहेश्वरी
- रचनाकार : तुलसी साहब
- प्रकाशन : स्वामी बाग, आगरा
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