भ्रमत फिरत बहुत जनम बिलाने
bhrmat phirat bahut janam bilane
भ्रमत फिरत बहुत जनम बिलाने, तनु मनु धनु नहीं धीरे।
लालच बिषु काम लुबध राता, मनि बिसरे प्रभही रे॥रहाउ॥
बिषु फल मीठ लगे मन बउरे, चार बिचार न जानीआ।
गुन ते प्रीति बढ़ी अनभांती, जनम मरन फिरि तानिआ॥
जुगति जानि नही रिदै निवासी, जलत जाल जम फंध परै।
विषु फल संचि भरे मन ऐसै, परम पुरष प्रभ मन बिसरे॥
गिआन प्रवेस गुरहि धनु दीआ, धिआनु मानु मन एकमए।
प्रेम भगति मानी सुषु जानिआ, त्रिपति अघाने मुकति भए॥
जोति समाए समानी जाकै, अछली प्रभु पहिचानिआ।
वंनै धनु पाइआ धरणीधरु, मिलि जन संत समानिआ॥
माया के मोह में भटकते हुए कई जन्म गुज़र जाते हैं। इस शरीर का नाश हो जाता है, मन भटकता रहता है और धन भी टिका नहीं रहता। लोभी जीव, ज़हर रूपी पदार्थों के लालच में, काम वासना में रहता है, इसके मन से अमोलक परमात्मा बिसर जाता है। हे पागल मन ! ये ज़हर रूपी फल तुझे मीठे लगते हैं, तुझे सुंदर विचार नहीं आते, गुणों से हटने पर दूसरे क़िस्म की प्रीत तेरे अंदर बढ़ रही है और तेरे जन्म-मरन का ताना बुना जा रहा है। हे मन ! तूने जीवन की जुगत को समझकर भी इस जुगति को अपने अंदर पक्का नहीं किया। तृष्णा में जलने से तुम्हें यमदूतों की फाँसी पड़ गई है। हे मन ! तू विषय रूपी ज़हर के फल ही एकत्र करता रहा और उसे ऐसे संभालता रहा कि तू परम पुरख प्रभु को भूल गया। जिस मनुष्य को गुरु ने ज्ञान-प्रवेश का धन दिया, उसकी मूरति प्रभु से एकमेक हो गई। जिसे प्रभु का प्यार, भक्ति अच्छी लगी, उसकी सुख के साथ साँझ बन गई, वो माया से अच्छी तरह से रज गया और बंधन मुक्त हो गया। जिस मनुष्य के अंदर परमात्मा की सर्वव्यापक ज्योति टिक गई, उसने माया में न छले जाने वाले ईश्वर को पहचान लिया। मैंने भी उस परमात्मा का नाम रूपी धन ढूँढ लिया है जो सारी धरती का आसरा है। मैं (धन्ना) भी संत जनों को पाकर नाम-स्मरण में लीन हो गया हूँ।
- पुस्तक : संत काव्य-धारा (पृष्ठ 138)
- संपादक : परशुराम चतुर्वेदी
- रचनाकार : धन्ना भगत
- प्रकाशन : किताब महल, इलाहाबाद
- संस्करण : 1981
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