भाई रे संत जुदा जग ऐसे
bhai re sant juda jag aise
भाई रे संत जुदा जग ऐसे।
जैसे कमल नीर में न्यारा, राम सनेही तैसे॥
ज्यों दधि विलोय माखन मथि काढ़ै, उलटि मिले तक कैसे।
तैसे साधु सफल गुण न्यारा, बहुरि सबन बिच वैसे॥
ज्यों पाषाण पानी नहिं परसै, कल्प गये जल पैसे।
त्यों रज्जब जन माहिं निरंतर, मणि भुजंग मुख जैसे॥
हे भाई! संत जगत में रहते हुए भी ऐसे रहते हैं, मानो जगत से अलग ही हैं। जैसे कमल जल में रहकर भी जल से ऊपर रहता है, वैसे ही राम के प्यारे संत जगत में रहकर भी जगत से ऊपर ही रहते हैं। जैसे दही का मंथन करके मक्खन निकाल लेने पर वह छाछ में पड़ा रहता है किंतु पीछे छाछ में नहीं मिलता, वैसे ही विचार रूपी मंथन द्वारा संत चित्त सांसारिक भावनाओं से निकलने पर पुनः संसार में नहीं मिलते। वे सब गुणों से अलग रहते हैं फिर भी सब के बीच में बैठे हुए-से प्रतीत होते हैं। जैसे जल में प्रवेश किए कल्प व्यतीत हो जाए तो भी पत्थर पानी के स्पर्श से अपनी कठोरता नहीं छोड़ता, वैसे ही संत जगत में रहने पर भी अपनी निष्ठा नहीं छोड़ते। जैसे मणि सर्प के मुख में विष युक्त दाँतों के बीच में रहकर भी विष नहीं ग्रहण करती, वैसे ही संत निरंतर जगत में रहकर भी विषय-विष तथा जगत के दोष नहीं ग्रहण करते।
- पुस्तक : श्री रज्जब वाणी (पृष्ठ 1065)
- संपादक : रत्न स्वामी नारायणदास
- रचनाकार : रज्जब
- प्रकाशन : संत साहित्य प्रकाशन
- संस्करण : 1980
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