बहुत पंसारी हाट में
bahut pansari hat mein
बहुत पंसारी हाट में, घट बढ़ सौदा पास।
लेना होय सो लीजिए, परख धनी के दास॥
जो परखे सो पारखी, ग्यान रतन की साट।
बिनु पारख का बोझ है, चला उठाए खाट॥
तहां ग्यान नहिं खोलिए, जहाँ निगुरचि हाट।
उलटी आपु विचारिए, चलो समुझि के बाट॥
संसाररूपी बाज़ार में बहुत-से दुकानदार हैं। सभी अपना-अपना कम-ज़्यादा सामान बेच रहे हैं। इस बाज़ार में परमात्मा के सच्चे भक्त को पहचानकर सामान ख़रीदना चाहिए अर्थात् दुनिया में परमार्थ का ज्ञान देने का दावा करने वाले बहुत-से लोग हैं जो प्रभु-प्राप्ति के अलग-अलग मार्ग बताते हैं। जिज्ञासु को उनमें से सच्चे संत या महात्मा को पहचानना है। पारखी जीव रत्नों के बदले ज्ञान लेता है अर्थात् वह क़ीमती सांसारिक वस्तुओं को देकर भी परमात्मा का सच्चा ज्ञान प्राप्त करता है। जहाँ ज्ञान को पहचानने वाला न हो, वहाँ पर ज्ञान की चर्चा बेकार है। ज्ञानीजन वहाँ से अपना बिस्तर समेटकर चल देते हैं। निगुरों के बीच प्रभु-प्राप्ति के ज्ञान को नहीं खोलना चाहिए, क्योंकि उन्हें इस ज्ञान की क़ीमत का पता ही नहीं होता। ऐसी स्थिति में ज्ञानीजनों को अपने ध्यान को अंदर में मोड़कर अपने आप में ध्यान लगाना चाहिए। उन्हें भले-बुरे लोगों से भरे संसार में सोच-समझकर सही मार्ग पर चलना चाहिए।
- पुस्तक : संत दरिया (बिहार वाले) (पृष्ठ 154)
- संपादक : काशीनाथ उपाध्याय
- रचनाकार : संत दरिया (बिहार वाले)
- प्रकाशन : राधास्वामी सत्संग ब्यास, पंजाब
- संस्करण : 2016
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