बड़ा नाथ माधो अगडधत गुंडा
baDa nath madho agaDdhat gunDa
बड़ा नाथ माधो अगडधत गुंडा।
पिवे घोटकर भांग भरपूर कुंडा॥
झुले हाथ में मस्त लेकर कुतका।
नहीं इस बराबर दुन्या में उचक्का॥
बड़ा नाथ माधो बहमन में दुकसवी।
गले गोधड़ी हाथ में एक तसवी॥
धनी कू करे याद हरदम दीवाना।
शहर में पुकारे बुरा है ज़माना॥
पीरों का मुरीद मुठभर भंग चाबे।
धनी के बयाने हमेशा मस्त गावे॥
आवल झरझरी की नली ओढता है।
कंकर फोड़करती धुआँ छोड़ता है॥
गंगा के किनारे बड़ा यक नकी है।
वहाँ येक खपरेला बंगला किया है॥
तहाँ नाथा माधो हमेशा झूलता है।
फ़क़ीर कु नज़र देखकर फूलता है॥
कुसुंबी चिरा बांधकर फेरबिंगी।
अगलबंद जामानिमा सबज़ रंगी॥
बड़ा नाथ माधो बम्हन ज़ोर मंगी।
धनीकू करे याद भंगी तरंगी॥
जहाँ सुरसती का हुआ संगम।
पुराना पड़ोसी ऊपर धेक जंगम॥
नीचे मठकी जो चौगीर्द जागा।
नज़र देखत ही कुफ़र दूर भागा॥
- पुस्तक : हिंदी के जनपद संत (पृष्ठ 388)
- संपादक : काका साहेब कालेलकर
- रचनाकार : मध्य मुनीश्वर
- प्रकाशन : मोेतीलाल बनारसी, दिल्ली
- संस्करण : 1963
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