हम घरि साजन आए। साचै मेलि मिलाए॥
सहजि मिलाए हरि मनि भाए पंच मिले सुख पाइआ।
साई वसतु परापति होई जिसु सेती मनु लाइआ॥
अनुदिनु मेलु भइआ मनु मानिआ घर मंदर सोहाए।
पंच सबद धुनि अनहद वाजे हम घरि साजन आए॥
आवहु मीत पिआरै। मंगल गावहुना रे॥
सचु मंगलु गावहु ता प्रभु भावहु सोहिलड़ा जुग चारे।
अपनै घरि आइआ थानि सुहाइआ कारज सबदि सवारे॥
गिआन महारसु नेत्री अंजनु त्रिभवण रूपु दिखाइआ।
सखी मिलहु रसि मंगलु गावहु हम घरि साजनु आइआ॥
मनु तनु अंमृति भिंना। अंतरि प्रेम रतंना॥
अंतरि रतनु पदारथु मेरै परम ततु वीचारो।
जंत भेख तू सफलिओ दाता सिरि सिरि देवणहारो॥
तू जानु गिआनी अंतरजामी आपे कारणु कीना॥
सुनहु सखी मनु मोहनि मोहिआ तनु मनु अंमृति भीना॥
आतम रामु संसारा। साचा खेलु तुम्हारा॥
सचु खेलु तुम्हारा अगम अपारा तुधु बिनु कउणु बुझाए।
सिध साधिक सिआणे केते तुझ बिनु कवणु कहाए॥
कालु बिकालु भए देवाने मनु राखिआ गुरि ठाए।
नानक अवगण सबदि जलाए गुण संगमि प्रभु पाए॥
हमारे घर में मित्रगण (गुरुमुख) आ गए। सच्चे (हरी) ने (उसका) मिलाप कर दिया। (उन संतों ने मुझे) सहजावस्था से मिला दिया है, (जिससे) मन को हरी अच्छा लगने लगा। संत-जनों (पंच) के मिलने से बहुत सुख की प्राप्ति हुई। जिस (वस्तु) से मन लगाया था, वह वस्तु प्राप्त हो गई। (उस प्रभु से) शाश्वत मिलने हो गया, (जिससे) मन मान गया और घर तथा महल सुहावने हो गए। (मेरे अंतगंत) पाँच (बाजो की) ध्वनि (बिना बजाए ही) अनाहत गति से बजने लगी; हमारे घर में मित्रगण आ गए। [पंच शब्द=तार, धातु, चाम, घड़े तथा फूँक से बजाए जाने वाले बाजे।]
हे प्यारे मित्रो, आओ। हे नारियो, (सतसंगियो), मगल के गीत गाओ। यदि (प्रभु के) सच्चे मंगल के गीत गाओ तभी उस प्रभु को अच्छे लगोगे; (उसकी) बड़ाई चारों युगो में (व्याप्त है)। (आत्मस्वरूप) धर में (हरी) आकर बस गया है, (जिससे हृदय रूपी) स्थान सुहावना हो गया है, शब्द (नाम) से (सारे) कार्य बन गए हैं। ब्रह्मज्ञान नेत्रों का परम अमृतमय अंजन है, (इसी अंजन ने) त्रिभुवन के स्वरूप (हरी) को दिखाया है। हे सखियो (गुरुमुखो), मिलकर आनंदपूर्वक मंगल-गीत गाओ। हमारे घर से (परमात्मा रूपी) साजन आ गया है।
मेरे तन और मन अमृत में भीग गए है। (मेरे) अंतःकरण में प्रेम रूपी रत्र (प्रकट हो गया है)। परम तत्व (परमात्म-तत्व) के विचार से मेरे अंतःकरण में (नाम रूपी) रत्र-पदार्थ (प्रकट हो गया है)। (हे हरी), जीव भिखारी है और तू सफल दाता, है (ऐसा दाता, जो सबकी इच्छाओ को पूर्ण करता है)। प्रत्येक प्राणी—जीव को (तू ही) देनेवाला है। (हे प्रभु), तू ही सज्ञान (सयाना है), ज्ञाननी (ज्ञाता) और अंतर्यामी है, (और) तूने ही सृष्टि रची है। हे सखियों (गुरुमुखो), सुनो हरी ने मन को मोहित कर लिया है, (जिससे मेरे) तन और मन अमृत में भीग गए है।
(हे प्रभु); तू ही संसार का आत्मा राम है, (अर्थात हे हरी तू ही समस्त संसार में रम रहा है)। (हे हरी), ता खेल सच्चा है; (वह) अगम और अपार है; तेरे बिना (सृष्टि के इस अनंत रहस्य को) कौन समझा सकता है? कितने ही सिद्ध, साधक तथा सयाने लोग है; (किंतु) बिना (तुझे जाने हुए) कौन व्यक्ति (सिद्ध, साधक अथवा सयाना) कहलावा सकता है? (अर्थात कोई भी नहीं; तेरे ही जानने से वो लोग सिद्ध, साधक आदि बनते है; बिना तेरे उनका कोई पृथक् अस्तित्व नहीं है)। मरण और जन्म पागल हो गए। गुरु ने मन को ठिकाने रख दिया है, (गुरु ने मन को अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित कर दिया है)। हे नानक, गुरु के उपदेश द्वारा (मैंने) अवगुणों को दग्ध कर दिया है और गुणों के मेल के कारण प्रभु को पा लिया है। [विशेष काल-मृत्यु। बिकालु=मृत्यु नहीं, (अर्थात, मृत्यु का उलटा जन्म)। काल विकालु भए देवाने=जन्म और मरण पगले हो गए है, (अर्थात जन्म-मरण समाप्त हो गए।]
- पुस्तक : गुरु नानकदेव वाणी और विचार (पृष्ठ 251)
- संपादक : रमेशचंद्र मिश्र
- रचनाकार : गुरु नानक
- प्रकाशन : संत साहित्य संस्थान
- संस्करण : 2003
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