ऐक अचंभा ऐसा भया
aik achanbha aisa bhaya
ऐक अचंभा ऐसा भया, उलटि स्याल सिंघ कू गह्या।
बकरी उलटि चीता कू घेर्या, फिरि मूसै गही मजारी।
सुसै स्वान कू बन में घेर्या, अब भया अचंभा भारी॥
फिरि सिंघ गाइ की रछ्या करही, मींडक साँप वसि कीया।
मकड़ी कू माखी गहि राखी, चिड़ै सिंचाण गहि लीया॥
फिरि मुरगै दौड़ि बिलाई पकड़ी, तीतर सिकरा मार्या।
मृग भील कू चौड़ै रोक्या, दादर सरप सिंघ डार्या॥
राज करै बाँझ कै बेटौ, अरिदल सबै सिंघारै।
जन 'सेवादास' सोई जन सूरा, या पद का अरथ बिचारै॥
- पुस्तक : निरंजनी संप्रदाय और संत तुलसीदास निरंजनी (पृष्ठ 195)
- संपादक : भगीरथ मिश्र
- रचनाकार : सेवादास
- प्रकाशन : लखनऊ विश्वविद्यालय
- संस्करण : 1964
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