देखो भायां जोग जुगत सुखदाई
dekho bhayan jog jugat sukhdai
देखो भायां जोग जुगत सुखदाई।
बिना जोग विजोग नीं होई, यूं अणभै उपजाई॥
अष्ट अंग जोग जप क्रिया, आसण चौरासी मांही।
पदम आसण धर पवन चढ़ावै, सुरता सिंवरण लाई॥
छवूं समाधि समझे सतगुरु सूं, दोय समाधि फळ पाई।
सविकळ्प पुरुषार्थ जांणै, निरविकल्प निरभै पाई॥
छवूं करम जोग रा जांणौ, नेती धोती बस्ती जमाई।
त्राटक न्यौळी बस्ती, सूरत समझ घर पाई॥
दसूं पवण परचै कर लेणा, दसूं बाजा शिखर में पाई।
दसवें दरवाजे झिगमिग ज्योति, दरसिया देव वां मांही॥
पूगा धाम परम पद पायौ, गुरु गम सूं गत पाई।
जोग विजोग जद मिळिया, तिरविध ताप मिटाई॥
मिळिया पीव मगन भई पियारी, आयौ भरोसो भारी।
सुखमण सेनी जाय निरखिया, मिळी पीव सूं पियारी॥
दसवें द्वार फोड़ डंड मेरु, अगली भोम म्हांरी।
उळटा पवन संग चली पियारी, दरस्या देव अपारी॥
सेंसदळकमळ सनमुख दरसे, रीझी राजवण पियारी।
अणहद नाद अनेकूं बाजै, भळे न हुवै अब नियारी॥
अजपा जाप अमर फळ पायौ, सतगुरु सूं गम पाई।
आठूं जांम एकसर देखी, हमें नीं धोखौ कांई॥
इण देश ने कोई बिरळा जाणै, अवर बावै करम रा भारा।
कहे रांमदेव सुणी भाई साधों, औई देश म्हांरा॥
हे भाइयो! योग-साधना ही सुखदाई है। योग के बिना सांसारिक विषयों के प्रति वैराग्य-भाव असंभव है। यह अनुभव सिद्ध तथ्य है। चौरासी योगासनों तथा अष्ट योगांगों की साधना करके प्राणायाम द्वारा श्वास चढ़ाकर 'अजपा जाप' जपते हुए जीवात्मा को परमात्मा के स्मरण में लगाओ। समाधि की सभी अवस्थाएँ और समाधि के दोनों भेद सद्गुरु से भली प्रकार समझो। सविकल्प समाधि में चित्त एकाग्र अवस्था को तो प्राप्त होता है परंतु चित्त की संपूर्ण वृत्तियों का निरोध नहीं होता है, इसलिए निर्विकल्प समाधि से अभय पद की प्राप्ति होती है। बस्ती, नेती, धौती, त्राटक, न्यौली आदि क्रियाएँ भी योग के ही अंग समझो। इनके द्वारा शरीर की शुद्धि करने के पश्चात् जीवात्मा को ब्रह्मरंध्र में परमात्मा से मिलाओ। दसों पवन की साधना करके गगन मंडल में दसों बाजों की ध्वनि अर्थात् अनहद नाद सुनिए। कुंडलिनी शक्ति को दसवें द्वार ब्रह्मरंध्र में पहुँचाकर आत्म-ज्ञान की ज्योति प्राप्त करो; इसी में परब्रह्म के दर्शन होंगे। यहीं जीवात्मा का मोक्ष होता है। सद्गुरु द्वारा बताए गए ज्ञान से ही जीवात्मा इस गति को प्राप्त होती है। जब परमात्मा से संयोग और सांसारिक विषयों से वियोग हो जाए तब त्रयताप नष्ट हो जाते हैं। परमात्मा रूपी प्रियतम का मिलन होने से जीवात्मा रूपी प्रेयसी मग्न हो गई और उसे इस संयोगावस्था का पूर्ण विश्वास प्राप्त हुआ। सुषुम्ना के संकेत पर चलकर अर्थात् प्राणायाम् की साधना से जीवात्मा रूपी प्रेयसी अपने प्रियतम से मिली। कुंडलिनी ने दसवें द्वार को पार किया तो वह स्वयं अपनी भूमि सहस्रदलकमल में पहुँची। प्राणायाम से पवन चढ़ाया गया, इसी के साथ चल कर जीवात्मा यहाँ तक पहुँची अर्थात् प्राणायाम से ही परब्रह्म के दर्शन हुए। सहस्रदलकमल में अपने प्रियतम परमात्मा को प्रत्यक्ष देखकर राजकुमारी जीवात्मा मुग्ध हुई। अनाहत नाद बजा। यह मिलन नित्य रहेगा। सद्गुरु के निर्देशानुसार 'अजपा जाप' जपने से मोक्ष रूपी अमर फल की प्राप्ति हो गई। अब अष्ट पहर समत्व भाव की अनुभूति होने लगी; अब किसी भी प्रकार का संशय नहीं रहा। परमात्मा के इस प्रदेश को विरले लोग ही जानते हैं। आत्म-ज्ञान के अभाव में लोग व्यर्थ ही कर्म बंधन में फंसते हैं। रामदेवजी कहते हैं कि यह गगन मंडल ही जीवात्मा के निज स्वरूप का घर है।
- पुस्तक : बाबै की वांणी (पृष्ठ 101)
- संपादक : सोनाराम बिश्नोई
- रचनाकार : बाबा रामदेव
- प्रकाशन : राजस्थानी ग्रंथागार
- संस्करण : 2015
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