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रज़िया

raziya

रामवृक्ष बेनीपुरी

और अधिकरामवृक्ष बेनीपुरी

    कानों में चाँदी की बालियाँ, गले में चाँदी का हैकल, हाथों में चाँदी के कंगन और पैरों में चाँदी की गोड़ांई—भरबाँह की बूटेदार क़मीज़ पहने, काली साड़ी के छोर को गले में लपेटे, गोरे चेहरे पर लटकते हुए कुछ बालों को सँभालने में परेशान वह छोटी सी लड़की जो उस दिन मेरे सामने आकर खड़ी हो गई थी—अपने बचपन की उस रज़िया की स्मृति ताज़ा हो उठी, जब मैं अभी उस दिन अचानक उसके गाँव में जा पहुँचा।

    हाँ, यह मेरे बचपन की बात है। मैं क़साईख़ाने से रस्सी तुड़ाकर भागे हुए बछड़े की तरह उछलता हुआ अभी-अभी स्कूल से आया था और बरामदे की चौकी पर अपना बस्ता स्लेट पटककर मौसी से छठ में पके ठेकुए लेकर उसे कुतर-कुतर कर खाता हुआ ढेंकी पर झूला झूलने का मज़ा पूरा करना चाह रहा था कि उधर से आवाज़ आई—'देखना, बबुआ का खाना छू मत देना। और उसी आवाज़ के साथ मैंने देखा, यह अजीब रूप-रंग की लड़की मुझसे दो-तीन गज़ आगे खड़ी हो गई।

    मेरे लिए यह रूप-रंग सचमुच अजीब था। ठेठ हिंदुओं की बस्ती है मेरी और मुझे मेले-पेठिए में भी अधिक नहीं जाने दिया जाता। क्योंकि सुना है, बचपन में मैं एक मेले में खो गया था। मुझे कोई औघड़ लिए जा रहा था कि गाँव की एक लड़की की नज़र पड़ी और मेरा उद्धार हुआ। मैं माँ-बाप का इकलौता—माँ चल बसी थीं। इसलिए उनकी इस एकमात्र धरोहर को मौसी आँखों में जुगोकर रखतीं। मेरे गाँव में भी लड़कियों की कमी नहीं; किंतु उनकी यह वेश-भूषा, यह रूप-रंग मेरे गाँव की लड़कियाँ कानों में बालियाँ कहाँ डालती और भरबाँह की क़मीज़ पहने भी उन्हें कभी नहीं देखा और गोरे चेहरे तो मिले हैं, किंतु इसकी आँखों में जो एक अजीब क़िस्म का नीलापन दिखता, वह कहाँ? और, समुचे चेहरे की काट भी कुछ निराली ज़रूर तभी तो मैं उसे एकटक घूरने लगा।

    यह बोली थी रज़िया की माँ, जिसे प्रायः ही अपने गाँव में चूड़ियों की खँचिया लेकर आते देखता आया था। वह मेरे आँगन में चूड़ियों का बाज़ार पसारकर बैठी थीं और कितनी बहू-बेटियाँ उसे घेरे हुई थीं। मुँह से भाव-साव करती और हाथ से ख़रीदारों के हाथ में चूड़ियाँ चढ़ाती वह सौदे पटाए जा रही थी। अब तक उसे अकेले ही आते-जाते देखा था; हाँ, कभी-कभी उसके पीछे कोई मर्द होता जो चूड़ियों की खाँची ढोता। यह बच्ची आज पहली बार आई थी और जाने किस बाल-सुलभ उत्सुकता ने उसे मेरी ओर खींच लिया था। शायद वह यह भी नहीं जानती थी कि किसी के हाथ का खाना किसी के निकट पहुँचने से ही छू जाता है। माँ जब अचानक चीख़ उठी, वह ठिठकी सहमी—उसके पैर तो वहीं बँध गए। किंतु इस ठिठक ने उसे मेरे बहुत निकट ला दिया, इसमें संदेह नहीं।

    मेरी मौसी झट उठी, घर में गई और दो ठेकुए और एक कसार लेकर उसके हाथों में रख दिए। वह लेती नहीं थी, किंतु अपनी माँ के आग्रह पर हाथ में रख तो लिया, किंतु मुँह से नहीं लगाया! मैंने कहा—खाओ! क्या तुम्हारे घरों में ये सब नहीं बनते? छठ का व्रत नहीं होता? कितने प्रश्न—किंतु सबका जवाब 'न' में ही और वह भी मुँह से नहीं, ज़रा सा गरदन हिलाकर और गरदन हिलाते ही चेहरे पर गिरे बाल की जो लटें हिल-हिल उठती, वह उन्हें परेशानी से संभालने लगती।

    जब उसकी माँ नई ख़रीदारिनों की तलाश में मेरे आँगन से चली, रज़िया भी उसके पीछे हो ली। मैं खाकर, मुँह धोकर अब उसके निकट था और जब वह चली, जैसे उसकी डोर में बँधा थोड़ी दूर तक घिसटता गया। शायद मेरी भावुकता देखकर ही चूड़ीहारिनों के मुँह पर खेलने वाली अजस्त्र हँसी और चुहल में ही उसकी माँ बोली—बबुआजी, रज़िया से ब्याह कीजिएगा? फिर बेटी की ओर मुख़ातिब होती मुस्कुराहट में कहा—क्यों रे रज़िया, यह दुलहा तुम्हें पसंद है? उसका यह कहना कि मैं मुड़कर भागा। ब्याह? एक मुसलमानिन से? अब रज़िया की माँ ठठा रही थी और रज़िया सिमटकर उसके पैरों में लिपटी थी, कुछ दूर निकल जाने पर मैंने मुड़कर देखा।

    रज़िया, चूड़ीहारिन! वह इसी गाँव की रहने वाली थी। बचपन में इसी गाँव में रही और जवानी में भी। क्योंकि मुसलमानों की गाँव में भी शादी हो जाती है न! और यह अच्छा हुआ—क्योंकि बहुत दिनों तक प्राय: उससे अपने गाँव में ही भेंट हो जाया करती थी।

    मैं पढ़ते-पढ़ते बढ़ता गया। पढ़ने के लिए शहरों में जाना पड़ा। छुट्टियों में जब-तब आता इधर रज़िया पढ़ तो नहीं सकी, हाँ, बढ़ने में मुझसे पीछे नहीं रही। कुछ दिनों तक अपनी माँ के पीछे-पीछे घूमती फिरी। अभी उसके सिर पर चूड़ियों की खँचिया तो नहीं पड़ी, किंतु ख़रीदारिनों के हाथों में चूड़ियाँ पहनाने की कला वह जान गई थी। उसके हाथ मुलायम हैं, बहुत मुलायम नई बहुओं की यही राय थी। वे उसी के हाथ से चूड़ियाँ पहनना पसंद करतीं। उसकी माँ इससे प्रसन्न ही हुई—जब तक रज़िया चूड़ियाँ पहनाती, वह नई-नई ख़रीदारिनें फँसाती।

    रज़िया बढ़ती गई। जब-जब भेंट होती, मैं पाता, उसके शरीर में नए-नए विकास हो रहे हैं; शरीर में और स्वभाव में भी। पहली भेंट के बाद पाया था, वह कुछ प्रगल्भ हो गई है। मुझे देखते ही दौड़कर निकट जाती, प्रश्न पर प्रश्न पूछती। अजीब अटपटे प्रश्न! देखिए तो ये नई बालियाँ आपको पसंद हैं? क्या शहरों में ऐसी ही बालियाँ पहनी जाती हैं? मेरी माँ शहर से चुड़ियाँ लाती है, मैंने कहा है, वह इस बार मुझे भी ले चलें। आप किस तरफ़ रहते हैं वहाँ? क्या भेंट हो सकेगी? वह बके जाती, मैं सुनता जाता! शायद जवाब की ज़रूरत यह भी नहीं महसूस करती।

    फिर कुछ दिनों के बाद पाया, वह अब कुछ सकुचा रही है। मेरे निकट आने के पहले वह इधर-उधर देखती और जब कुछ बातें करती तो ऐसी चौकन्नी-सी कि कोई देख ले, सुन ले। एक दिन जब वह इसी तरह बातें कर रही थी कि मेरी भौजी ने कहा—देखियो री रज़िया बबुआजी को फुसला नहीं लीजियो। वह उनकी ओर देखकर हँस तो पड़ी, किंतु मैंने पाया, उसके दोनों गाल लाल हो गए हैं और उन नीली आँखों के कोने मुझे सजल-से लगे। मैंने तब से ध्यान दिया, जब हम लोग कहीं मिलते हैं, बहुत सी आँखें हम पर भालों की नौक ताने रहती हैं।

    रज़िया बढ़ती गई, बच्चों से किशोरी हुई और अब जवानी के फूल उसके शरीर पर खिलने लगे हैं। अब भी वह माँ के साथ ही आती है; किंतु पहले वह माँ की एक छाया मात्र लगती थी, अब उसका स्वतंत्र अस्तित्व है। और उसकी छाया बनने के लिए कितनों के दिलों में कसमसाहट है जब वह बहनों को चूड़ियाँ पहनाती होती है, कितने भाई तमाशा देखने को वहाँ एकत्र हो जाते हैं। क्या? बहनों के प्रति भातृभाव या रज़िया के प्रति अज्ञात आकर्षण उन्हें खींच लाता है? जब वह बहुओं के हाथों में चूड़ियाँ ठेलती होती है, पतिदेव दूर खड़े कनखियों से देखते रहते हैं। क्या? अपनी नवोढ़ा की कोमल कलाइयों पर कोड़ा करती हुई रज़िया की पतली उँगलियों को! और, रज़िया को इसमें रस मिलता है। पतियों से चुहले करने से भी वह बाज़ नहीं आती—बाबू बड़ी महीन चूडियाँ हैं! ज़रा देखिएगा, कहीं चटक जाएँ! पतिदेव भागते हैं, बहुएँ खिलखिलाती हैं। रज़िया ठट्ठा लगाती है। अब वह अपने पेशे में निपुण होती जाती है।

    हाँ, रज़िया अपने पेशे में भी निपुण होती जाती थी। चूड़ीहारिन के पेशे के लिए सिर्फ़ यही नहीं चाहिए कि उसके पास रंग-बिरंगी चूड़ियाँ हों—सस्ती, टिकाऊ, टटके-से-टटके फ़ैशन की। बल्कि यह पेशा चूड़ियों के साथ चूड़ीहारिनों में बनाव-शृंगार रूप-रंग, नाज़-ओ-अदा भी खोजता है, जो चूड़ी पहननेवालियों को ही नहीं, उनको भी मोह सके, जिनकी जेब से चूड़ियों के लिए पैसे निकलते हैं। सफल चूड़ीहारिन यह रज़िया की माँ भी किसी ज़माने में क्या कुछ कम रही होगी! खंडहर कहता है, इमारत शानदार थी!

    ज्यों-ज्यों शहर में रहना बढ़ता गया, रज़िया से भेंट भी दुर्लभ होती गई और एक दिन वह भी आया, जब बहुत दिनों पर उसे अपने गाँव में देखा। पाया, उसके पीछे एक नौजवान चूड़ियों की खाँची सिर पर लिए है। मुझे देखते ही वह सहमी, सिकुड़ी और मैंने मान लिया, यह उसका पाति है। किंतु तो भी अनजान-सा पूछ ही लिया—इस जमूरे को कहाँ से उठा लाई है रे? इसी से पूछिए, साथ लग गया तो क्या करूँ? नौजवान मुस्कुराया, रज़िया भी हँसी, बोली यह मेरा ख़ाबिंद है, मालिक!

    ख़ाबिंद! बचपन की उस पहली मुलाक़ात में उसकी माँ ने दिल्लगी-दिल्लगी में जो कह दिया था, जाने, वह बात कहाँ सोई पड़ी थी! अचानक वह जगी और मेरी पेशानी पर उस दिन शिकन ज़रूर उठ आए होंगे, मेरा विश्वास है और एक दिन वह भी आया कि मैं भी ख़ाबिंद बना! मेरी रानी को सुहाग की चूड़ियाँ पहनाने उस दिन यही रज़िया आई, और उस दिन मेरे आँगन में कितनी धूम मचाई इस नटखट ने। यह लूँगी वह लूँगी और ये मुँहमाँगी चीज़ें नहीं मिलीं तो वह लूँगी कि दुलहन टापती रह जाएँगी! हट हट, तू बबुआजी को ले जाएगी तो फिर तुम्हारा यह हसन क्या करेगा? भौजी ने कहा। यह भी टापता रहेगा बहुरिया, कहकर रज़िया ठट्ठा मारकर हँसी और दौड़कर हसन से लिपट गई। ओहो, मेरे राजा, कुछ दूसरा समझना हसन भी हँस पड़ा। रज़िया अपनी प्रेमकथा सुनाने लगी किस तरह यह हसन उसके पीछे पड़ा, किस तरह झंझटें आईं, फिर किस तरह शादी हुई और वह आज भी किस तरह छाया-सा उसके पीछे घूमता है। जाने कौन सा डर लगा रहता है इसे? और फिर, मेरी रानी की कलाई पकड़कर बोली—मालिक भी तुम्हारे पीछे इसी तरह छाया की तरह डोलते रहें, दुलहन! सारा आँगन हँसी से भर गया था और उस हँसी में रज़िया के कानों की बालियों ने अजीब चमक भर दी थी, मुझे ऐसा ही लगा था।

    जीवन का रथ खुरदरे पथ पर बढ़ता गया। मेरा भी रज़िया का भी। इसका पता उस दिन चला, जब बहुत दिनों पर उससे अचानक पटना में भेंट हो गई। यह अचानक भेंट तो थी; किंतु क्या इसे भेंट कहा जाए?

    मैं अब ज़ियादातर घर से दूर-दूर ही रहता। कभी एकाध दिन के लिए घर गया तो शाम को गया, सुबह भागा। तरह-तरह की ज़िम्मेदारियाँ तरह-तरह के जंजाल! इन दिनों पटना में था, यूँ कहिए, पटना सिटी में एक छोटे से अख़बार में था—पीर-बावर्ची-भिश्ती की तरह! यों जो लोग समझते कि मैं संपादक ही हूँ। उन दिनों इतने अख़बार थे, इतने संपादक। इसलिए मेरी बड़ी क़दर है, यह मैं तब जानता जब कभी दफ़्तर से निकलता। देखता, लोग मेरी ओर उँगली उठाकर फुसफुसा रहे हैं। लोगों का मुझ पर यह ध्यान—मुझे हमेशा अपनी पद-प्रतिष्ठा का ख़याल रखना पड़ता।

    एक दिन मैं चौक के एक प्रसिद्ध पानवाले की दुकान पर पान खा रहा था। मेरे साथ मेरे कुछ प्रशंसक युवक थे। एक-दो बुज़ुर्ग भी आकर खड़े हो गए। हम पान खा रहे थे और कुछ चुहलें चल रही थीं कि एक बच्चा आया और बोला, 'बाबू, वह औरत आपको बुला रही है।'

    औरत! बुला रही है? चौक पर! मैं चौंक पड़ा। युवकों में थोड़ी हलचल, बुज़ुर्गों के चेहरों पर की रहस्यमयी मुस्कान भी मुझसे छिपी नहीं रही। औरत! कौन? मेरे चेहरे पर ग़ुस्सा था, वह लड़का सिटपिटाकर भाग गया।

    पान खाकर जब लोग इधर-उधर चले गए, अचानक पाता हूँ, मेरे पैर उसी ओर उठ रहे हैं, जिस ओर उस बच्चे ने उँगली से इशारा किया था। थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर पीछे देखा, परिचितों में से कोई देख तो नहीं रहा है। किंतु इस चौक की शाम की रूमानी फ़िज़ा में किसी को किसी की ओर देखने की कहाँ फ़ुरसत! मैं आगे बढ़ता गया और वहाँ पहुँचा, जहाँ उससे पूरब वह पीपल का पेड़ है। वहाँ पहुँच ही रहा था कि देखा, पेड़ के नीचे चबूतरे की तरफ़ से एक स्त्री बढ़ी रही है और निकट पहुँचकर यह कह उठी 'सलाम मालिक!'

    धक्का-सा लगा, किंतु पहचानते देर नहीं लगी—उसने ज्यों ही सिर उठाया, चाँदी की बालियाँ जो चमक उठीं!

    'रज़िया! यहाँ कैसे?' मेरे मुँह से निकल पड़ा।

    'सौदा-सुलफ़ करने आई हूँ, मालिक! अब तो नए क़िस्म के लोग हो गए न? अब लाख की चूड़ियाँ कहाँ किसी को भाती हैं। नए लोग, नई चूड़ियाँ! साज-सिंगार की कुछ और चीज़ें भी ले जाती हूँ—पॉडर, किलप, क्या क्या चीज़ें हैं न। नया ज़माना, दुलहनों के नए-नए मिज़ाज!’

    फिर ज़रा सा रुककर बोली, 'सुना था, आप यहाँ रहते हैं, मालिक। मैं तो अकसर आया करती हूँ।’

    और यह जब तक पूछें कि अकेली हो या कि एक अधवयस्क आदमी ने आकर सलाम किया। यह हसन था। लंबी-लंबी दाढ़ियाँ, पाँच हाथ का लंबा आदमी, लंबा और मुस्टंडा भी। 'देखिए मालिक, यह आज भी मेरा पीछा नहीं छोड़ता!' यह कहकर रज़िया हँस पड़ी। अब रज़िया वह नहीं थी, किंतु उसकी हँसी नहीं थी। वही हँसी, वही चुहल! इधर-उधर की बहुत सी बातें करती रही और जाने कब तक जारी रखती कि मुझे याद आया, मैं कहाँ खड़ा हूँ और अब मैं कौन हूँ कोई देख ले तो?

    किंतु वह फ़ुरसत दे तब न! जब मैंने जाने की बात की, हसन की ओर देखकर बोली, 'क्या देखते हो, ज़रा पान भी तो मालिक को खिलाओ। कितनी बार हुमच-हुमचकर भरपेट ठूँस चुके हो बाबू के घर।'

    जब हसन पान लाने चला गया, रज़िया ने बताया कि किस तरह दुनिया बदल गई है। अब तो ऐसे भी गाँव हैं, जहाँ के हिंदू मुसलमानों के हाथ से सौदे भी नहीं ख़रीदते। अब हिंदू चूड़ीहारिने हैं, हिंदू दर्ज़ी हैं। इसलिए रज़िया जैसे ख़ानदानी पेशेवालों को बड़ी दिक़्क़त हो गई है। किंतु, रज़िया ने यह ख़ुशख़बरी सुनाई—मेरे गाँव में यह पागलपन नहीं, और मेरी रानी तो सिवा रज़िया के किसी दूसरे के हाथ से चूड़ियाँ लेती ही नहीं।

    हसन का लाया पान खाकर जब मैं चलने को तैयार हुआ, वह पूछने लगी, 'तुम्हारा डेरा कहाँ है?' मैं बड़े पशोपेश में पड़ा। 'डरिए मत मालिक, अकेले नहीं आऊँगी, यह भी रहेगा। क्यों मेरे राजा?' यह कहकर वह हसन से लिपट पड़ी 'पगली, पगली, यह शहर है, शहर!' यूँ हसन ने हँसते हुए बाह छुड़ाई और बोला, 'बाबू, बाल बच्चों वाली हो गई, किंतु इसका बचपना नहीं गया।'

    और दूसरे दिन पाता हूँ, रज़िया मेरे डेरे पर हाज़िर है! 'मालिक, ये चूड़ियाँ रानी के लिए।' कहकर मेरे हाथों में चूड़ियाँ रख दी।

    मैंने कहा, 'तुम तो घर पर जाती ही हो, लेती जाओ, वहीं दे देना।'

    नहीं मालिक, एक बार अपने हाथ से भी पिन्हाकर देखिए!' कह खिलखिला पड़ी। और जब मैंने कहा, 'अब इस उम्र में?' तो वह हसन की ओर देखकर बोली, पूछिए इससे आज तक मुझे यही चूड़ियाँ पिन्हाता है या नहीं?' और, जब हसन कुछ शरमाया, वह बोली, 'घाघ है मालिक, घाघ! कैसा मुँह बना रहा है इस समय! लेकिन जब हाथ-में-हाथ लेता है,' ठठाकर हँस पड़ी, इतने ज़ोर से कि मैं चौंककर चारों तरफ़ देखने लगा।

    हाँ, तो अचानक उस दिन उसके गाँव में पहुँच गया। चुनाव का चक्कर—जहाँ ले जाए, जिस औघट-घाट पर खड़ा कर दें! नाक में पेट्रोल के धुएँ की गंध, कान में साँय-साँय की आवाज़, चेहरे पर गरद-ग़ुबार का अंबार परेशान, बदहवास; किंतु उस गाँव में ज्यों ही मेरी जीप घुसी, मैं एक ख़ास क़िस्म की भावना से अभिभूत हो गया।

    यह रज़िया का गाँव है। यहाँ रज़िया रहती थी। किंतु क्या आज मैं यहाँ यह भी पूछ सकता हूँ कि यहाँ कोई रज़िया नाम की चूड़ीहारिन रहती थी, या है? हसन का नाम लेने में भी शर्म लगती थी। मैं वहाँ नेता बनकर गया था, मेरी जय-जयकार हो रही थी। कुछ लोग मुझे घेरे खड़े थे। जिसके दरवाज़े पर जाकर पान खाऊँगा, वह अपने को बड़भागी समझेगा जिससे दो बातें कर लूँगा, वह स्वयं चर्चा का एक विषय बन जाएगा। इस समय मुझे कुछ ऊँचाई पर ही रहना चाहिए।

    जीप से उतरकर लोगों से बातें कर रहा था, या यूँ कहिए कि कल्पना के पहाड़ पर खड़े होकर एक आने वाले स्वर्ण युग का संदेश लोगों को सुना रहा था, किंतु दिमाग़ में कुछ गुत्थियाँ उलझी थीं। जीभ अभ्यासवश एक काम किए जा रही थी, अंतर्मन कुछ दूसरा ही ताना-बाना बुन रहा था। दोनों में कोई तारतम्य था; किंतु इसमें से किसी एक की गति में भी क्या बाधा डाली जा सकती थी?

    कि अचानक लो, यह क्या? वह रज़िया चली रही है! रज़िया! वह बच्ची, अरे, रज़िया फिर बच्ची हो गई? कानों में वे ही बालियाँ, गोरे चेहरे पर वे ही नीली आँखें, वही भरबाँह की क़मीज़, वे ही कुछ लटें, जिन्हें सँभालती बढ़ी रही है। बीच में चालीस पैंतालीस साल का व्यवधान! अरे, मैं सपना तो नहीं देख रहा? दिन में सपना! वह आती है, जबरन ऐसी भीड़ में घुसकर मेरे निकट पहुँचती हैं, सलाम करती हैं और मेरा हाथ पकड़कर कहती है, 'चलिए मालिक, मेरे घर।'

    मैं भौचक्का, कुछ सूझ नहीं रहा, कुछ समझ में नहीं रहा! लोग मुस्कुरा रहे हैं नेताजी, आज आपकी कलई खुलकर रही! नहीं, यह सपना है! कि कानों में सुनाई पड़ा, कोई कह रहा है—कैसी शोख़ लड़की! और दूसरा बोला—ठीक अपनी दादी जैसी! और तीसरे ने मेरे होश की दवा दी—यह रज़िया की पोती है, बाबू! बेचारी बीमार पड़ी है। आपकी चर्चा अकसर किया करती है। बड़ी तारीफ़ करती है। बाबू, फ़ुरसत हो तो ज़रा देख लीजिए, जाने बेचारी जीती है या...

    मैं रज़िया के आँगन में खड़ा हूँ। ये छोटे-छोटे साफ़-सुथरे घर, यह लिपा पुता चिक्कन ढुर-ढुर आँगन! भरी-पूरी गृहस्थी—मेहनत और दयानत की देन। हसन चल बसा है, किंतु अपने पीछे तीन हसन छोड़ गया है। बड़ा बेटा कलकत्ता कमाता है, मँझला पुश्तैनी पेशे में लगा है, छोटा शहर में पढ़ रहा है। यह बच्ची बड़े बेटे की बेटी। दादा का सिर पोते में, दादी का चेहरा पोती में। बहू रज़िया! यह दूसरी रज़िया मेरी उँगली पकड़े पुकार रही है—दादी, दादी! घर से निकल मालिक दादा गए! किंतु पहली 'वह' रज़िया निकल नहीं रहीं। कैसे निकले? बीमारी के मैले कुचैले कपड़े में मेरे सामने कैसे आवे?

    रज़िया ने अपनी पोती को भेज दिया, किंतु उसे विश्वास हुआ कि हवागाड़ी पर आने वाले नेता अब उसके घर तक आने की तकलीफ़ कर सकेंगे? और, जब सुना, मैं रहा हूँ तो बहुओं से कहा—ज़रा मेरे कपड़े तो बदलवा दो—मालिक से कितने दिनों पर भेंट हो रही है न!

    उसकी दोनों पतोहुएँ उसे सहारा देकर आँगन में ले आई रज़िया—हाँ, मेरे सामने रज़िया खड़ी थी दुबली-पतली, रूखी-सूखी। किंतु जब नज़दीक आकर उसने 'मालिक, सलाम' कहा, उसके चेहरे से एक क्षण के लिए झुर्रियाँ कहाँ चली गई, जिन्होंने उसके चेहरे को मकड़जाला बना रखा था। मैंने देखा, उसका चेहरा अचानक बिजली के बल्ब की तरह चमक उठा और चमक उठीं वे नीली आँखें, जो कोटरों में धँस गई थीं! और, अरे चमक उठी हैं आज फिर वे चाँदी की बालियाँ और देखो, अपने को पवित्र कर लो! उसके चेहरे पर फिर अचानक लटककर चमक रही हैं वे लटें, जिन्हें समय ने धो-पोंछकर शुभ-श्वेत बना दिया है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : माटी की मूरतें
    • रचनाकार : रामवृक्ष बेनीपुरी
    • प्रकाशन : अनुपम प्रकशन पटना
    • संस्करण : 1962

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