कानों में चाँदी की बालियाँ, गले में चाँदी का हैकल, हाथों में चाँदी के कंगन और पैरों में चाँदी की गोड़ांई—भरबाँह की बूटेदार क़मीज़ पहने, काली साड़ी के छोर को गले में लपेटे, गोरे चेहरे पर लटकते हुए कुछ बालों को सँभालने में परेशान वह छोटी सी लड़की जो उस दिन मेरे सामने आकर खड़ी हो गई थी—अपने बचपन की उस रज़िया की स्मृति ताज़ा हो उठी, जब मैं अभी उस दिन अचानक उसके गाँव में जा पहुँचा।
हाँ, यह मेरे बचपन की बात है। मैं क़साईख़ाने से रस्सी तुड़ाकर भागे हुए बछड़े की तरह उछलता हुआ अभी-अभी स्कूल से आया था और बरामदे की चौकी पर अपना बस्ता स्लेट पटककर मौसी से छठ में पके ठेकुए लेकर उसे कुतर-कुतर कर खाता हुआ ढेंकी पर झूला झूलने का मज़ा पूरा करना चाह रहा था कि उधर से आवाज़ आई—'देखना, बबुआ का खाना छू मत देना। और उसी आवाज़ के साथ मैंने देखा, यह अजीब रूप-रंग की लड़की मुझसे दो-तीन गज़ आगे खड़ी हो गई।
मेरे लिए यह रूप-रंग सचमुच अजीब था। ठेठ हिंदुओं की बस्ती है मेरी और मुझे मेले-पेठिए में भी अधिक नहीं जाने दिया जाता। क्योंकि सुना है, बचपन में मैं एक मेले में खो गया था। मुझे कोई औघड़ लिए जा रहा था कि गाँव की एक लड़की की नज़र पड़ी और मेरा उद्धार हुआ। मैं माँ-बाप का इकलौता—माँ चल बसी थीं। इसलिए उनकी इस एकमात्र धरोहर को मौसी आँखों में जुगोकर रखतीं। मेरे गाँव में भी लड़कियों की कमी नहीं; किंतु न उनकी यह वेश-भूषा, न यह रूप-रंग मेरे गाँव की लड़कियाँ कानों में बालियाँ कहाँ डालती और भरबाँह की क़मीज़ पहने भी उन्हें कभी नहीं देखा और गोरे चेहरे तो मिले हैं, किंतु इसकी आँखों में जो एक अजीब क़िस्म का नीलापन दिखता, वह कहाँ? और, समुचे चेहरे की काट भी कुछ निराली ज़रूर तभी तो मैं उसे एकटक घूरने लगा।
यह बोली थी रज़िया की माँ, जिसे प्रायः ही अपने गाँव में चूड़ियों की खँचिया लेकर आते देखता आया था। वह मेरे आँगन में चूड़ियों का बाज़ार पसारकर बैठी थीं और कितनी बहू-बेटियाँ उसे घेरे हुई थीं। मुँह से भाव-साव करती और हाथ से ख़रीदारों के हाथ में चूड़ियाँ चढ़ाती वह सौदे पटाए जा रही थी। अब तक उसे अकेले ही आते-जाते देखा था; हाँ, कभी-कभी उसके पीछे कोई मर्द होता जो चूड़ियों की खाँची ढोता। यह बच्ची आज पहली बार आई थी और न जाने किस बाल-सुलभ उत्सुकता ने उसे मेरी ओर खींच लिया था। शायद वह यह भी नहीं जानती थी कि किसी के हाथ का खाना किसी के निकट पहुँचने से ही छू जाता है। माँ जब अचानक चीख़ उठी, वह ठिठकी सहमी—उसके पैर तो वहीं बँध गए। किंतु इस ठिठक ने उसे मेरे बहुत निकट ला दिया, इसमें संदेह नहीं।
मेरी मौसी झट उठी, घर में गई और दो ठेकुए और एक कसार लेकर उसके हाथों में रख दिए। वह लेती नहीं थी, किंतु अपनी माँ के आग्रह पर हाथ में रख तो लिया, किंतु मुँह से नहीं लगाया! मैंने कहा—खाओ! क्या तुम्हारे घरों में ये सब नहीं बनते? छठ का व्रत नहीं होता? कितने प्रश्न—किंतु सबका जवाब 'न' में ही और वह भी मुँह से नहीं, ज़रा सा गरदन हिलाकर और गरदन हिलाते ही चेहरे पर गिरे बाल की जो लटें हिल-हिल उठती, वह उन्हें परेशानी से संभालने लगती।
जब उसकी माँ नई ख़रीदारिनों की तलाश में मेरे आँगन से चली, रज़िया भी उसके पीछे हो ली। मैं खाकर, मुँह धोकर अब उसके निकट था और जब वह चली, जैसे उसकी डोर में बँधा थोड़ी दूर तक घिसटता गया। शायद मेरी भावुकता देखकर ही चूड़ीहारिनों के मुँह पर खेलने वाली अजस्त्र हँसी और चुहल में ही उसकी माँ बोली—बबुआजी, रज़िया से ब्याह कीजिएगा? फिर बेटी की ओर मुख़ातिब होती मुस्कुराहट में कहा—क्यों रे रज़िया, यह दुलहा तुम्हें पसंद है? उसका यह कहना कि मैं मुड़कर भागा। ब्याह? एक मुसलमानिन से? अब रज़िया की माँ ठठा रही थी और रज़िया सिमटकर उसके पैरों में लिपटी थी, कुछ दूर निकल जाने पर मैंने मुड़कर देखा।
रज़िया, चूड़ीहारिन! वह इसी गाँव की रहने वाली थी। बचपन में इसी गाँव में रही और जवानी में भी। क्योंकि मुसलमानों की गाँव में भी शादी हो जाती है न! और यह अच्छा हुआ—क्योंकि बहुत दिनों तक प्राय: उससे अपने गाँव में ही भेंट हो जाया करती थी।
मैं पढ़ते-पढ़ते बढ़ता गया। पढ़ने के लिए शहरों में जाना पड़ा। छुट्टियों में जब-तब आता इधर रज़िया पढ़ तो नहीं सकी, हाँ, बढ़ने में मुझसे पीछे नहीं रही। कुछ दिनों तक अपनी माँ के पीछे-पीछे घूमती फिरी। अभी उसके सिर पर चूड़ियों की खँचिया तो नहीं पड़ी, किंतु ख़रीदारिनों के हाथों में चूड़ियाँ पहनाने की कला वह जान गई थी। उसके हाथ मुलायम हैं, बहुत मुलायम नई बहुओं की यही राय थी। वे उसी के हाथ से चूड़ियाँ पहनना पसंद करतीं। उसकी माँ इससे प्रसन्न ही हुई—जब तक रज़िया चूड़ियाँ पहनाती, वह नई-नई ख़रीदारिनें फँसाती।
रज़िया बढ़ती गई। जब-जब भेंट होती, मैं पाता, उसके शरीर में नए-नए विकास हो रहे हैं; शरीर में और स्वभाव में भी। पहली भेंट के बाद पाया था, वह कुछ प्रगल्भ हो गई है। मुझे देखते ही दौड़कर निकट आ जाती, प्रश्न पर प्रश्न पूछती। अजीब अटपटे प्रश्न! देखिए तो ये नई बालियाँ आपको पसंद हैं? क्या शहरों में ऐसी ही बालियाँ पहनी जाती हैं? मेरी माँ शहर से चुड़ियाँ लाती है, मैंने कहा है, वह इस बार मुझे भी ले चलें। आप किस तरफ़ रहते हैं वहाँ? क्या भेंट हो सकेगी? वह बके जाती, मैं सुनता जाता! शायद जवाब की ज़रूरत यह भी नहीं महसूस करती।
फिर कुछ दिनों के बाद पाया, वह अब कुछ सकुचा रही है। मेरे निकट आने के पहले वह इधर-उधर देखती और जब कुछ बातें करती तो ऐसी चौकन्नी-सी कि कोई देख न ले, सुन न ले। एक दिन जब वह इसी तरह बातें कर रही थी कि मेरी भौजी ने कहा—देखियो री रज़िया बबुआजी को फुसला नहीं लीजियो। वह उनकी ओर देखकर हँस तो पड़ी, किंतु मैंने पाया, उसके दोनों गाल लाल हो गए हैं और उन नीली आँखों के कोने मुझे सजल-से लगे। मैंने तब से ध्यान दिया, जब हम लोग कहीं मिलते हैं, बहुत सी आँखें हम पर भालों की नौक ताने रहती हैं।
रज़िया बढ़ती गई, बच्चों से किशोरी हुई और अब जवानी के फूल उसके शरीर पर खिलने लगे हैं। अब भी वह माँ के साथ ही आती है; किंतु पहले वह माँ की एक छाया मात्र लगती थी, अब उसका स्वतंत्र अस्तित्व है। और उसकी छाया बनने के लिए कितनों के दिलों में कसमसाहट है जब वह बहनों को चूड़ियाँ पहनाती होती है, कितने भाई तमाशा देखने को वहाँ एकत्र हो जाते हैं। क्या? बहनों के प्रति भातृभाव या रज़िया के प्रति अज्ञात आकर्षण उन्हें खींच लाता है? जब वह बहुओं के हाथों में चूड़ियाँ ठेलती होती है, पतिदेव दूर खड़े कनखियों से देखते रहते हैं। क्या? अपनी नवोढ़ा की कोमल कलाइयों पर कोड़ा करती हुई रज़िया की पतली उँगलियों को! और, रज़िया को इसमें रस मिलता है। पतियों से चुहले करने से भी वह बाज़ नहीं आती—बाबू बड़ी महीन चूडियाँ हैं! ज़रा देखिएगा, कहीं चटक न जाएँ! पतिदेव भागते हैं, बहुएँ खिलखिलाती हैं। रज़िया ठट्ठा लगाती है। अब वह अपने पेशे में निपुण होती जाती है।
हाँ, रज़िया अपने पेशे में भी निपुण होती जाती थी। चूड़ीहारिन के पेशे के लिए सिर्फ़ यही नहीं चाहिए कि उसके पास रंग-बिरंगी चूड़ियाँ हों—सस्ती, टिकाऊ, टटके-से-टटके फ़ैशन की। बल्कि यह पेशा चूड़ियों के साथ चूड़ीहारिनों में बनाव-शृंगार रूप-रंग, नाज़-ओ-अदा भी खोजता है, जो चूड़ी पहननेवालियों को ही नहीं, उनको भी मोह सके, जिनकी जेब से चूड़ियों के लिए पैसे निकलते हैं। सफल चूड़ीहारिन यह रज़िया की माँ भी किसी ज़माने में क्या कुछ कम रही होगी! खंडहर कहता है, इमारत शानदार थी!
ज्यों-ज्यों शहर में रहना बढ़ता गया, रज़िया से भेंट भी दुर्लभ होती गई और एक दिन वह भी आया, जब बहुत दिनों पर उसे अपने गाँव में देखा। पाया, उसके पीछे एक नौजवान चूड़ियों की खाँची सिर पर लिए है। मुझे देखते ही वह सहमी, सिकुड़ी और मैंने मान लिया, यह उसका पाति है। किंतु तो भी अनजान-सा पूछ ही लिया—इस जमूरे को कहाँ से उठा लाई है रे? इसी से पूछिए, साथ लग गया तो क्या करूँ? नौजवान मुस्कुराया, रज़िया भी हँसी, बोली यह मेरा ख़ाबिंद है, मालिक!
ख़ाबिंद! बचपन की उस पहली मुलाक़ात में उसकी माँ ने दिल्लगी-दिल्लगी में जो कह दिया था, न जाने, वह बात कहाँ सोई पड़ी थी! अचानक वह जगी और मेरी पेशानी पर उस दिन शिकन ज़रूर उठ आए होंगे, मेरा विश्वास है और एक दिन वह भी आया कि मैं भी ख़ाबिंद बना! मेरी रानी को सुहाग की चूड़ियाँ पहनाने उस दिन यही रज़िया आई, और उस दिन मेरे आँगन में कितनी धूम मचाई इस नटखट ने। यह लूँगी वह लूँगी और ये मुँहमाँगी चीज़ें नहीं मिलीं तो वह लूँगी कि दुलहन टापती रह जाएँगी! हट हट, तू बबुआजी को ले जाएगी तो फिर तुम्हारा यह हसन क्या करेगा? भौजी ने कहा। यह भी टापता रहेगा बहुरिया, कहकर रज़िया ठट्ठा मारकर हँसी और दौड़कर हसन से लिपट गई। ओहो, मेरे राजा, कुछ दूसरा न समझना हसन भी हँस पड़ा। रज़िया अपनी प्रेमकथा सुनाने लगी किस तरह यह हसन उसके पीछे पड़ा, किस तरह झंझटें आईं, फिर किस तरह शादी हुई और वह आज भी किस तरह छाया-सा उसके पीछे घूमता है। न जाने कौन सा डर लगा रहता है इसे? और फिर, मेरी रानी की कलाई पकड़कर बोली—मालिक भी तुम्हारे पीछे इसी तरह छाया की तरह डोलते रहें, दुलहन! सारा आँगन हँसी से भर गया था और उस हँसी में रज़िया के कानों की बालियों ने अजीब चमक भर दी थी, मुझे ऐसा ही लगा था।
जीवन का रथ खुरदरे पथ पर बढ़ता गया। मेरा भी रज़िया का भी। इसका पता उस दिन चला, जब बहुत दिनों पर उससे अचानक पटना में भेंट हो गई। यह अचानक भेंट तो थी; किंतु क्या इसे भेंट कहा जाए?
मैं अब ज़ियादातर घर से दूर-दूर ही रहता। कभी एकाध दिन के लिए घर गया तो शाम को गया, सुबह भागा। तरह-तरह की ज़िम्मेदारियाँ तरह-तरह के जंजाल! इन दिनों पटना में था, यूँ कहिए, पटना सिटी में एक छोटे से अख़बार में था—पीर-बावर्ची-भिश्ती की तरह! यों जो लोग समझते कि मैं संपादक ही हूँ। उन दिनों न इतने अख़बार थे, न इतने संपादक। इसलिए मेरी बड़ी क़दर है, यह मैं तब जानता जब कभी दफ़्तर से निकलता। देखता, लोग मेरी ओर उँगली उठाकर फुसफुसा रहे हैं। लोगों का मुझ पर यह ध्यान—मुझे हमेशा अपनी पद-प्रतिष्ठा का ख़याल रखना पड़ता।
एक दिन मैं चौक के एक प्रसिद्ध पानवाले की दुकान पर पान खा रहा था। मेरे साथ मेरे कुछ प्रशंसक युवक थे। एक-दो बुज़ुर्ग भी आकर खड़े हो गए। हम पान खा रहे थे और कुछ चुहलें चल रही थीं कि एक बच्चा आया और बोला, 'बाबू, वह औरत आपको बुला रही है।'
औरत! बुला रही है? चौक पर! मैं चौंक पड़ा। युवकों में थोड़ी हलचल, बुज़ुर्गों के चेहरों पर की रहस्यमयी मुस्कान भी मुझसे छिपी नहीं रही। औरत! कौन? मेरे चेहरे पर ग़ुस्सा था, वह लड़का सिटपिटाकर भाग गया।
पान खाकर जब लोग इधर-उधर चले गए, अचानक पाता हूँ, मेरे पैर उसी ओर उठ रहे हैं, जिस ओर उस बच्चे ने उँगली से इशारा किया था। थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर पीछे देखा, परिचितों में से कोई देख तो नहीं रहा है। किंतु इस चौक की शाम की रूमानी फ़िज़ा में किसी को किसी की ओर देखने की कहाँ फ़ुरसत! मैं आगे बढ़ता गया और वहाँ पहुँचा, जहाँ उससे पूरब वह पीपल का पेड़ है। वहाँ पहुँच ही रहा था कि देखा, पेड़ के नीचे चबूतरे की तरफ़ से एक स्त्री बढ़ी आ रही है और निकट पहुँचकर यह कह उठी 'सलाम मालिक!'
धक्का-सा लगा, किंतु पहचानते देर नहीं लगी—उसने ज्यों ही सिर उठाया, चाँदी की बालियाँ जो चमक उठीं!
'रज़िया! यहाँ कैसे?' मेरे मुँह से निकल पड़ा।
'सौदा-सुलफ़ करने आई हूँ, मालिक! अब तो नए क़िस्म के लोग हो गए न? अब लाख की चूड़ियाँ कहाँ किसी को भाती हैं। नए लोग, नई चूड़ियाँ! साज-सिंगार की कुछ और चीज़ें भी ले जाती हूँ—पॉडर, किलप, क्या क्या चीज़ें हैं न। नया ज़माना, दुलहनों के नए-नए मिज़ाज!’
फिर ज़रा सा रुककर बोली, 'सुना था, आप यहाँ रहते हैं, मालिक। मैं तो अकसर आया करती हूँ।’
और यह जब तक पूछें कि अकेली हो या कि एक अधवयस्क आदमी ने आकर सलाम किया। यह हसन था। लंबी-लंबी दाढ़ियाँ, पाँच हाथ का लंबा आदमी, लंबा और मुस्टंडा भी। 'देखिए मालिक, यह आज भी मेरा पीछा नहीं छोड़ता!' यह कहकर रज़िया हँस पड़ी। अब रज़िया वह नहीं थी, किंतु उसकी हँसी नहीं थी। वही हँसी, वही चुहल! इधर-उधर की बहुत सी बातें करती रही और न जाने कब तक जारी रखती कि मुझे याद आया, मैं कहाँ खड़ा हूँ और अब मैं कौन हूँ कोई देख ले तो?
किंतु वह फ़ुरसत दे तब न! जब मैंने जाने की बात की, हसन की ओर देखकर बोली, 'क्या देखते हो, ज़रा पान भी तो मालिक को खिलाओ। कितनी बार हुमच-हुमचकर भरपेट ठूँस चुके हो बाबू के घर।'
जब हसन पान लाने चला गया, रज़िया ने बताया कि किस तरह दुनिया बदल गई है। अब तो ऐसे भी गाँव हैं, जहाँ के हिंदू मुसलमानों के हाथ से सौदे भी नहीं ख़रीदते। अब हिंदू चूड़ीहारिने हैं, हिंदू दर्ज़ी हैं। इसलिए रज़िया जैसे ख़ानदानी पेशेवालों को बड़ी दिक़्क़त हो गई है। किंतु, रज़िया ने यह ख़ुशख़बरी सुनाई—मेरे गाँव में यह पागलपन नहीं, और मेरी रानी तो सिवा रज़िया के किसी दूसरे के हाथ से चूड़ियाँ लेती ही नहीं।
हसन का लाया पान खाकर जब मैं चलने को तैयार हुआ, वह पूछने लगी, 'तुम्हारा डेरा कहाँ है?' मैं बड़े पशोपेश में पड़ा। 'डरिए मत मालिक, अकेले नहीं आऊँगी, यह भी रहेगा। क्यों मेरे राजा?' यह कहकर वह हसन से लिपट पड़ी 'पगली, पगली, यह शहर है, शहर!' यूँ हसन ने हँसते हुए बाह छुड़ाई और बोला, 'बाबू, बाल बच्चों वाली हो गई, किंतु इसका बचपना नहीं गया।'
और दूसरे दिन पाता हूँ, रज़िया मेरे डेरे पर हाज़िर है! 'मालिक, ये चूड़ियाँ रानी के लिए।' कहकर मेरे हाथों में चूड़ियाँ रख दी।
मैंने कहा, 'तुम तो घर पर जाती ही हो, लेती जाओ, वहीं दे देना।'
नहीं मालिक, एक बार अपने हाथ से भी पिन्हाकर देखिए!' कह खिलखिला पड़ी। और जब मैंने कहा, 'अब इस उम्र में?' तो वह हसन की ओर देखकर बोली, पूछिए इससे आज तक मुझे यही चूड़ियाँ पिन्हाता है या नहीं?' और, जब हसन कुछ शरमाया, वह बोली, 'घाघ है मालिक, घाघ! कैसा मुँह बना रहा है इस समय! लेकिन जब हाथ-में-हाथ लेता है,' ठठाकर हँस पड़ी, इतने ज़ोर से कि मैं चौंककर चारों तरफ़ देखने लगा।
हाँ, तो अचानक उस दिन उसके गाँव में पहुँच गया। चुनाव का चक्कर—जहाँ न ले जाए, जिस औघट-घाट पर न खड़ा कर दें! नाक में पेट्रोल के धुएँ की गंध, कान में साँय-साँय की आवाज़, चेहरे पर गरद-ग़ुबार का अंबार परेशान, बदहवास; किंतु उस गाँव में ज्यों ही मेरी जीप घुसी, मैं एक ख़ास क़िस्म की भावना से अभिभूत हो गया।
यह रज़िया का गाँव है। यहाँ रज़िया रहती थी। किंतु क्या आज मैं यहाँ यह भी पूछ सकता हूँ कि यहाँ कोई रज़िया नाम की चूड़ीहारिन रहती थी, या है? हसन का नाम लेने में भी शर्म लगती थी। मैं वहाँ नेता बनकर गया था, मेरी जय-जयकार हो रही थी। कुछ लोग मुझे घेरे खड़े थे। जिसके दरवाज़े पर जाकर पान खाऊँगा, वह अपने को बड़भागी समझेगा जिससे दो बातें कर लूँगा, वह स्वयं चर्चा का एक विषय बन जाएगा। इस समय मुझे कुछ ऊँचाई पर ही रहना चाहिए।
जीप से उतरकर लोगों से बातें कर रहा था, या यूँ कहिए कि कल्पना के पहाड़ पर खड़े होकर एक आने वाले स्वर्ण युग का संदेश लोगों को सुना रहा था, किंतु दिमाग़ में कुछ गुत्थियाँ उलझी थीं। जीभ अभ्यासवश एक काम किए जा रही थी, अंतर्मन कुछ दूसरा ही ताना-बाना बुन रहा था। दोनों में कोई तारतम्य न था; किंतु इसमें से किसी एक की गति में भी क्या बाधा डाली जा सकती थी?
कि अचानक लो, यह क्या? वह रज़िया चली आ रही है! रज़िया! वह बच्ची, अरे, रज़िया फिर बच्ची हो गई? कानों में वे ही बालियाँ, गोरे चेहरे पर वे ही नीली आँखें, वही भरबाँह की क़मीज़, वे ही कुछ लटें, जिन्हें सँभालती बढ़ी आ रही है। बीच में चालीस पैंतालीस साल का व्यवधान! अरे, मैं सपना तो नहीं देख रहा? दिन में सपना! वह आती है, जबरन ऐसी भीड़ में घुसकर मेरे निकट पहुँचती हैं, सलाम करती हैं और मेरा हाथ पकड़कर कहती है, 'चलिए मालिक, मेरे घर।'
मैं भौचक्का, कुछ सूझ नहीं रहा, कुछ समझ में नहीं आ रहा! लोग मुस्कुरा रहे हैं नेताजी, आज आपकी कलई खुलकर रही! नहीं, यह सपना है! कि कानों में सुनाई पड़ा, कोई कह रहा है—कैसी शोख़ लड़की! और दूसरा बोला—ठीक अपनी दादी जैसी! और तीसरे ने मेरे होश की दवा दी—यह रज़िया की पोती है, बाबू! बेचारी बीमार पड़ी है। आपकी चर्चा अकसर किया करती है। बड़ी तारीफ़ करती है। बाबू, फ़ुरसत हो तो ज़रा देख लीजिए, न जाने बेचारी जीती है या...
मैं रज़िया के आँगन में खड़ा हूँ। ये छोटे-छोटे साफ़-सुथरे घर, यह लिपा पुता चिक्कन ढुर-ढुर आँगन! भरी-पूरी गृहस्थी—मेहनत और दयानत की देन। हसन चल बसा है, किंतु अपने पीछे तीन हसन छोड़ गया है। बड़ा बेटा कलकत्ता कमाता है, मँझला पुश्तैनी पेशे में लगा है, छोटा शहर में पढ़ रहा है। यह बच्ची बड़े बेटे की बेटी। दादा का सिर पोते में, दादी का चेहरा पोती में। बहू रज़िया! यह दूसरी रज़िया मेरी उँगली पकड़े पुकार रही है—दादी, ओ दादी! घर से निकल मालिक दादा आ गए! किंतु पहली 'वह' रज़िया निकल नहीं रहीं। कैसे निकले? बीमारी के मैले कुचैले कपड़े में मेरे सामने कैसे आवे?
रज़िया ने अपनी पोती को भेज दिया, किंतु उसे विश्वास न हुआ कि हवागाड़ी पर आने वाले नेता अब उसके घर तक आने की तकलीफ़ कर सकेंगे? और, जब सुना, मैं आ रहा हूँ तो बहुओं से कहा—ज़रा मेरे कपड़े तो बदलवा दो—मालिक से कितने दिनों पर भेंट हो रही है न!
उसकी दोनों पतोहुएँ उसे सहारा देकर आँगन में ले आई रज़िया—हाँ, मेरे सामने रज़िया खड़ी थी दुबली-पतली, रूखी-सूखी। किंतु जब नज़दीक आकर उसने 'मालिक, सलाम' कहा, उसके चेहरे से एक क्षण के लिए झुर्रियाँ कहाँ चली गई, जिन्होंने उसके चेहरे को मकड़जाला बना रखा था। मैंने देखा, उसका चेहरा अचानक बिजली के बल्ब की तरह चमक उठा और चमक उठीं वे नीली आँखें, जो कोटरों में धँस गई थीं! और, अरे चमक उठी हैं आज फिर वे चाँदी की बालियाँ और देखो, अपने को पवित्र कर लो! उसके चेहरे पर फिर अचानक लटककर चमक रही हैं वे लटें, जिन्हें समय ने धो-पोंछकर शुभ-श्वेत बना दिया है।
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raziya baDhti gai jab jab bhent hoti, main pata, uske sharir mein nae nae wikas ho rahe hain; sharir mein aur swbhaw mein bhi pahli bhent ke baad paya tha, wo kuch pragalbh ho gai hai mujhe dekhte hi dauDkar nikat aa jati, parashn par parashn puchhti ajib atapte parashn! dekhiye to ye nai baliyan aapko pasand hain? kya shahron mein aisi hi baliyan pahni jati hain? meri man shahr se chuDiyan lati hai, mainne kaha hai, wo is bar mujhe bhi le chalen aap kis taraf rahte hain wahan? kya bhent ho sakegi? wo bake jati, main sunta jata! shayad jawab ki zarurat ye bhi nahin mahsus karti
phir kuch dinon ke baad paya, wo ab kuch sakucha rahi hai mere nikat aane ke pahle wo idhar udhar dekhti aur jab kuch baten karti to aisi chaukanni si ki koi dekh na le, sun na le ek din jab wo isi tarah baten kar rahi thi ki meri bhauji ne kaha—dekhiyo ri raziya babuaji ko phusla nahin lijiyo wo unki aur dekhkar hans to paDi, kintu mainne paya, uske donon gal lal ho gaye hain aur un nili ankhon ke kone mujhe sajal se lage mainne tab se dhyan diya, jab hum log kahin milte hain, bahut si ankhen hum par bhalon ki nauk tane rahti hain
raziya baDhti gai, bachchon se kishori hui aur ab jawani ke phool uske sharir par khilne lage hain ab bhi wo man ke sath hi aati hai; kintu pahle wo man ki ek chhaya matr lagti thi, ab uska swatantr astitw hai aur uski chhaya banne ke liye kitnon ke dilon mein kasamsahat hai jab wo bahnon ko chuDiyan pahnati hoti hai, kitne bhai tamasha dekhne ko wahan ekatr ho jate hain kya? bahnon ke prati atribhaw ya raziya ke prati agyat akarshan unhen kheench lata hai? jab wo bahuon ke hathon mein chuDiyan thelti hoti hai, patidew door khaDe kanakhiyon se dekhte rahte hain kya? apni nawoDha ki komal kalaiyon par koDa karti hui raziya ki patli ungliyon ko! aur, raziya ko ismen ras milta hai patiyon se chuhle karne se bhi wo baz nahin ati—babu baDi muhin chuDiyan hain! zara dekhiyega, kahin chatak na jayen! patidew bhagte hain, bahuwen khilkhilati hain raziya thattha lagati hai ab wo apne peshe mein nipun hoti jati hai
han, raziya apne peshe mein bhi nipun hoti jati thi chuDiharin ke peshe ke liye sirf yahi nahin chahiye ki uske pas rang birangi chuDiyan hon—sasti, tikau, tatke se tatke fashion ki balki ye pesha chuDiyon ke sath chuDiharinon mein banaw shringar roop rang, naz o ada bhi khojta hai, jo chuDi pahannewaliyon ko hi nahin, unko bhi moh sake, jinki jeb se chuDiyon ke liye paise nikalte hain saphal chuDiharin ye raziya ki man bhi kisi zamane mein kya kuch kam rahi hogi! khanDhar kahta hai, imarat shanadar thee!
jyon jyon shahr mein rahna baDhta gaya, raziya se bhent bhi durlabh hoti gai aur ek din wo bhi aaya, jab bahut dinon par use apne ganw mein dekha paya, uske pichhe ek naujawan chuDiyon ki khanchi sir par liye hai mujhe dekhte hi wo sahmi, sikuDi aur mainne man liya, ye uska pati hai kintu to bhi anjan sa poochh hi liya—is jamure ko kahan se utha lai hai re? isi se puchhiye, sath lag gaya to kya karun? naujawan muskuraya, raziya bhi hansi, boli ye mera khawind hai, malik!
khawind! bachpan ki us pahli mulaqat mein uski man ne dillgi dillgi mein jo kah diya tha, na jane, wo baat kahan soi paDi thee! achanak wo jagi aur meri peshani par us din shikan zarur uth aaye honge, mera wishwas hai aur ek din wo bhi aaya ki main bhi khawind bana! meri rani ko suhag ki chuDiyan pahnane us din yahi raziya i, aur us din mere angan mein kitni dhoom machai is natkhat ne ye lungi wo lungi aur ye munhmangi chizen nahin milin to wo lungi ki dulhan tapati rah jayengi! hat hat, tu babuaji ko le jayegi to phir tumhara ye hasan kya karega? bhauji ne kaha ye bhi tapta rahega bahuriya, kahkar raziya thattha markar hansi aur dauDkar hasan se lipat gai oho, mere raja, kuch dusra na samajhna hasan bhi hans paDa raziya apni premaktha sunane lagi kis tarah ye hasan uske pichhe paDa, kis tarah jhanjhten ain, phir kis tarah shadi hui aur wo aaj bhi kis tarah chhaya sa uske pichhe ghumta hai na jane kaun sa Dar laga rahta hai ise? aur phir, meri rani ki kalai pakaDkar boli—malik bhi tumhare pichhe isi tarah chhaya ki tarah Dolte rahen, dulhan! sara angan hansi se bhar gaya tha aur us hansi mein raziya ke kanon ki baliyon ne ajib chamak bhar di thi, mujhe aisa hi laga tha
jiwan ka rath khuradre path par baDhta gaya mera bhi raziya ka bhi iska pata us din chala, jab bahut dinon par usse achanak patna mein bhent ho gai ye achanak bhent to thee; kintu kya ise bhent kaha jaye?
main ab ziyadatar ghar se door door hi rahta kabhi ekadh din ke liye ghar gaya to sham ko gaya, subah bhaga tarah tarah ki zimmedariyan tarah tarah ke janjal! in dinon patna mein tha, yoon kahiye, patna city mein ek chhote se akhbar mein tha—pir bawarchi bhishti ki tarah! yo jo log samajhte ki main sanpadak hi hoon un dinon na itne akhbar the, na itne sanpadak isliye meri baDi qadar hai, ye main tab janta jab kabhi daftar se nikalta dekhta, log meri or ungli uthakar phusphusa rahe hain logon ka mujh par ye dhyan—mujhe hamesha apni pad pratishtha ka khayal rakhna paDta
ek din main chauk ke ek prasiddh panwale ki dukan par pan kha raha tha mere sath mere kuch prashansak yuwak the ek do buzurg bhi aakar khaDe ho gaye hum pan kha rahe the aur kuch chuhlen chal rahi theen ki ek bachcha aaya aur bola, babu, wo aurat aapko bula rahi hai
aurat! bula rahi hai? chauk par! main chaunk paDa yuwkon mein thoDi halchal, buzugon ke chehron par ki rahasyamyi muskan bhi mujhse chhipi nahin rahi aurat! kaun? mere chehre par ghussa tha, wo laDka sitapitakar bhag gaya
pan khakar jab log idhar udhar chale gaye, achanak pata hoon, mere pair usi aur uth rahe hain, jis aur us bachche ne ungli se ishara kiya tha thoDi door aage baDhne par pichhe dekha, parichiton mein se koi dekh to nahin raha hai kintu is chauk ki sham ki rumani fi mein kisi ko kisi ki or dekhne ki kahan fursat! main aage baDhta gaya aur wahan pahuncha, jahan usse purab wo pipal ka peD hai wahan pahunch hi raha tha ki dekha, peD ke niche chabutre ki taraf se ek istri baDhi aa rahi hai aur nikat pahunchakar ye kah uthi salam malik!
dhakka sa laga, kintu pahchante der nahin lagi—usne jyon hi sir uthaya, chandi ki baliyan jo chamak uthin!
raziya! yahan kaise? mere munh se nikal paDa
sauda sulaph karne i hoon, malik! ab to nae qim ke log ho gaye n? ab lakh ki chuDiyan kahan kisi ko bhati hain nae log, nai chuDiyan! saj singar ki kuch aur chizen bhi le jati hun—pauDar, kilap, kya kya chizen hain na naya zamana, dulahnon ke nae nae mijaj!’
phir zara sa rukkar boli, suna tha, aap yahan rahte hain, malika mein to aksar aaya karti hoon ’
aur ye jab tak puchhen ki akeli ho ya ki ek adhawyask adami ne aakar salam kiya ye hasan tha lambi lambi daDhiyan, panch hath ka lamba adami, lamba aur mustanda bhi dekhiye malik, ye aaj bhi mera pichha nahin chhoDta! ye kahkar raziya hans paDi ab raziya wo nahin thi, kintu uski hansi nahin thi wahi hansi, wahi chuhal! idhar udhar ki bahut si baten karti rahi aur na jane kab tak jari rakhti ki mujhe yaad aaya, main kahan khaDa hoon aur ab main kaun hoon koi dekh le to?
kintu wo fursat de tab n! jab mainne jane ki baat ki, hasan ki or dekhkar boli, kya dekhte ho, zara pan bhi to malik ko khilao kitni bar humach humachkar bharpet thoons chuke ho babu ke ghar
jab hasan pan lane chala gaya, raziya ne bataya ki kis tarah duniya badal gai hai ab to aise bhi ganw hain, jahan ke hindu musalmanon ke hath se saude bhi nahin kharidte ab hindu chuDiharine hain, hindu darzi hain isliye raziya jaise khandani peshewalon ko baDi diqqat ho gai hai kintu, raziya ne ye khushakhabri sunai—mere ganw mein ye pagalpan nahin, aur meri rani to siwa raziya ke kisi dusre ke hath se chuDiyan leti hi nahin
hasan ka laya pan khakar jab main chalne ko taiyar hua, wo puchhne lagi, tumhara Dera kahan hai? main baDe pashopesh mein paDa Dariye mat malik, akele nahin aungi, ye bhi rahega kyon mere raja? ye kahkar wo hasan se lipat paDi pagli, pagli, ye shahr hai, shahr! yoon hasan ne hanste hue bah chhuDai aur bola, babu, baal bachchonwali ho gai, kintu iska bachpana nahin gaya
aur dusre din pata hoon, raziya mere Dere par hazir hai! malik, ye chuDiyan rani ke liye kahkar mere hathon mein chuDiyan rakh di
mainne kaha, tum to ghar par jati hi ho, leto jao, wahin de dena
nahin malik, ek bar apne hath se bhi pinhakar dekhiye! kah khilkhila paDi aur jab mainne kaha, ab is umr mein? to wo hasan ki or dekhkar boli, puchhiye isse aaj tak mujhe yahi chuDiyan pinhata hai ya nahin? aur, jab hasan kuch sharmaya, wo boli, ghagh hai malik, ghagh! kaisa munh bana raha hai is samay! lekin jab hath mein hath leta hai, thathakar hans paDi, itne zor se ki main chaunkkar charon taraf dekhne laga
han, to achanak us din uske ganw mein pahunch gaya chunaw ka chakkar—jahan na le jaye, jis aughat ghat par na khaDa kar den! nak mein petrol ke dhuen ki gandh, kan mein sanya sanya ki awaz, chehre par garad ghubar ka ambar pareshan, badahwas; kintu us ganw mein jyon hi meri jeep ghusi, main ek khas qim ki bhawna se abhibhut ho gaya
ye raziya ka ganw hai yahan raziya rahti thi kintu kya aaj main yahan ye bhi poochh sakta hoon ki yahan koi raziya nam ki chuDiharin rahti thi, ya hai? hasan ka nam lene mein bhi sharm lagti thi main wahan neta bankar gaya tha, meri jay jaykar ho rahi thi kuch log mujhe ghere khaDe the jiske darwaze par jakar pan khaunga, wo apne ko baDbhagi samjhega jisse do baten kar lunga, wo swayan charcha ka ek wishay ban jayega is samay mujhe kuch unchai par hi rahna chahiye
jeep se utarkar logon se baten kar raha tha, ya yoon kahiye ki kalpana ke pahaD par khaDe hokar ek aane wale swarn yug ka sandesh logon ko suna raha tha, kintu dimagh mein kuch gutthiyan uljhi theen jeebh abhyasawash ek kaam kiye ja rahi thi, antarman kuch dusra hi tana bana bun raha tha donon mein koi taratamy na tha; kintu ismen se kisi ek ki gati mein bhi kya badha Dali ja sakti thee?
ki achanak lo, ye kya? wo raziya chali aa rahi hai! raziya! wo bachchi, are, raziya phir bachchi ho gai? kanon mein we hi baliyan, gore chehre par we hi nili ankhen, wahi bharbanh ki qamiz, we hi kuch laten, jinhen sambhalti baDhi aa rahi hai beech mein chalis paintalis sal ka wyawdhan! are, main sapna to nahin dekh raha? din mein sapna! wo aati hai, jabran aisi bheeD mein ghuskar mere nikat pahunchti hain, salam karti hain aur mera hath pakaDkar kahti hai, chaliye malik, mere ghar
main bhauchakka, kuch soojh nahin raha, kuch samajh mein nahin aa raha! log muskura rahe hain netaji, aaj apaki kali khulkar rahi! nahin, ye sapna hai! ki kanon mein sunai paDa, koi kah raha hai—kaisi shokh laDki! aur dusra bola—thik apni dadi jaisi! aur tisre ne mere hosh ki dawa di—yah raziya ki poti hai, babu! bechari bimar paDi hai apaki charcha aksar kiya karti hai baDi tariph` karti hai babu, phursat ho to zara dekh lijiye, na jane bechari jiti hai ya
main raziya ke angan mein khaDa hoon ye chhote chhote saf suthre ghar, ye lipa puta chikkan Dhur Dhur angan! bhari puri grihasthi—mehnat aur dayanat ki den hasan chal bsa hai, kintu apne pichhe teen hasan chhoD gaya hai baDa beta kalkatta kamata hai, manjhala pushtaini peshe mein laga hai, chhota shahr mein paDh raha hai ye bachchi baDe bete ki beti dada ka sir pote mein, dadi ka chehra poti mein bahu raziya! ye dusri raziya meri ungli pakDe pukar rahi hai—dadi, o dadi! ghar se nikal malik dada aa gaye! kintu pahli wo raziya nikal nahin rahin kaise nikle? bimari ke maile kuchaile kapDe mein mere samne kaise aawe?
raziya ne apni poti ko bhej diya, kintu use wishwas na hua ki hawagaDi par anewale neta ab uske ghar tak aane ki taklif kar sakenge? aur, jab suna, main aa raha hoon to bahuon se kaha—zara mere kapDe to badalwa do—malik se kitne dinon par bhent ho rahi hai n!
uski donon patohuen use sahara dekar angan mein le i raziya—han, mere samne raziya khaDi thi dubli patli, rukhi sukhi kintu jab nazdik aakar usne malik, salam kaha, uske chehre se ek kshan ke liye jhurriyan kahan chali gai, jinhonne uske chehre ko makaDjala bana rakha tha mainne dekha, uska chehra achanak bijli ke bulb ki tarah chamak utha aur chamak uthin we nili ankhen, jo kotron mein dhans gai theen! aur, are chamak uthi hain aaj phir we chandi ki baliyan aur dekho, apne ko pawitra kar lo! uske chehre par phir achanak latakkar chamak rahi hain we laten, jinhen samay ne dho ponchhkar shubh shwet bana diya hai
kanon mein chandi ki baliyan, gale mein chandi ka haikal, hathon mein chandi ke kangan aur pairon mein chandi ki goDai—bharbanh ki butedar qamiz pahne, kali saDi ke chhor ko gale mein lapete, gore chehre par latakte hue kuch balon ko sambhalne mein pareshan wo chhoti si laDki jo us din mere samne aakar khaDi ho gai thi—apne bachpan ki us raziya ki smriti taza ho uthi, jab main abhi us din achanak uske ganw mein ja pahuncha
han, ye mere bachpan ki baat hai main qasaikhane se rassi tuDakar bhage hue bachhDe ki tarah uchhalta hua abhi abhi school se aaya tha aur baramde ki chauki par apna basta slet patakkar mausi se chhath mein pake thekue lekar use kutar kutar kar khata hua Dhenki par jhula jhulne ka maza pura karna chah raha tha ki udhar se awaz i—dekhana, babua ka khana chhu mat dena aur usi awaz ke sath mainne dekha, ye ajib roop rang ki laDki mujhse do teen gaz aage khaDi ho gai
mere liye ye roop rang sachmuch ajib tha theth hinduon ki basti hai meri aur mujhe maile petiye mein bhi adhik nahin jane diya jata kyonki suna hai, bachpan mein main ek mele mein kho gaya tha mujhe koi aughaD liye ja raha tha ki ganw ki ek laDki ki nazar paDi aur mera uddhaar hua main man bap ka iklauta—man chal basi theen isliye unki is ekmatr dharohar ko mausi ankhon mein jugokar rakhti mere ganw mein bhi laDkiyon ki kami nahin; kintu na unki ye wesh bhusha, na ye roop rang mere ganw ki laDkiyan kanon mein baliyan kahan Dalti aur bharbanh ki qamiz pahne bhi unhen kabhi nahin dekha aur gore chehre to mile hain, kintu iski ankhon mein jo ek ajib qim ka nilapan dikhta, wo kahan? aur, samuche chehre ki kat bhi kuch nirali zarur tabhi to main use ektak ghurne laga
ye boli thi raziya ki man, jise praya hi apne ganw mein chuDiyon ki khanchiya lekar aate dekhta aaya tha wo mere angan mein chuDiyon ka bazar pasarkar baithi theen aur kitni bahu betiyan use ghere hui theen munh se bhaw saw karti aur hath se kharidaron ke hath mein chuDiyan chaDhati wo saude pataye ja rahi thi ab tak use akele hi aate jate dekha tha; han, kabhi kabhi uske pichhe koi mard hota jo chuDiyon ki khanchi Dhota ye bachchi aaj pahli bar i thi aur na jane kis baal sulabh utsukta ne use meri or kheench liya tha shayad wo ye bhi nahin janti thi ki kisi ke hath ka khana kisi ke nikat pahunchne se hi chhu jata hai man jab achanak cheekh uthi, wo thithki sahmi—uske pair to wahin bandh gaye kintu is thithak ne use mere bahut nikat la diya, ismen sandeh nahin
meri mausi jhat uthi, ghar mein gai aur do thekue aur ek kasar lekar uske hathon mein rakh diye wo leti nahin thi, kintu apni man ke agrah par hath mein rakh to liya, kintu munh se nahin lagaya! mainne kaha—khao! kya tumhare gharon mein se sab nahin bante? chhath ka wart nahin hota? kitne parashn—kintu sabka jawab na mein hi aur wo bhi munh se nahin, zara sa gardan hilakar aur gardan hilate hi chehre par gire baal ki jo laten hil hil uthti, wo unhen pareshani se sambhalne lagti
jab uski man nai kharidarinon ki talash mein mere angan se chali, raziya bhi uske pichhe ho lo mein khakar, munh dhokar ab uske nikat tha aur jab wo chali, jaise uski Dor mein bandha thoDi door tak ghisatta gaya shayad meri bhawukta dekhkar hi chuDiharinon ke munh par khelne wali ajastr hansi aur chuhal mein hi uski man boli—babuaji, raziya se byah kijiyega? phir beti ki aur mukhatib hoti muskurahat mein kaha—kyon re raziya, ye dulha tumhein pasand hai? uska ye kahna ki main muDkar bhaga byah? ek musalmanin se? ab raziya ki man thatha rahi thi aur raziya simatkar uske pairon mein lipti thi, kuch door nikal jane par mainne muDkar dekha
raziya, chuDiharin! wo isi ganw ki rahnewali thi bachpan mein isi ganw mein rahi aur jawani mein bhi kyonki musalmanon ki ganw mein bhi shadi ho jati hai n! aur ye achchha hua—kyonki bahut dinon tak prayah usse apne ganw mein hi bhent ho jaya karti thi
main paDhte paDhte baDhta gaya paDhne ke liye shahron mein jana paDa chhuttiyon mein jab tab aata idhar raziya paDh to nahin saki, han, baDhne mein mujhse pichhe nahin rahi kuch dinon tak apni man ke pichhe pichhe ghumti phiri abhi uske sir par chuDiyon ki khanchiya to nahin paDi, kintu kharidarinon ke hathon mein chuDiyan pahnane ki kala wo jaan gai thi uske hath mulayam hain, bahut mulayam nai bahuon ki yahi ray thi we usi ke hath se chuDiyan pahanna pasand kartin uski man isse prasann hi hui—jab tak raziya chuDiyan pahnati, wo nai nai kharidarinen phansati
raziya baDhti gai jab jab bhent hoti, main pata, uske sharir mein nae nae wikas ho rahe hain; sharir mein aur swbhaw mein bhi pahli bhent ke baad paya tha, wo kuch pragalbh ho gai hai mujhe dekhte hi dauDkar nikat aa jati, parashn par parashn puchhti ajib atapte parashn! dekhiye to ye nai baliyan aapko pasand hain? kya shahron mein aisi hi baliyan pahni jati hain? meri man shahr se chuDiyan lati hai, mainne kaha hai, wo is bar mujhe bhi le chalen aap kis taraf rahte hain wahan? kya bhent ho sakegi? wo bake jati, main sunta jata! shayad jawab ki zarurat ye bhi nahin mahsus karti
phir kuch dinon ke baad paya, wo ab kuch sakucha rahi hai mere nikat aane ke pahle wo idhar udhar dekhti aur jab kuch baten karti to aisi chaukanni si ki koi dekh na le, sun na le ek din jab wo isi tarah baten kar rahi thi ki meri bhauji ne kaha—dekhiyo ri raziya babuaji ko phusla nahin lijiyo wo unki aur dekhkar hans to paDi, kintu mainne paya, uske donon gal lal ho gaye hain aur un nili ankhon ke kone mujhe sajal se lage mainne tab se dhyan diya, jab hum log kahin milte hain, bahut si ankhen hum par bhalon ki nauk tane rahti hain
raziya baDhti gai, bachchon se kishori hui aur ab jawani ke phool uske sharir par khilne lage hain ab bhi wo man ke sath hi aati hai; kintu pahle wo man ki ek chhaya matr lagti thi, ab uska swatantr astitw hai aur uski chhaya banne ke liye kitnon ke dilon mein kasamsahat hai jab wo bahnon ko chuDiyan pahnati hoti hai, kitne bhai tamasha dekhne ko wahan ekatr ho jate hain kya? bahnon ke prati atribhaw ya raziya ke prati agyat akarshan unhen kheench lata hai? jab wo bahuon ke hathon mein chuDiyan thelti hoti hai, patidew door khaDe kanakhiyon se dekhte rahte hain kya? apni nawoDha ki komal kalaiyon par koDa karti hui raziya ki patli ungliyon ko! aur, raziya ko ismen ras milta hai patiyon se chuhle karne se bhi wo baz nahin ati—babu baDi muhin chuDiyan hain! zara dekhiyega, kahin chatak na jayen! patidew bhagte hain, bahuwen khilkhilati hain raziya thattha lagati hai ab wo apne peshe mein nipun hoti jati hai
han, raziya apne peshe mein bhi nipun hoti jati thi chuDiharin ke peshe ke liye sirf yahi nahin chahiye ki uske pas rang birangi chuDiyan hon—sasti, tikau, tatke se tatke fashion ki balki ye pesha chuDiyon ke sath chuDiharinon mein banaw shringar roop rang, naz o ada bhi khojta hai, jo chuDi pahannewaliyon ko hi nahin, unko bhi moh sake, jinki jeb se chuDiyon ke liye paise nikalte hain saphal chuDiharin ye raziya ki man bhi kisi zamane mein kya kuch kam rahi hogi! khanDhar kahta hai, imarat shanadar thee!
jyon jyon shahr mein rahna baDhta gaya, raziya se bhent bhi durlabh hoti gai aur ek din wo bhi aaya, jab bahut dinon par use apne ganw mein dekha paya, uske pichhe ek naujawan chuDiyon ki khanchi sir par liye hai mujhe dekhte hi wo sahmi, sikuDi aur mainne man liya, ye uska pati hai kintu to bhi anjan sa poochh hi liya—is jamure ko kahan se utha lai hai re? isi se puchhiye, sath lag gaya to kya karun? naujawan muskuraya, raziya bhi hansi, boli ye mera khawind hai, malik!
khawind! bachpan ki us pahli mulaqat mein uski man ne dillgi dillgi mein jo kah diya tha, na jane, wo baat kahan soi paDi thee! achanak wo jagi aur meri peshani par us din shikan zarur uth aaye honge, mera wishwas hai aur ek din wo bhi aaya ki main bhi khawind bana! meri rani ko suhag ki chuDiyan pahnane us din yahi raziya i, aur us din mere angan mein kitni dhoom machai is natkhat ne ye lungi wo lungi aur ye munhmangi chizen nahin milin to wo lungi ki dulhan tapati rah jayengi! hat hat, tu babuaji ko le jayegi to phir tumhara ye hasan kya karega? bhauji ne kaha ye bhi tapta rahega bahuriya, kahkar raziya thattha markar hansi aur dauDkar hasan se lipat gai oho, mere raja, kuch dusra na samajhna hasan bhi hans paDa raziya apni premaktha sunane lagi kis tarah ye hasan uske pichhe paDa, kis tarah jhanjhten ain, phir kis tarah shadi hui aur wo aaj bhi kis tarah chhaya sa uske pichhe ghumta hai na jane kaun sa Dar laga rahta hai ise? aur phir, meri rani ki kalai pakaDkar boli—malik bhi tumhare pichhe isi tarah chhaya ki tarah Dolte rahen, dulhan! sara angan hansi se bhar gaya tha aur us hansi mein raziya ke kanon ki baliyon ne ajib chamak bhar di thi, mujhe aisa hi laga tha
jiwan ka rath khuradre path par baDhta gaya mera bhi raziya ka bhi iska pata us din chala, jab bahut dinon par usse achanak patna mein bhent ho gai ye achanak bhent to thee; kintu kya ise bhent kaha jaye?
main ab ziyadatar ghar se door door hi rahta kabhi ekadh din ke liye ghar gaya to sham ko gaya, subah bhaga tarah tarah ki zimmedariyan tarah tarah ke janjal! in dinon patna mein tha, yoon kahiye, patna city mein ek chhote se akhbar mein tha—pir bawarchi bhishti ki tarah! yo jo log samajhte ki main sanpadak hi hoon un dinon na itne akhbar the, na itne sanpadak isliye meri baDi qadar hai, ye main tab janta jab kabhi daftar se nikalta dekhta, log meri or ungli uthakar phusphusa rahe hain logon ka mujh par ye dhyan—mujhe hamesha apni pad pratishtha ka khayal rakhna paDta
ek din main chauk ke ek prasiddh panwale ki dukan par pan kha raha tha mere sath mere kuch prashansak yuwak the ek do buzurg bhi aakar khaDe ho gaye hum pan kha rahe the aur kuch chuhlen chal rahi theen ki ek bachcha aaya aur bola, babu, wo aurat aapko bula rahi hai
aurat! bula rahi hai? chauk par! main chaunk paDa yuwkon mein thoDi halchal, buzugon ke chehron par ki rahasyamyi muskan bhi mujhse chhipi nahin rahi aurat! kaun? mere chehre par ghussa tha, wo laDka sitapitakar bhag gaya
pan khakar jab log idhar udhar chale gaye, achanak pata hoon, mere pair usi aur uth rahe hain, jis aur us bachche ne ungli se ishara kiya tha thoDi door aage baDhne par pichhe dekha, parichiton mein se koi dekh to nahin raha hai kintu is chauk ki sham ki rumani fi mein kisi ko kisi ki or dekhne ki kahan fursat! main aage baDhta gaya aur wahan pahuncha, jahan usse purab wo pipal ka peD hai wahan pahunch hi raha tha ki dekha, peD ke niche chabutre ki taraf se ek istri baDhi aa rahi hai aur nikat pahunchakar ye kah uthi salam malik!
dhakka sa laga, kintu pahchante der nahin lagi—usne jyon hi sir uthaya, chandi ki baliyan jo chamak uthin!
raziya! yahan kaise? mere munh se nikal paDa
sauda sulaph karne i hoon, malik! ab to nae qim ke log ho gaye n? ab lakh ki chuDiyan kahan kisi ko bhati hain nae log, nai chuDiyan! saj singar ki kuch aur chizen bhi le jati hun—pauDar, kilap, kya kya chizen hain na naya zamana, dulahnon ke nae nae mijaj!’
phir zara sa rukkar boli, suna tha, aap yahan rahte hain, malika mein to aksar aaya karti hoon ’
aur ye jab tak puchhen ki akeli ho ya ki ek adhawyask adami ne aakar salam kiya ye hasan tha lambi lambi daDhiyan, panch hath ka lamba adami, lamba aur mustanda bhi dekhiye malik, ye aaj bhi mera pichha nahin chhoDta! ye kahkar raziya hans paDi ab raziya wo nahin thi, kintu uski hansi nahin thi wahi hansi, wahi chuhal! idhar udhar ki bahut si baten karti rahi aur na jane kab tak jari rakhti ki mujhe yaad aaya, main kahan khaDa hoon aur ab main kaun hoon koi dekh le to?
kintu wo fursat de tab n! jab mainne jane ki baat ki, hasan ki or dekhkar boli, kya dekhte ho, zara pan bhi to malik ko khilao kitni bar humach humachkar bharpet thoons chuke ho babu ke ghar
jab hasan pan lane chala gaya, raziya ne bataya ki kis tarah duniya badal gai hai ab to aise bhi ganw hain, jahan ke hindu musalmanon ke hath se saude bhi nahin kharidte ab hindu chuDiharine hain, hindu darzi hain isliye raziya jaise khandani peshewalon ko baDi diqqat ho gai hai kintu, raziya ne ye khushakhabri sunai—mere ganw mein ye pagalpan nahin, aur meri rani to siwa raziya ke kisi dusre ke hath se chuDiyan leti hi nahin
hasan ka laya pan khakar jab main chalne ko taiyar hua, wo puchhne lagi, tumhara Dera kahan hai? main baDe pashopesh mein paDa Dariye mat malik, akele nahin aungi, ye bhi rahega kyon mere raja? ye kahkar wo hasan se lipat paDi pagli, pagli, ye shahr hai, shahr! yoon hasan ne hanste hue bah chhuDai aur bola, babu, baal bachchonwali ho gai, kintu iska bachpana nahin gaya
aur dusre din pata hoon, raziya mere Dere par hazir hai! malik, ye chuDiyan rani ke liye kahkar mere hathon mein chuDiyan rakh di
mainne kaha, tum to ghar par jati hi ho, leto jao, wahin de dena
nahin malik, ek bar apne hath se bhi pinhakar dekhiye! kah khilkhila paDi aur jab mainne kaha, ab is umr mein? to wo hasan ki or dekhkar boli, puchhiye isse aaj tak mujhe yahi chuDiyan pinhata hai ya nahin? aur, jab hasan kuch sharmaya, wo boli, ghagh hai malik, ghagh! kaisa munh bana raha hai is samay! lekin jab hath mein hath leta hai, thathakar hans paDi, itne zor se ki main chaunkkar charon taraf dekhne laga
han, to achanak us din uske ganw mein pahunch gaya chunaw ka chakkar—jahan na le jaye, jis aughat ghat par na khaDa kar den! nak mein petrol ke dhuen ki gandh, kan mein sanya sanya ki awaz, chehre par garad ghubar ka ambar pareshan, badahwas; kintu us ganw mein jyon hi meri jeep ghusi, main ek khas qim ki bhawna se abhibhut ho gaya
ye raziya ka ganw hai yahan raziya rahti thi kintu kya aaj main yahan ye bhi poochh sakta hoon ki yahan koi raziya nam ki chuDiharin rahti thi, ya hai? hasan ka nam lene mein bhi sharm lagti thi main wahan neta bankar gaya tha, meri jay jaykar ho rahi thi kuch log mujhe ghere khaDe the jiske darwaze par jakar pan khaunga, wo apne ko baDbhagi samjhega jisse do baten kar lunga, wo swayan charcha ka ek wishay ban jayega is samay mujhe kuch unchai par hi rahna chahiye
jeep se utarkar logon se baten kar raha tha, ya yoon kahiye ki kalpana ke pahaD par khaDe hokar ek aane wale swarn yug ka sandesh logon ko suna raha tha, kintu dimagh mein kuch gutthiyan uljhi theen jeebh abhyasawash ek kaam kiye ja rahi thi, antarman kuch dusra hi tana bana bun raha tha donon mein koi taratamy na tha; kintu ismen se kisi ek ki gati mein bhi kya badha Dali ja sakti thee?
ki achanak lo, ye kya? wo raziya chali aa rahi hai! raziya! wo bachchi, are, raziya phir bachchi ho gai? kanon mein we hi baliyan, gore chehre par we hi nili ankhen, wahi bharbanh ki qamiz, we hi kuch laten, jinhen sambhalti baDhi aa rahi hai beech mein chalis paintalis sal ka wyawdhan! are, main sapna to nahin dekh raha? din mein sapna! wo aati hai, jabran aisi bheeD mein ghuskar mere nikat pahunchti hain, salam karti hain aur mera hath pakaDkar kahti hai, chaliye malik, mere ghar
main bhauchakka, kuch soojh nahin raha, kuch samajh mein nahin aa raha! log muskura rahe hain netaji, aaj apaki kali khulkar rahi! nahin, ye sapna hai! ki kanon mein sunai paDa, koi kah raha hai—kaisi shokh laDki! aur dusra bola—thik apni dadi jaisi! aur tisre ne mere hosh ki dawa di—yah raziya ki poti hai, babu! bechari bimar paDi hai apaki charcha aksar kiya karti hai baDi tariph` karti hai babu, phursat ho to zara dekh lijiye, na jane bechari jiti hai ya
main raziya ke angan mein khaDa hoon ye chhote chhote saf suthre ghar, ye lipa puta chikkan Dhur Dhur angan! bhari puri grihasthi—mehnat aur dayanat ki den hasan chal bsa hai, kintu apne pichhe teen hasan chhoD gaya hai baDa beta kalkatta kamata hai, manjhala pushtaini peshe mein laga hai, chhota shahr mein paDh raha hai ye bachchi baDe bete ki beti dada ka sir pote mein, dadi ka chehra poti mein bahu raziya! ye dusri raziya meri ungli pakDe pukar rahi hai—dadi, o dadi! ghar se nikal malik dada aa gaye! kintu pahli wo raziya nikal nahin rahin kaise nikle? bimari ke maile kuchaile kapDe mein mere samne kaise aawe?
raziya ne apni poti ko bhej diya, kintu use wishwas na hua ki hawagaDi par anewale neta ab uske ghar tak aane ki taklif kar sakenge? aur, jab suna, main aa raha hoon to bahuon se kaha—zara mere kapDe to badalwa do—malik se kitne dinon par bhent ho rahi hai n!
uski donon patohuen use sahara dekar angan mein le i raziya—han, mere samne raziya khaDi thi dubli patli, rukhi sukhi kintu jab nazdik aakar usne malik, salam kaha, uske chehre se ek kshan ke liye jhurriyan kahan chali gai, jinhonne uske chehre ko makaDjala bana rakha tha mainne dekha, uska chehra achanak bijli ke bulb ki tarah chamak utha aur chamak uthin we nili ankhen, jo kotron mein dhans gai theen! aur, are chamak uthi hain aaj phir we chandi ki baliyan aur dekho, apne ko pawitra kar lo! uske chehre par phir achanak latakkar chamak rahi hain we laten, jinhen samay ne dho ponchhkar shubh shwet bana diya hai
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।