प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा दसवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
बालगोबिन भगत मँझोले क़द के गोरे-चिट्टे आदमी थे। साठ से ऊपर के ही होंगे। बाल पक गए थे। लंबी दाढ़ी या जटाजूट तो नहीं रखते थे, किंतु हमेशा उनका चेहरा सफ़ेद बालों से ही जगमग किए रहता। कपड़े बिलकुल कम पहनते। कमर में एक लँगोटी-मात्र और सिर में कबीरपंथियों की-सी कनफटी टोपी। जब जाड़ा आता, एक काली कमली ऊपर से ओढ़े रहते। मस्तक पर हमेशा चमकता हुआ रामानंदी चंदन, जो नाक के एक छोर से ही, औरतों के टीके की तरह, शुरू होता। गले में तुलसी की जड़ों की एक बेडौल माला बाँधे रहते।
ऊपर की तसवीर से यह नहीं माना जाए कि बालगोबिन भगत साधु थे। नहीं, बिलकुल गृहस्थ! उनकी गृहिणी की तो मुझे याद नहीं, उनके बेटे और पतोहू को तो मैंने देखा था। थोड़ी खेतीबारी भी थी, एक अच्छा साफ़-सुधरा मकान भी था।
किंतु, खेतीबारी करते, परिवार रखते भी, बालगोबिन भगत साधु थे—साधु की सब परिभाषाओं में खरे उतरने वाले। कबीर को 'साहब' मानते थे, उन्हीं के गीतों को गाते, उन्हीं के आदेशों पर चलते। कभी झूठ नहीं बोलते, खरा व्यवहार रखते। किसी से भी दो-टूक बात करने में संकोच नहीं करते, न किसी से ख़ामख़ाह झगड़ा मोल लेते। किसी की चीज़ नहीं छूते, न बिना पूछे व्यवहार में लाते। इस नियम को कभी-कभी इतनी बारीकी तक ले जाते कि लोगों को कुतूहल होता!—कभी वह दूसरे के खेत में शौच के लिए भी नहीं बैठते! वह गृहस्थ थे; लेकिन उनकी सब चीज़ 'साहब' की थी। जो कुछ खेत में पैदा होता, सिर पर लादकर पहले उसे साहब के दरबार में ले जाते—जो उनके घर से चार कोस दूर पर था—एक कबीरपंथी मठ से मतलब! वह दरबार में 'भेट' रूप रख लिया जाकर 'प्रसाद' रूप में जो उन्हें मिलता, उसे घर लाते और उसी से गुज़र चलाते!
इन सबके ऊपर, मैं तो मुग्ध था उनके मधुर गान पर—जो सदा-सर्वदा ही सुनने को मिलते। कबीर के वे सीधे-सादे पद, जो उनके कंठ से निकलकर सजीव हो उठते।
आसाढ़ की रिमझिम है। समूचा गाँव खेतों में उतर पड़ा है। कहीं हल चल रहे हैं; कहीं रोपनी हो रही है। धान के पानी-भरे खेतों में बच्चे उछल रहे हैं। औरत कलेवा लेकर मेंड़ पर बैठी हैं। आसमान बादल से घिरा; धूप का नाम नहीं। ठंडी पुरवाई चल रही। ऐसे ही समय आपके कानों में एक स्वर-तरंग झंकार-सी कर उठी। यह क्या है—यह कौन है! यह पूछना न पड़ेगा। बालगोबिन भगत समूचा शरीर कीचड़ में लिथड़े, अपने खेत में रोपनी कर रहे हैं। उनकी अँगुली एक-एक धान के पौधे को पंक्तिबद्ध, खेत में बिठा रही है। उनका कंठ एक-एक शब्द को संगीत के ज़ीने पर चढ़ाकर कुछ को ऊपर, स्वर्ग की ओर भेज रहा है और कुछ को इस पृथ्वी की मिट्टी पर खड़े लोगों के कानों की ओर! बच्चे खेलते हुए झूम उठते हैं; मेंड़ पर खड़ी औरतों के होंठ काँप उठते हैं, वे गुनगुनाने लगती हैं; हलवाहों के पैर ताल से उठने लगते हैं; रोपनी करने वालों की अँगुलियाँ एक अजीब क्रम से चलने लगती हैं! बालगोबिन भगत का यह संगीत है या जादू!
भादों की वह अँधेरी अधरतिया। अभी, थोड़ी ही देर पहले मुसलधार वर्षा ख़त्म हुई है। बादलों की गरज, बिजली की तड़प में आपने कुछ नहीं सुना हो, किंतु अब झिल्ली की झंकार या दादुरों की टर्र-टर्र बालगोबिन भगत के संगीत को अपने कोलाहल में डुबो नहीं सकतीं। उनकी खँजडी डिमक-डिमक बज रही है और वे गा रहे हैं—गोदी में पियवा, चमक उठे सखिया, चिहुँक उठे ना! हाँ, पिया तो गोद में ही है, किंतु वह समझती है, वह अकेली है, चमक उठती है, चिहुँक उठती है। उसी भरे-बादलों वाले भादो की आधी रात में उनका यह गाना अँधेरे में अकस्मात कौंध उठने वाली बिजली की तरह हर किसे को चौंका देता? अरे, अब सारा संसार निस्तब्धता में सोया है, बालगोबिन भगत का संगीत जाग रहा है! जगा रहा है!—तेरी गठरी में लागा चोर, मुसाफ़िर जाग ज़रा!
कातिक आया नहीं कि बालगोबिन भगत की प्रभातियाँ शुरू हुई, जो फागुन तक चला करतीं। इन दिनों वह सबेरे ही उठते। न जाने किस वक़्त जगकर वह नदी-स्नान को जाते गाँव से दो मील दूर! वहाँ से नहा-धोकर लौटते और गाँव के बाहर ही, पोखरे के ऊँचे भिंडे पर, अपनी खँजड़ी लेकर जा बैठते और अपने गाने टेरने लगते। मैं शुरू से ही देर तक सोनेवाला हूँ, किंतु, एक दिन, माघ की उस दाँत किटकिटाने वाली भोर में भी उनका संगीत मुझे पोखरे पर ले गया था। अभी आसमान के तारों के दीपक बुझे नहीं थे। हाँ, पूरब में लोही लग गई थी जिसकी लालिमा को शुक्र तारा और बढ़ा रहा था। खेत, बग़ीचा, घर—सब पर कुहासा छा रहा था। सारा वातावरण अजीब रहस्य से आवृत मालूम पड़ता था। उस रहस्यमय वातावरण में एक कुश की चटाई पर पूरब मुँह, काली कमली ओढ़े, बालगोबिन भगत अपनी खँजड़ी लिए बैठे थे। उनके मुँह से शब्दों का ताँता लगा था, उनकी अँगुलियाँ खँजड़ी पर लगातार चल रही थीं। गाते-गाते इतने मस्त हो जाते, इतने सुरूर में आते, उत्तेजित हो उठते कि मालूम होता, अब खड़े हो जाएँगे। कमली तो बार-बार सिर से नीचे सरक जाती। मैं जाड़े से कँपकँपा रहा था, किंतु तारे की छाँव में भी उनके मस्तक के श्रमबिंदु, जब-तब चमक ही पड़ते।
गर्मियों में उनकी 'संझा' कितनी उमसभरी शाम को न शीतल करती! अपने घर के आँगन में आसन जमा बैठते। गाँव के उनके कुछ प्रेमी भी जुट जाते। खँजड़ियों और करतालों की भरमार हो जाती। एक पद बालगोबिन भगत कह जाते, उनकी प्रेमी मंडली उसे दुहराती, तिहराती। धीरे-धीरे स्वर ऊँचा होने लगता—एक निश्चित ताल, एक निश्चित गति से। उस ताल-स्वर के चढ़ाव के साथ श्रोताओं के मन भी ऊपर उठने लगते। धीरे-धीरे मन-तन पर हावी हो जाता। होते-होते, एक क्षण ऐसा आता कि बीच में खँजड़ी लिए बालगोबिन भगत नाच रहे हैं और उनके साथ ही सबके तन और मन नृत्यशील हो उठे हैं। सारा आँगन नृत्य और संगीत से ओतप्रोत है!
बालगोबिन भगत की संगीत-साधना का चरम उत्कर्ष उस दिन देखा गया जिस दिन उनका बेटा मरा। इकलौता बेटा था वह! कुछ सुस्त और बोदा-सा था, किंतु इसी कारण बालगोबिन भगत उसे और भी मानते। उनकी समझ में ऐसे आदमियों पर ही ज़्यादा नज़र रखनी चाहिए या प्यार करना चाहिए, क्योंकि ये निगरानी और मुहब्बत के ज़्यादा हक़दार होते हैं। बड़ी साध से उसकी शादी कराई थी, पतोहू बड़ी ही सुभग और सुशील मिली थी। घर की पूरी प्रबंधिका बनकर भगत को बहुत कुछ दुनियादारी से निवृत्त कर दिया था उसने। उनका बेटा बीमार है, इसकी ख़बर रखने की लोगों को कहाँ फ़ुरसत! किंतु मौत तो अपनी और सबका ध्यान खींचकर ही रहती है। हमने सुना, बालगोबिन भगत का बेटा मर गया। कुतूहलवश उनके घर गया। देखकर दंग रह गया। बेटे को आँगन में एक चटाई पर लिटाकर एक सफ़ेद कपड़े से ढाँक रखा है। वह कुछ फूल तो हमेशा ही रोपते रहते, उन फूलों में से कुछ तोड़कर उस पर बिखरा दिए हैं; फूल और तुलसीदल भी। सिरहाने एक चिराग़ जला रखा है। और, उसके सामने ज़मीन पर ही आसन जमाए गीत गाए चले जा रहे हैं! वही पुराना स्वर, वही पुरानी तल्लीनता। घर में पतोहू रो रही है जिसे गाँव की स्त्रियाँ चुप कराने की कोशिश कर रही हैं। किंतु, बालगोबिन भगत गाए जा रहे हैं! हाँ, गाते-गाते कभी-कभी पतोहू के नज़दीक भी जाते और उसे रोने के बदले उत्सव मनाने को कहते। आत्मा परमात्मा के पास चली गई, विरहिनी अपने प्रेमी से जा मिली, भला इससे बढ़कर आनंद की कौन बात? मैं कभी-कभी सोचता, यह पागल तो नहीं हो गए। किंतु नहीं, वह जो कुछ कह रहे थे उसमें उनका विश्वास बोल रहा था—वह चरम विश्वास जो हमेशा ही मृत्यु पर विजयी होता आया है।
बेटे के क्रिया-कर्म में तूल नहीं किया; पतोहू से ही आग दिलाई उसकी। किंतु ज्योंही श्राद्ध की अवधि पूरी हो गई, पतोहू के भाई को बुलाकर उसके साथ कर दिया, यह आदेश देते हुए कि इसकी दूसरी शादी कर देना। इधर पतोहू रो-रोकर कहती मैं चली जाऊँगी तो बुढ़ापे में कौन आपके लिए भोजन बनाएगा, बीमार पड़े, तो कौन एक चुल्लू पानी भी देगा? मैं पैर पड़ती हूँ, मुझे अपने चरणों से अलग नहीं कीजिए! लेकिन भगत का निर्णय अटल था। तू जा, नहीं तो मैं ही इस घर को छोड़कर चल दूँगा—यह थी उनकी आख़िरी दलील और इस दलील के आगे बेचारी की क्या चलती?
बालगोबिन भगत की मौत उन्हीं के अनुरूप हुई। वह हर वर्ष गंगा-स्नान करने जाते। स्नान पर उतनी आस्था नहीं रखते, जितना संत-समागम और लोक-दर्शन पर। पैदल ही जाते। क़रीब तीस कोस पर गंगा थी। साधु को संबल लेने का क्या हक़? और, गृहस्थ किसी से भिक्षा क्यों माँगे? अतः, घर से खाकर चलते तो फिर घर पर ही लौटकर खाते। रास्ते भर खँजड़ी बजाते, गाते जहाँ प्यास लगती, पानी पी लेते। चार-पाँच दिन आने-जाने में लगते; किंतु इस लंबे उपवास में भी वही मस्ती! अब बुढ़ापा आ गया था, किंतु टेक वही जवानी वाली। इस बार लौटे तो तबीयत कुछ सुस्त थी। खाने-पीने के बाद भी तबीयत नहीं सुधरी, थोड़ा बुख़ार आने लगा। किंतु नेम-व्रत तो छोड़ने वाले नहीं थे। वही दोनों जून गीत, स्नानध्यान, खेतीबारी देखना। दिन-दिन छीजने लगे। लोगों ने नहाने-धोने से मना किया, आराम करने को कहा। किंतु, हँसकर टाल देते रहे। उस दिन भी संध्या में गीत गाए, किंतु मालूम होता जैसे तागा टूट गया हो, माला का एक-एक दाना बिखरा हुआ। भोर में लोगों ने गीत नहीं सुना, जाकर देखा तो बालगोबिन भगत नहीं रहे सिर्फ़ उनका पंजर पड़ा है!
balgobin bhagat manjhole qad ke gore chitte adami the. saath se uupar ke hi honge. baal pak ge the. lambi daDhi ya jatajut to nahin rakhte the, kintu hamesha unka chehra safed balon se hi jagmag kiye rahta. kapDe bilkul kam pahante. kamar mein ek langoti maatr aur sir mein kabirpanthiyon ki si kanaphti topi. jab jaDa aata, ek kali kamli uupar se oDhe rahte. mastak par hamesha chamakta hua ramanandi chandan, jo naak ke ek chhor se hi, aurton ke tike ki tarah, shuru hota. gale mein tulsi ki jaDon ki ek beDaul mala bandhe rahte.
uupar ki tasvir se ye nahin mana jaye ki balgobin bhagat sadhu the. nahin, bilkul grihasth! unki grihini ki to mujhe yaad nahin, unke bete aur patohu ko to mainne dekha tha. thoDi khetibari bhi thi, ek achchha saaf sudhra makan bhi tha.
kintu, khetibari karte, parivar rakhte bhi, balgobin bhagat sadhu the—sadhu ki sab paribhashaon mein khare utarne vale. kabir ko sahab mante the, unhin ke giton ko gate, unhin ke adeshon par chalte. kabhi jhooth nahin bolte, khara vyvahar rakhte. kisi se bhi do took baat karne mein sankoch nahin karte, na kisi se khamkhah jhagDa mol lete. kisi ki cheez nahin chhute, na bina puchhe vyvahar mein late. is niyam ko kabhi kabhi itni bariki tak le jate ki logon ko kutuhal hota!—kabhi wo dusre ke khet mein shauch ke liye bhi nahin baithte! wo grihasth the; lekin unki sab cheez sahab ki thi. jo kuch khet mein paida hota, sir par ladkar pahle use sahab ke darbar mein le jate—jo unke ghar se chaar kos door par tha—ek kabirpanthi math se matlab! wo darbar mein bhet roop rakh liya jakar parsad roop mein jo unhen milta, use ghar late aur usi se guzar chalate!
in sabke uupar, main to mugdh tha unke madhur gaan par—jo sada sarvada hi sunne ko milte. kabir ke ve sidhe sade pad, jo unke kanth se nikalkar sajiv ho uthte.
asaDh ki rimjhim hai. samucha gaanv kheton mein utar paDa hai. kahin hal chal rahe hain; kahin ropani ho rahi hai. dhaan ke pani bhare kheton mein bachche uchhal rahe hain. aurat kaleva lekar menD par baithi hain. asman badal se ghira; dhoop ka naam nahin. thanDi purvai chal rahi. aise hi samay aapke kanon mein ek svar tarang jhankar si kar uthi. ye kya hai—yah kaun hai! ye puchhna na paDega. balgobin bhagat samucha sharir kichaD mein lithDe, apne khet mein ropani kar rahe hain. unki anguli ek ek dhaan ke paudhe ko panktibaddh, khet mein bitha rahi hai. unka kanth ek ek shabd ko sangit ke zine par chaDhakar kuch ko uupar, svarg ki or bhej raha hai aur kuch ko is prithvi ki mitti par khaDe logon ke kanon ki or! bachche khelte hue jhoom uthte hain; menD par khaDi aurton ke honth kaanp uthte hain, ve gungunane lagti hain; halvahon ke pair taal se uthne lagte hain; ropani karne valon ki anguliyan ek ajib kram se chalne lagti hain! balgobin bhagat ka ye sangit hai ya jadu!
bhadon ki wo andheri adharatiya. abhi, thoDi hi der pahle musaldhar varsha khatm hui hai. badlon ki garaj, bijli ki taDap mein aapne kuch nahin suna ho, kintu ab jhilli ki jhankar ya daduron ki tarr tarr balgobin bhagat ke sangit ko apne kolahal mein Dubo nahin saktin. unki khanjaDi Dimak Dimak baj rahi hai aur ve ga rahe hain—godi mein piyva, chamak uthe sakhiya, chihunk uthe na! haan, piya to god mein hi hai, kintu wo samajhti hai, wo akeli hai, chamak uthti hai, chihunk uthti hai. usi bhare badlon vale bhado ki aadhi raat mein unka ye gana andhere mein akasmat kaundh uthne vali bijli ki tarah har kise ko chaunka deta? are, ab sara sansar nistabdhata mein soya hai, balgobin bhagat ka sangit jaag raha hai! jaga raha hai!—teri gathri mein laga chor, musafir jaag zara!
katik aaya nahin ki balgobin bhagat ki prbhatiyan shuru hui, jo phagun tak chala kartin. in dinon wo sabere hi uthte. na jane kis vaqt jagkar wo nadi snaan ko jate gaanv se do meel door! vahan se nha dhokar lautte aur gaanv ke bahar hi, pokhre ke uunche bhinDe par, apni khanjaDi lekar ja baithte aur apne gane terne lagte. main shuru se hi der tak sonevala hoon, kintu, ek din, maagh ki us daant kitakitane vali bhor mein bhi unka sangit mujhe pokhre par le gaya tha. abhi asman ke taron ke dipak bujhe nahin the. haan, purab mein lohi lag gai thi jiski lalima ko shukr tara aur baDha raha tha. khet, baghicha, ghar—sab par kuhasa chha raha tha. sara vatavran ajib rahasya se avrit malum paDta tha. us rahasyamay vatavran mein ek kush ki chatai par purab munh, kali kamli oDhe, balgobin bhagat apni khanjaDi liye baithe the. unke munh se shabdon ka tanta laga tha, unki anguliyan khanjaDi par lagatar chal rahi theen. gate gate itne mast ho jate, itne surur mein aate, uttejit ho uthte ki malum hota, ab khaDe ho jayenge. kamli to baar baar sir se niche sarak jati. main jaDe se kanpakanpa raha tha, kintu tare ki chhaanv mein bhi unke mastak ke shrmbindu, jab tab chamak hi paDte.
garmiyon mein unki sanjha kitni umasabhri shaam ko na shital karti! apne ghar ke angan mein aasan jama baithte. gaanv ke unke kuch premi bhi jut jate. khanjDiyon aur kartalon ki bharmar ho jati. ek pad balgobin bhagat kah jate, unki premi manDli use duhrati, tihrati. dhire dhire svar uncha hone lagta—ek nishchit taal, ek nishchit gati se. us taal svar ke chaDhav ke saath shrotaon ke man bhi uupar uthne lagte. dhire dhire man tan par havi ho jata. hote hote, ek kshan aisa aata ki beech mein khanjaDi liye balgobin bhagat naach rahe hain aur unke saath hi sabke tan aur man nrityshil ho uthe hain. sara angan nritya aur sangit se otaprot hai!
balgobin bhagat ki sangit sadhana ka charam utkarsh us din dekha gaya jis din unka beta mara. iklauta beta tha vah! kuch sust aur boda sa tha, kintu isi karan balgobin bhagat use aur bhi mante. unki samajh mein aise adamiyon par hi zyada nazar rakhni chahiye ya pyaar karna chahiye, kyonki ye nigrani aur muhabbat ke zyada haqdar hote hain. baDi saadh se uski shadi karai thi, patohu baDi hi subhag aur sushil mili thi. ghar ki puri prbandhika bankar bhagat ko bahut kuch duniyadari se nivritt kar diya tha usne. unka beta bimar hai, iski khabar rakhne ki logon ko kahan fursat! kintu maut to apni aur sabka dhyaan khinchkar hi rahti hai. hamne suna, balgobin bhagat ka beta mar gaya. kutuhalvash unke ghar gaya. dekhkar dang rah gaya. bete ko angan mein ek chatai par litakar ek safed kapDe se Dhaank rakha hai. wo kuch phool to hamesha hi ropte rahte, un phulon mein se kuch toDkar us par bikhra diye hain; phool aur tulsidal bhi. sirhane ek chiragh jala rakha hai. aur, uske samne zamin par hi aasan jamaye geet gaye chale ja rahe hain! vahi purana svar, vahi purani tallinta. ghar mein patohu ro rahi hai jise gaanv ki striyan chup karane ki koshish kar rahi hain. kintu, balgobin bhagat gaye ja rahe hain! haan, gate gate kabhi kabhi patohu ke nazdik bhi jate aur use rone ke badle utsav manane ko kahte. aatma parmatma ke paas chali gai, virahini apne premi se ja mili, bhala isse baDhkar anand ki kaun baat? main kabhi kabhi sochta, ye pagal to nahin ho ge. kintu nahin, wo jo kuch kah rahe the usmen unka vishvas bol raha tha—vah charam vishvas jo hamesha hi mrityu par vijyi hota aaya hai.
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katik aaya nahin ki balgobin bhagat ki prbhatiyan shuru hui, jo phagun tak chala kartin. in dinon wo sabere hi uthte. na jane kis vaqt jagkar wo nadi snaan ko jate gaanv se do meel door! vahan se nha dhokar lautte aur gaanv ke bahar hi, pokhre ke uunche bhinDe par, apni khanjaDi lekar ja baithte aur apne gane terne lagte. main shuru se hi der tak sonevala hoon, kintu, ek din, maagh ki us daant kitakitane vali bhor mein bhi unka sangit mujhe pokhre par le gaya tha. abhi asman ke taron ke dipak bujhe nahin the. haan, purab mein lohi lag gai thi jiski lalima ko shukr tara aur baDha raha tha. khet, baghicha, ghar—sab par kuhasa chha raha tha. sara vatavran ajib rahasya se avrit malum paDta tha. us rahasyamay vatavran mein ek kush ki chatai par purab munh, kali kamli oDhe, balgobin bhagat apni khanjaDi liye baithe the. unke munh se shabdon ka tanta laga tha, unki anguliyan khanjaDi par lagatar chal rahi theen. gate gate itne mast ho jate, itne surur mein aate, uttejit ho uthte ki malum hota, ab khaDe ho jayenge. kamli to baar baar sir se niche sarak jati. main jaDe se kanpakanpa raha tha, kintu tare ki chhaanv mein bhi unke mastak ke shrmbindu, jab tab chamak hi paDte.
garmiyon mein unki sanjha kitni umasabhri shaam ko na shital karti! apne ghar ke angan mein aasan jama baithte. gaanv ke unke kuch premi bhi jut jate. khanjDiyon aur kartalon ki bharmar ho jati. ek pad balgobin bhagat kah jate, unki premi manDli use duhrati, tihrati. dhire dhire svar uncha hone lagta—ek nishchit taal, ek nishchit gati se. us taal svar ke chaDhav ke saath shrotaon ke man bhi uupar uthne lagte. dhire dhire man tan par havi ho jata. hote hote, ek kshan aisa aata ki beech mein khanjaDi liye balgobin bhagat naach rahe hain aur unke saath hi sabke tan aur man nrityshil ho uthe hain. sara angan nritya aur sangit se otaprot hai!
balgobin bhagat ki sangit sadhana ka charam utkarsh us din dekha gaya jis din unka beta mara. iklauta beta tha vah! kuch sust aur boda sa tha, kintu isi karan balgobin bhagat use aur bhi mante. unki samajh mein aise adamiyon par hi zyada nazar rakhni chahiye ya pyaar karna chahiye, kyonki ye nigrani aur muhabbat ke zyada haqdar hote hain. baDi saadh se uski shadi karai thi, patohu baDi hi subhag aur sushil mili thi. ghar ki puri prbandhika bankar bhagat ko bahut kuch duniyadari se nivritt kar diya tha usne. unka beta bimar hai, iski khabar rakhne ki logon ko kahan fursat! kintu maut to apni aur sabka dhyaan khinchkar hi rahti hai. hamne suna, balgobin bhagat ka beta mar gaya. kutuhalvash unke ghar gaya. dekhkar dang rah gaya. bete ko angan mein ek chatai par litakar ek safed kapDe se Dhaank rakha hai. wo kuch phool to hamesha hi ropte rahte, un phulon mein se kuch toDkar us par bikhra diye hain; phool aur tulsidal bhi. sirhane ek chiragh jala rakha hai. aur, uske samne zamin par hi aasan jamaye geet gaye chale ja rahe hain! vahi purana svar, vahi purani tallinta. ghar mein patohu ro rahi hai jise gaanv ki striyan chup karane ki koshish kar rahi hain. kintu, balgobin bhagat gaye ja rahe hain! haan, gate gate kabhi kabhi patohu ke nazdik bhi jate aur use rone ke badle utsav manane ko kahte. aatma parmatma ke paas chali gai, virahini apne premi se ja mili, bhala isse baDhkar anand ki kaun baat? main kabhi kabhi sochta, ye pagal to nahin ho ge. kintu nahin, wo jo kuch kah rahe the usmen unka vishvas bol raha tha—vah charam vishvas jo hamesha hi mrityu par vijyi hota aaya hai.
bete ke kriya karm mein tool nahin kiya; patohu se hi aag dilai uski. kintu jyonhi shraaddh ki avadhi puri ho gai, patohu ke bhai ko bulakar uske saath kar diya, ye adesh dete hue ki iski dusri shadi kar dena. idhar patohu ro rokar kahti main chali jaungi to buDhape mein kaun aapke liye bhojan banayega, bimar paDe, to kaun ek chullu pani bhi dega? main pair paDti hoon, mujhe apne charnon se alag nahin kijiye! lekin bhagat ka nirnay atal tha. tu ja, nahin to main hi is ghar ko chhoDkar chal dunga—yah thi unki akhiri dalil aur is dalil ke aage bechari ki kya chalti?
balgobin bhagat ki maut unhin ke anurup hui. wo har varsh ganga snaan karne jate. snaan par utni astha nahin rakhte, jitna sant samagam aur lok darshan par. paidal hi jate. qarib tees kos par ganga thi. sadhu ko sambal lene ka kya haq? aur, grihasth kisi se bhiksha kyon mange? atः, ghar se khakar chalte to phir ghar par hi lautkar khate. raste bhar khanjaDi bajate, gate jahan pyaas lagti, pani pi lete. chaar paanch din aane jane mein lagte; kintu is lambe upvaas mein bhi vahi masti! ab buDhapa aa gaya tha, kintu tek vahi javani vali. is baar laute to tabiyat kuch sust thi. khane pine ke baad bhi tabiyat nahin sudhri, thoDa bukhar aane laga. kintu nem vart to chhoDne vale nahin the. vahi donon joon geet, snanadhyan, khetibari dekhana. din din chhijne lage. logon ne nahane dhone se mana kiya, aram karne ko kaha. kintu, hansakar taal dete rahe. us din bhi sandhya mein geet gaye, kintu malum hota jaise taga toot gaya ho, mala ka ek ek dana bikhra hua. bhor mein logon ne geet nahin suna, jakar dekha to balgobin bhagat nahin rahe sirf unka panjar paDa hai!
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।