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मेरी माताजी

meri mataji

सत्यवती मलिक

सत्यवती मलिक

मेरी माताजी

सत्यवती मलिक

और अधिकसत्यवती मलिक

    प्रातःकाल की शांत स्निग्ध वेला में जब मेरी नींद खुलती है, अकस्मात श्रीनगर का वह अपना सफ़ेद कमरा मेरी आँखों के सामने घूम जाता है और कानों में एक अत्यंत मधुर स्वर-ध्वनि। जाड़ों के दिन होते थे। कमरे के बाहर बरांडे में चारों ओर घास की चटाइयाँ बर्फ़ीली हवा को रोकने के लिए लगी होती थीं और कमरा भी चारों ओर गर्म पर्दों से ढका रहता था। बाहर सड़कों, छतों और वृक्षों पर बर्फ़-ही-बर्फ़ पड़ी होती थी, जिसे हम रज़ाई में से खिड़की के उस भाग से, जहाँ पर्दा तनिक हटा होता था, झाँक कर देख लेते थे। चार-पाँच बजे अंगीठी सुलगाते अथवा कमरे में सफ़ाई करते हुए माताजी के गाने की आवाज़ सुनाई देती। हम भाई-बहनों की इच्छा होती कि अभी कुछ देर और बिस्तरों में लेटे रहें, किंतु उसके बाद जब पिताजी भी उसी स्वर में साथ देने लगते तो मैं, भाई जयदेव तथा छोटी बहनें सम्मिलित होकर कमरे के वातावरण को गुँजा देते :

    “किस भरोसे सोएँ रइया हूँ,

    रहणा दो दिन चार बंदे।

    अपना आप पछान बंदे।

    जे तू अपना आप पछाता,

    साई दा मिलणा आसान बंदे।”

    उपरोक्त पंक्तियाँ आज से लगभग चार-पाँच वर्ष पूर्व लिखी गई थीं; लेकिन कैसी विवशता है! काल की गति एवं इसी बीच बहन उर्मिला के आकस्मिक देहावसान ने उस मधुर छवि एवं ध्वनि को धुँधला कर दिया है। फिर बड़ी संतान होने के कारण माताजी के दुःख-सुख में घुले-मिले जीवन के गिने-चुने वर्षों को प्रकाश में लाने के समय अनेक करुण प्रसंगों का घिर आना स्वाभाविक है।

    मामाजी का पत्र देरी से मिलने पर प्रायः माताजी छत की ओर देखते हुए आँसू भर लातीं। हमारी इतनी हँसी ख़ुशी और नाच कूद के क्षणों में कभी-कभी ऐसा गंभीर वातावरण माताजी क्यों ला देती हैं? हमें तनिक भी अच्छा लगता। बाद में जाना कि माताजी का जन्म रावलपिंडी में उनके युवक पिताजी की मृत्यु के तीन-चार मास पश्चात् हुआ था। उनकी युवती माताजी ने पाँच-छ: बच्चों की माँ होकर भी शेष जीवन संन्यासिनियों का-सा ही व्यतीत किया। माताजी तथा अपनी मौसीजी द्वारा सुना हुआ अपनी पूजनीय नानीजी का काल्पनिक चित्र सदा ही मुझे अत्यंत मुग्ध करता रहा है। मीराबाई की तरह वे सदा सच्चे साधु-संतों से घिरी रहतीं; सबको खाना खिलाया जाता; कबीर, दादू, नानक, बुल्लेशाह प्रभृति भक्तों के पदों का कीर्तन सत्संग होता रहता। उनके स्वरचित पद भी माताजी के मुख तथा नानीजी की कई एक शिष्या वृद्धा स्त्रियों से सुनकर स्वर्गीय बहन पुरुषार्थवती ने संग्रह किए थे।

    मेरी मातामही अत्यंत रूपवती थीं। किस प्रकार वे घर के ही कई पुरुषों से अपना सतीत्व बचाए रहीं, इसकी कथा भी माताजी ने मुझे सुनाई थी। एक सुनी हुई बात मुझे उनके संबंध की कभी नहीं भूलती। उनके रूपवान विद्वान् युवा पुत्र का देहांत अकस्मात हो गया। वह कुछ ही दिन पूर्व एक उच्च परीक्षा पास करके आए थे। मृत पुत्र के सिर को प्रायः एक घंटे तक गोदी में डाले वे समाधि में लीन रहीं। उसके बाद मुहल्ले की स्त्रियों को, जो स्यापा आदि करने आई थीं, (क्योंकि उन दिनों स्यापे की भयंकर प्रथा प्रचलित थी।) शांतिपूर्वक उत्तर दिया, “मुझसे अधिक शोक और किसे हो सकता है? स्वयं उस तत्व को जानकर जब मैं शोक प्रकट नहीं कर रही हूँ तो आप लोगों के व्यर्थ रोने-धोने से मृतात्मा को शांति प्राप्त होगी।”

    रावलपिंडी से श्रीनगर जाते हुए मार्ग में एक सुंदर शीतल पड़ाव ‘महरा’ नाम से झेलम के ऐन किनारे पर पड़ता है। प्रायः वहाँ भी घोड़ा-गाड़ी या ताँगे में बैठे-बैठे ऐसे ही माताजी के आँसू झर-झर पड़ते। इतने सुंदर स्थान में विश्राम कर, पावरहाउस को दिखला, कोच वान को वहाँ से शीघ्र ही आगे निकल जाने का आदेश देने पर हमें बेहद शिकायत रहती; किंतु माताजी की आँखें देख कुछ कह सकते। धीरे-धीरे पता चला कि वास्तव में इस पावरहाउस के निर्माण का कार्य (जहाँ से समस्त काश्मीर वेली को बिजली पहुँचती है) मेरे बड़े स्व० मामाजी के द्वारा ही संपन्न हुआ था और माताजी वहीं उनके पास बहुत दिनों रही थीं। काश्मीर की सुंदर विस्तृत उपत्यका में बस जाने का सौभाग्य पिताजी के काश्मीर जाने से संभवतः आधी शताब्दी पूर्व ही माताजी के पूर्वजों को रहा होगा।

    यद्यपि अल्पावस्था में ही माताजी को पिताजी के साथ उनके छोटे-छोटे बहन-भाइयों तथा माता-पिता की सेवा एवं आर्थिक कठिनाइयों में भाग लेना पड़ा, किंतु वीणा के दो मिले हुए तारों की तरह उन दोनों के हृदय से प्रत्येक विषय पर एक मृदु झंकार ही सदा मेंने प्रस्फुटित होते सुनी।

    पिताजी को बाल्यकाल से ही ताल-स्वर-सहित संगीत का ज्ञान है। मृदंग भी वे थोड़ा-बहुत बजा लेते हैं। (अब भी श्रीनगर आने पर में सदा पार्श्ववर्ती कमरे से साँझ-सवेरे सूरदास के मधुर पद सुनने के लिए लालायित रहती हूँ।) इसी से तब प्रभात-वेला में स्वतः ही जो अमर छंद फूट उठता था, वह आज इसराज, सितार आदि वाद्य यंत्रों को लेकर अनेक चेष्टाओं से भी बच्चों को सिखा सकने पर कई बार खीज उठती हूँ।

    पिताजी यदि बाहर काम-काज के क्षेत्र में अथक परिश्रम करते थे तो माताजी को भी हमने कभी ख़ाली बैठे नहीं पाया। ख़ाली बैठने से श्वास-प्रश्वास निष्फल जाते हैं, आयु कम होती है।” ऐसा प्रायः वह कहा करतीं। बीमारी के दिनों में भी चारपाई पर बैठकर चर्खा कातने का नियम उन्होंने कभी नहीं छोड़ा। उनके हाथों तैयार हुए पश्मीना आदि के ऊनी वस्त्र हमने बहुत दिनों तक पहने हैं।

    क़मीज़, सलवार, फ़्रॉक, आदि घरेलू वस्त्रों की काट-सिलाई, भाँति-भाँति के नए डिज़ाइनों के स्वेटर, मोज़े आदि का काम मैंने उन्हींसे सीखा है। किनारी, ज़री, सलमा काढ़ने में तो वे सिद्धहस्त थी ही। मेरे विवाह के अवसर पर लगभग सभी वस्त्र उन्होंने स्वयं कितने प्रेम से दिन-रात एक करके तैयार किए थे, जो अभी तक मेरे पास स्मृति स्वरूप रखे हैं। पुराने वस्त्रों की काट-छाँट और रंग-परिवर्तन में उन्हें बहुधा लीन देखकर पिताजी हँसा करते, “तुम्हारी माँ तो नित्य वस्तुओं के संस्कार किया करती हैं।”

    स्वास्थ्य के प्रति भी उनका दैनिक नियम वैसा ही निश्चित था। गीता, उपनिषद्, वाल्मीकि रामायण (टीका), ऋग्वेदादि भाष्य-भूमिका आदि वैदिक ग्रंथों के अतिरिक्त ‘भारत की प्राचीन वीर माताएँ,’ ‘अंजना का जीवन-चरित’ आदि उनकी निजी पुस्तकों पर स्वयं उनके हस्ताक्षर में ‘देवकी देवी’ नाम लिखे हैं। सुकन्या और अंजना की कहानी पहले मैंने उनके मुख से ही सुनी है। उनके दुःखों का वर्णन करते-करते वह रो पड़ती थीं। (स्व० बहन उर्मिला का नाम पहले ‘अंजना’ ही उन्होंने रक्खा था।) मंदालसा की कहानी तो उन्हें बहुत प्रिय थी। कई बार शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि—यह पूरा श्लोक सुनाते-सुनाते वह भाव-पूर्ण हो उठतीं। उनकी धारणा थी कि बच्चे जैसे ही बोलना, समझना प्रारंभ करें, अक्षर-ज्ञान से पूर्व ही उन्हें वेदमंत्र, दोहे, गीत, कहानियाँ कंठस्थ करा देने चाहिएँ। वे स्वयं भी ऐसा कर बाद में अर्थ समझा दिया करती थीं।

    राष्ट्रीय विचारों से उनका हृदय ओत-प्रोत था। विदेशी वस्त्र शायद ही पहले कभी आए हों। लोकमान्य तिलक की वे अनन्य भक्त थीं। मुझे अच्छी तरह याद है कि तिलक के देहावसान के दिन वे कितनी देर तक चुपचाप एकांत प्रार्थना में लीन रहीं। ‘केसरी’ की वे नियमित ग्राहिका थीं। कलकत्ते के घोष-बंधुओं तथा ‘अमृत बाज़ार पत्रिका’ आदि की चर्चा प्रायः उनसे सुनी है। ‘गृहलक्ष्मी’ भी घर में अवश्य आती रही होगी, क्योंकि उसकी पुरानी प्रतियों में चुटकुले, नानी की कहानी, लिलीपुट आदि से ही तो मैंने सर्व-प्रथम कल्पना-लोक में विचरना सीखा।

    पिताजी सदा धार्मिक पुस्तकों का निर्देश किया करते; किंतु ‘कन्या मनोरंजन’, बाद में ‘भारत मित्र’, ‘ज्योति’ आदि माताजी की ही अनुमति तथा प्रेरणा से मेरे नाम पर आती रहीं। हिंदी, पंजाबी, उर्दू तो वे पढ़ ही लेती थीं, संस्कृत का अभ्यास कुछ समय उन्होंने श्रीनगर के विद्वान् स्वर्गीय पं० गोविंद राजदान से किया था। साधारण बोल चाल की अंग्रेज़ी भी वे समझ जाती थीं। अपनी माँ होने के नाते ही नहीं, कितनी बार आज तक अपने कुटुंब की तथा अनेक बाहर की स्त्रियों से तुलना करके मैंने यही पाया है कि वह असाधारण प्रखर-बुद्धि की थीं। कोई नया शब्द उन्हें मिला नहीं कि अर्थ बता करके रहती।

    परिस्थितिवश हमारा प्रथम निजी मकान ठेठ काश्मीरी मुहल्ले में बना, जिसकी बाह्य गंदगी का दूषित प्रभाव माताजी के स्वास्थ्य पर पड़ा। इसीलिए हमारे गर्मियों के दिन बहुत बार नसीम, निशात, चश्मा शाही की पहाड़ियों पर ही कटते। तब की बातें याद कर पुलक भर आते हैं। हम भाई-बहन शहतूत, सेब के पेड़ों पर चढ़े होते। कभी ज़ीरा चुनने चश्माशाही के ऊपर जंगल में चले जाते। इधर सूर्य की अंतिम किरणों से जब नीचे की झील झिलमिला उठती तो मामाजी, पिताजी दोनों ऊपर पहाड़ी की चोटी पर बैठकर कैसे संध्योपासना किया करते! पिताजी शहर से रोज़ काम करके साईकिल पर आया करते और माताजी कभी देर हो जाने पर प्रतीक्षा में सभी उछलते-कूदते बच्चों के पीछे-पीछे नीचे सड़क तक उन्हें लेने जातीं। बड़े होकर कभी याद करेंगे कि माँ-बाप ने हमें जंगलों में पाला था। उनकी मोदभरी आवाज़ आज भी कानों में पड़ने लगती है।

    काम लेने का ढंग उन्हें ख़ूब आता था; क्योंकि घर में आने-जाने वाले दर्ज़ी, धोबी, नौकरों के अतिरिक्त भिश्तियों-कुलियों तक से उनका व्यवहार अत्यंत मृदु था। सबका दुःख-सुख वे सुनती थीं। एक वाक्य उनका कहा हुआ याद गया है—“जिव्हा शीरी, मुलक जगीरी”—अर्थात्—यदि तुम्हारी वाणी में मिठास है तो सारा संसार तुम्हारा अपना है। पंजाब अथवा काश्मीर, जहाँ भी वे जातीं, लोगों का आना-जाना बना ही रहता। सभी छोटे-बड़े बाहर के लोगों में वे ‘माताजी’ के नाम से ही प्रसिद्ध थीं। वे प्रायः हँसा करतीं कि इतनी छोटी सी आयु में ही मुझे जगत्-माता की पदवी प्राप्त हो गई है। कई एक बाल विधवाओं का जीवन उन्नत करने में उनका हाथ रहा, जिनमें से दो-एक को स्कूलों में आज अच्छी जगह पर नियुक्त देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है। आर्य-समाज श्रीनगर की तो वे विशेष कार्यकर्वी थीं। सामाजिक कार्यों में योग देने के लिए चंदा एकत्रित करने के दिनों में कभी साँझ-सबेरे ही घर पर नज़र आती थीं, किंतु इतना होते हुए भी गृहस्थी के कामों का मेरे पिताजी को तेनिक भी पता चलता, (और घर की प्रत्येक बात में दख़ल देने की ही उनकी आदत कभी रही है)। रुपये ला देने भर का उनका काम था, यहाँ तक कि सर्दियों में पंजाब जाकर ठहरने के लिए मकान तैयार करवाने का उत्तरदायित्व माताजी को ही सौंपा गया। सवेरे-सवेरे ही वे कैसे ईंट-चूने, लकड़ी का प्रबंध करने जाती, शाम को रजिस्टर लेकर हाज़िरी लगाती, मज़दूरी बाँटतीं। मकान पूरा बन जाने पर पिताजी आए तो बहुत प्रसन्न हुए; क्योंकि अपनी इच्छानुसार माताजी ने सभी सुविधाएँ वहाँ जुटाली थीं।

    स्टेट में बनने वाली इमारतों, नहरों आदि के विषय में भी उनकी सम्मति अवश्य ली जाती। कई बार कमरों के रंग, उनके बनाए वस्त्रों के बेल-बूटों को देखकर उनका ध्यान आता है। कैसी परिष्कृत रुचि थी उनकी! जब पूज्य पिताजी का कारोबार अधिक नहीं था, तब भी थोड़े ख़र्च में सुघड़ता एवं सुचारु रूप से सुंदर व्यवस्था करना उन्होंने सहज में ही सीख लिया था। हर आठवें दिन संदूक़ों, पलंगों, आदि सामान का स्थान परिवर्तन करके नवीनता लाने का उन्हें बहुत शौक़ था। स्वच्छता को ही वे सौंदर्य की प्रथम सीढ़ी मानती थीं। शुरू से ही हमारे घर में अतिथियों का आना-जाना बहुतायत से रहा है। आर्य समाज के उत्सव के दिनों में उनकी संख्या तीस-चालीस तक पहुँच जाती थीं, किंतु माताजी रोटी बनाते-बनाते कभी घबराई नहीं। प्रायः हम लोगों की अधीरता देख आज भी यह बात पिताजी को स्मरण हो आती है।

    जहाँ तक याद है, कभी भूलकर भी बच्चों के सामने उन्होंने परस्पर मतभेद नहीं होने दिया और ही बाहर से आने वाले लोगों की गपशप में कभी बच्चों को बैठने दिया। ‘बच्चे क्या जो आँखों का संकेत मानें।’ इसका उन्हें गर्व था। यह नियंत्रण सफल भी इसी कारण हो पाता था; क्योंकि हम लोगों को समय पर माता पिता के साथ खेलने की भी स्वतंत्रता थी। जाड़ों की लंबी रातों में उसी सफ़ेद कमरे में हम प्रायः चारपाइयों, पर्दों दरवाज़ों के पीछे चोर-चोर खेलते, माताजी ‘देय्या’ बन आँखें मूँदतीं। बर्फ़ के ढेलों को लेकर भी मैं तो उनके साथ खेली हूँ।

    उनका साहस अपूर्व था। बहुत पुरानी एक रात मेरी आँखों के सामने चमक जाती है। उस समय काश्मीर तक मोटर-बस नहीं जाती थी। ताँगा, घोड़ा-गाड़ी, इक्का का रास्ता, पाँच-छ: दिन का था। तब हम लोग रावलपिंडी जा रहे थे। माताजी प्रायः पगडंडी अथवा ताँगे द्वारा पहले ही पड़ाव पर पहुँच जातीं, रहने की जगह आदि ठीक करके बिस्तर लगवातीं और खाने-पीने का प्रबंध करने में लग जातीं। वह रात ‘छतर’ नामक एक पड़ाव पर हमें काटनी थी। हमारे तीन ताँगे सामान और बच्चों को लिए तो पहुँच गए, किंतु पूज्य पिताजी का ताँगा पीछे एक सुरंग से टकरा जाने से नहीं पहुँचा। अंधेरी रात, घना जंगल और नदी-नालों की भयानक ‘शां-शां’। ऐसे समय चिंता होनी कितनी स्वाभाविक थी! नौकर भी पीछे पिताजी के साथ था। कौन उन्हें लेने जाता? माताजी निर्भीकता से ताँगेवालों के समूह में खड़ी हुई और कहने लगीं, “भाइयो, मेरा मालिक पीछे रह गया है और मैं अकेली हूँ। छोटे-छोटे बच्चे साथ हैं। आप लोगों में से कौन साहसी पुरुष है, जो उन्हें लिवा लाए? दस रुपए इनाम दिए जाएँगे।” तांगेवाले प्रायः अकेला समझ छेड़-छाड़ अथवा परेशान करते; किंतु माताजी के कहने के ढंग ने उन्हें ऐसा प्रभावित किया कि वे सब एक साथ कहने लगे, “नहीं जी, रुपयों की कुछ बात नहीं! यह तो हमारा कर्तव्य है।” फ़ौरन दो ताँगे जुत कर गए और पाँच मील का कठिन उतार-चढ़ाव पार कर उन्हें लिवा लाए।

    बातें साधारण हैं, किंतु मेरे लिए अमिट हैं। फिर जिन अत्यंत प्रियजनों के साथ हम एकप्राण होते हैं, उनकी क्या बातें भूली जाएँ और क्या स्मरण करें? विवाह के दिन दोपहर के समय एकांत में जो शिक्षाएँ वे मुझे दे रही थीं—“मुझे अपनी दूसरी माँ (सास) मिल जाएगी। ननद-जिठानियाँ बहनों के बदले होंगी, शरीर-रक्षा और भोजन के संबंध में कितनी ही बातें; किसी की ग़रीबी, दुर्बलता एवं बड़े परिवार देखकर हँसी मत उड़ाना, किसी काम में आलस्य कदापि करना, अपने पिताजी का नाम सदा उज्ज्वल करना, अपयश ससुराल वालों की अपेक्षा माँ-बाप का ही होता है....” इत्यादि—वे मुझे आज भी स्मरण हैं; किंतु वे काम के लिए इतना कहती थीं तो क्यों? जब वे दयानंद-शताब्दी के अवसर पर मथुरा, आगरा होते हुए दिल्ली आई तो लगातार दो घंटे तक मुझे रोटी बनाते देख आँसू भरकर उन्होंने बार-बार मेरे हाथ चूम लिए थे। और जब मैं प्रथम बार दिल्ली से होकर श्रीनगर गई तो क्यों सारी रात उन्होंने पंद्रह-सोलह वर्ष की इतनी बड़ी लड़की को पास सुलाए रखा? वर्षों तक यह मेरी स्थूल बुद्धि में नहीं आया।

    दिल्ली से लौटकर उन्हीं गर्मियों में वे प्रसूत ज्वर से बिस्तर पर ऐसी पड़ीं (छः बहनों के बाद एक भाई हुआ और जाता रहा) कि उठ नहीं सकीं। वे दिन अत्यंत करुण हैं, शुश्रूषा आदि मुझे ही करनी होती थी। उनके दुःख को याद कर काँप उठती हूँ। बीमारी के दिनों में भी वे पिताजी के उदास मुख को देख उन्हें सहज विनोद से हँसा देतीं। उनके बाहर से आकर हाल पूछने पर सदा ही यह उत्तर होता—“बहुत अच्छा, पहले से ठीक है।” पिताजी के लिए जो थाली परोस कर आती तो वे उचक कर देख लेतीं कि खाना उन्हें ठीक मिल रहा है या नहीं? उनकी क़मीज़ पर बटन लग रहे हैं, बूटों पर पालिश हुई है? (क्योंकि पिताजी के इन कामों को उन्होंने किसी पर नहीं छोड़ा था।) पिताजी ने भी डेढ़ वर्ष तक सारा काम-काज छोड़, लगकर दिन-रात उनकी सेवा की। अंत में जाड़ा अधिक हो जाने के कारण डाक्टरों ने उन्हें पंजाब चले जाने की सम्मति दी। अंतिम बार मोटर में बैठे हुए जब उन्होंने मेरा माथा चूम कर विदा ली और आस-पास खड़े छोटे बच्चों को रुद्ध-कंठ से मानो मुझे सौंप जाने का संकेत किया वह आजीवन मेरे हृदय पर लिखा रहेगा। उस करुण-दृश्य को देखकर मोटर ड्राइवर तक रोकर बोल उठा, “आपणियाँ माँवा ठंडिया छाँवा”—अर्थात्—“अपनी माँ शीतल छाया होती है।”

    वे स्वयं भी तो कहा करती थीं, “मुर्ग़ी जैसे पंखों के नीचे नन्हें चूज़ों को संभाले रखती है, आँच नहीं आने देती, इसी प्रकार छोटे बच्चों के लिए ग़रीब माँ का होना भी आवश्यक है।”

    कुछ दिन बाद पिताजी लौटे तो सुनाया कि एक बार वे मुझे और भाई को देखना चाहती थीं। वे चाहती थीं—उनकी अर्थी के पीछे कीर्तन-भजन होते जाएँ। कोई रोये नहीं। शुद्ध खादी की साड़ी भी पूर्व ही उन्होंने मँगा ली थी। अंतिम दिन प्रातःकाल उन्होंने पूछा, “मेरे बचने की अब कोई आशा नहीं?” जबतक साँस है तबतक आशा रखनी चाहिए, किंतु जैसे उस दिन वे समझ गई थीं। अंतिम बार उसी समय उन्होंने पिताजी के साथ मिलकर यह पद गाया—

    “साँची प्रीति प्रभु तुम संग जोड़ी।

    तुम संग जोड़ जगत संग तोड़ी॥”

    और वेद मंत्रों का पाठ करती हुई कुल 38 वर्ष की आयु में ही, जबकि उनकी अल्हड़ बच्चियों को अपार स्नेह और बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता थी, चली गईं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : अमिट रेखाएँ (पृष्ठ 63)
    • संपादक : सत्यवती मलिक
    • रचनाकार : सत्यवती मलिक
    • प्रकाशन : सत्साहित्य प्रकाशन
    • संस्करण : 1955

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