अपनी माताजी के बारे में कुछ कहते मुझे झिझक होती है। पिता को तो मैंने जाना ही नहीं। चार महीने का था, तभी सुनते हैं उनका देहांत हो गया। पिता की ओर के किन्हीं संबंधी होने का मुझे पता नहीं। घर की हालत नक़द या जाएदाद की तरफ़ से एक दम सिफ़र थी। इससे छुटपन से ही हमारे परिवार का बोझ माताजी के मायके वालों पर आया। लेकिन मेरे जन्म के बाद नाना और नानी अधिक काल नहीं रहे। मामा (महात्मा भगवानदीनजी) की उम्र छोटी थी और उसी अवस्था में उन्हें नौकरी पर जाना पड़ा। हम उन्हीं के आश्रय में पले।
पर मामा के मन में धर्म-श्रद्धा का बीज था। स्वाध्याय से वह अंकुरित हो रहा था। तभी ला० गैंदनलालजी का साथ उन्हें मिला। लालाजी भी फ़तहपुर में थे और धर्म की उन्हें गाढ़ी अभिरुचि थी। आचरण को अपने विश्वास के बराबर लाने की लगन में दोनों ने घर छोड़ व्रती और ब्रह्मचारी होने की ठानी। नौकरी उस यज्ञ में स्वाहा हुई और हम भाई-बहनों को लेकर माताजी अपनी मायके के घर अतरौली आ गईं।
महात्माजी और ला० गैंदनलालजी भारत-भर की तीर्थ-यात्रा पर निकले। माताजी साथ थीं, अर्जुन लाल जी सेठी और बा० अजित प्रसाद जी आदि भी साथ रहे। महात्मा जी ने तो कुछ विज़न वन-यात्रा भी की। अंत में घर छोड़ने के कोई एक डेढ़ वर्ष के अनन्तर, हस्तिनापुर में ब्रह्मचर्याश्रम क़ायम हुआ और हम बालक उसके पहले ब्रह्मचारी हुए। बालकों की समस्या ऐसे हल हुई। बालिकाओं का भार माताजी पर आया। दो मेरी बहनें थीं, दो कन्याएँ ला० गेंदनलालजी की थीं। घर के बड़े जब व्रती हुए तो हम बालक तो गुरुकुल में आगए; पर दोनों परिवारों में के शेष व्यक्तियों को संभालने के लिए माताजी के सिवाए और कोई न था। मामी (महात्माजी की पत्नी) भी उस दल में थीं। तय हुआ कि माताजी सबको लेकर बंबई मगनबाईजी के श्राविकाश्रम में चली जावें। चल-संपत्ति में जितना जो था राई-रत्ती महात्माजी ने हस्तिनापुर-आश्रम की नींव में होम दिया।
आगे कैसे हुआ और क्या हुआ, यह माताजी ही जानती हैं। महात्माजी भी जानते होंगे तो शायद पूरा नहीं। महात्माजी ने अपने और अपनों के प्रति दया को कमज़ोरी समझा। बस अचल संपत्ति अतरौली में नाना की कुछ बची रह गई थी। महात्माजी उधर से उदासीन हुए तो वह भार भी माताजी पर आया। अतरौली मामूली क़स्बा है और संपत्ति में दो-तीन मकान ही कहिए, जिनकी आय विशेष क्या हो सकती थी। आधार के लिए सिर्फ़ वह, पालने को ख़ासा कुनबा, और इस बारे में सोचने और करने-धरने को अकेली मेरी एक माँ!
उस समय की बातों का ठीक ब्यौरा मुझे ज्ञात नहीं, अनुमान भर कर सकता हूँ। शायद अतरौली में परिवार के भरण-पोषण के लिए माताजी ने अरहर की दाल का व्यवसाय किया था। बहुत छुटपन की मुझे धीमी-धीमी सुध है कि घर में चक्कियाँ चल रही हैं और दाल दली जा रही है। माताजी पीसती थीं, मामी और दूसरे जन भी पीसते थे। शायद उस काम में ख़ास नफ़ा नहीं रहा; बल्कि कुछ टोटा ही पड़ा; क्योंकि बाहर का काम जिनके सुपुर्द था वे मर्द थे और अपने न थे, वेतन के थे। उसके बाद, याद पड़ता है, अतरौली और अलीगढ़ के बीच इक्के चलाने का काम उन्होंने शुरू किया था। खुले हुए इक्कों और दाना खाते और रह-रह कर हिनहिनाते हुए घोड़ों से भरे बाहर के चौक की तस्वीर मेरे मन में अब भी कभी-कभी धुंधली-सी झलक आती है। यह काम भी फला-फूला, ऐसा नहीं जान पड़ता। फिर तो माताजी शायद मामाजी और चारों बहनों को लेकर बंबई जा पहुँचीं। इससे पहले साधारण अक्षर-ज्ञान ही उन्हें रहा होगा। बंबई में एक वर्ष के भीतर धर्म का अच्छा परिचय और अपनी व्यवहार कुशलता के कारण लोक-संग्रह और सार्वजनिक कार्य में उन्होंने अच्छी दक्षता प्राप्त करली। बहुत जल्दी धार्मिक जनों में उनकी माँग होने लगी और वह इंदौर, दिल्ली आदि स्थानों पर धार्मिक पर्वो और समारोहों के उपलक्ष्य में बुलाई जाने लगीं। धर्म-निष्ठा मूल से उनमें थी और मृत्यु-समय तक वह उसमें अडिग और तत्पर रहीं।
स्थापना के समय से ही हस्तिनापुर आश्रम को त्यागी भाई मोतीलालजी का सहयोग मिला। उनका एक मकान दिल्ली के सतघरे में था। भाईजी का आग्रह हुआ और माताजी ने उस मकान में शायद एक संस्था का आरंभ किया।। इससे पहले सेठ हुकमचंद और कंचनबाईजी के अनुरोध पर कदाचित एक वर्ष के लिए उनकी एक महिला-संस्था का संचालन माताजी पर आया था। बंबई में मगनबाईजी के अलावा श्रीमती कंकुबाई और ललिताबहन आदि से उनका मंत्री-संबंध हो गया था और इंदौर में कंचनबाईजी, पंडिता भूरीबाईजी आदि से उनका अत्यंत स्नेह का संबंध बन आया।
इस अरसे में दिल्ली के धर्मवत्सल बंधु-भगिनियों के प्रेम के कारण उनका दिल्ली आना-जाना होता ही रहता था। अंत में यहाँ के भाई बहनों के उत्साह और अनुरोध पर सन् '18 में पहाड़ी धीरज पर जैन-महिलाश्रम की स्थापना हुई और माताजी उसकी संचलिका हुई।
इतना कुछ करते-धरते हुए भी अतरौली के मकानों की देखभाल भी उनसे न छूटी थी। मामले-मुक़दमे भी लगे ही रहा करते थे। इंदौर श्राविकाश्रम-संचालन का काम और समय ही ऐसा था जिसमें उनपर अपने व्यय का भार नहीं पड़ा। शायद रहने-सहने के ख़र्च के अतिरिक्त साठ रुपया उन्हें वहाँ मिलता था। शेष में तो अतरौली की संपत्ति की व्यवस्था के आधार पर ही उन्हें चलना था। इस तरह अपने पिता (हमारे नाना) के निजी रहने के मकान को छोड़ कर शेष जाएदाद धीरे-धीरे करके उन्हें बेच देनी पड़ी।
इधर सन् '18 में हस्तिनापुर से में निकल आया था। सांप्रदायिकता, दलगत और व्यक्तिगत स्पर्धा-वैमनस्य जो न कराए थोड़ा! परिणाम यह हुआ कि सन् '17 में महात्माजी वहाँ से अलग हो चुके थे। और सन् '18 तक बड़ी श्रेणियों के बालक ज़्यादातर वहाँ से जा चुके थे। निकल कर आया तब माताजी दिल्ली महिलाश्रम की संचालिका थीं।
सन् '18 से सन् '35 तक के उनके जीवन का में थोड़ा-बहुत साक्षी रहा हूँ। वह इतिहास एक दृष्टि से मेरे लिए विस्मयकर है तो दूसरी तरफ़ से वह मेरे लिए दुःख और चिंता का कारण है। एक गहरी भीति, संकोच और उदासीनता उससे मेरे भीतर समा गई है। सन् '19 में छ: वर्ष की अवस्था में उनसे छूटकर तेरह वर्ष का होकर सन् '18 में मैं उनके पास आया था और इकतीस वर्ष की आयु तक उनके संपर्क में रहा। आख़िर सन् '35 में महायात्रा के प्रयाण पर उन्हें अकेला छोड़कर उनसे अलग मैं संसार में बचा रह गया। तेरह से तीस वर्ष तक की आयु के साल बनने और बिगड़ने के होते हैं। जो मैं बना बिगड़ा हूँ, उसमें इन्हीं वर्षों का हाथ रहा होगा।
विस्मय होता है मुझे माताजी के अदम्य उत्साह पर। उनका साहस कभी न टूटा। कर्मठता एक क्षण भी उनके जीवन में कोई मूर्छित नहीं कर पाया। मैंने कभी उन्हें अपने लिए रहते नहीं पाया। दो धोतियाँ उनके पास रहती थीं और संकल्पपूर्वक चार धोतियों से अधिक वस्त्र उन्होंने अपने पास नहीं रखे। इसके अतिरिक्त चादर और फतुही। अपने में वह व्यस्त और ग्रस्त न थीं, जैसा अक्सर बुद्धिमानों का हाल होता है। अपने संपर्क में आने वालों में वह हिल मिल कर उनके सुख-दुःख में मानो एक हो जाती थीं। परिवार का कोई व्यक्ति और किसी का विचार उनके स्नेह और चिंता से बचता न था।
आचार में वह कठोर थीं। मैं सदा का शिथिलाचारी, रात्रि-भोजन के संबंध में असावधान। लेकिन उनका इकलौता बेटा था तो क्या, मुझे याद है, शुरू में देर से लौटने पर कई दिन रात को मुझे खाना नहीं दिया गया है। कुल-मर्यादा और सामाजिक व्यवहार के शील-संभ्रम का उन्हें पूरा अवधान था। महिलाश्रम का सम्पूर्ण भार उनपर था। अर्थ संग्रह, आंतरिक व्यवस्था, उसके अतिरिक्त जन-संग्रह भी। इस अति दुर्वह कर्म-चक्र के व्यूह में कभी हत-बुद्धि हो जाते मैंने उन्हें देखा है, ऐसा याद नहीं पड़ता। पैसा नहीं है, व्यवस्था समिति ने धन रोक लिया है, मकान का कई महीनों का किराया चढ़ गया है। आश्रम में चालीस पैंतालीस आश्रित जन है। माताजी कल ही अमुक उत्सव या कार्य से लौटी हैं। मकान-मालिक का उन्हें नोटिस बताया गया। सब ओर की निराशा उन तक आई, व्यवस्था समिति का विद्रोही और विक्षुब्ध रुख़ उनपर प्रकट हुआ। अभी ठीक तरह वृद्ध शरीर की थकान भी नहीं उतार पाई है कि सब सुनकर उन्होंने कहा, “शिवकुमारी ट्रंक में दो धोती तो रख देना बेटा! कुछ मठरी-बठरी बना देनी होगी, रिपोर्ट और रसीदें रख देना। और क्यों, तू चलेगी? जाने दे, मैं अकेली ही चली जाऊँगी। सबेरे जाना होगा। ठीक करदे, बेटा!” देखा है कि इस तरह सदा ही वह निकल पड़ी हैं, इस फैले विश्व के विश्वास के बल पर। अपना भरोसा उन्होंने कभी नहीं खोया है और भविष्य के प्रति किसी संशय को कभी मन में स्थान नहीं दिया है।
उनके प्रति विस्मय और श्रद्धा मुझमें बढ़ती ही गई है तो दूसरी ओर गहरा अवसाद भी मेरे मन में बैठ गया है। जगत् के प्रति घोर उपेक्षा का-सा जो भाव भीतर समा गया है, मुझे हमेशा डसता रहता है। माताजी जैन समाज की सदस्या थीं और सत्य की साक्षी से जानता हूँ कि जीवन के अंत के पच्चीस वर्ष उनके उस समाज की सेवा और चिंता में बीते। इस लगन में उन्होंने अपने को दया या क्षमा नहीं दी। लेकिन उनको जो पुरस्कार मिला, मेरी आँखों के सामने है। मंदिर में, घर में, खुली सड़क पर उनका अपमान हुआ। वह मरी तो समाज की अपदृष्टि उनपर थी। इसपर कभी तो घोर नास्तिकता मेरे मन में छा जाती है। फिर सोचता हूँ कि शायद सेवा-धर्म की यही परीक्षा है। जो हो, एक गहरा शोक सदा ही मन को डसे रहता है, जो जैन-समाज से मुझे कुछ भयभीत और उसकी सेवा से कुछ दूर बनाए रखता है। जीवन में इस गंभीर अकृतार्थता को लेकर मुझे जीना पड़ रहा है। माताजी पर सोचता हूँ तो जान पड़ता है कि वह एक नारी थीं जिनको प्रश्रय नहीं मिला, बल्कि जिनसे प्रश्रय माँगा गया। लता बनकर दूसरे के सहारे उठने और हरे-भरे होने की सुविधा उन्हें नहीं मिली। वृक्ष की भाँति अपनी निजता के बल पर उन्हें इस तरह उठना और फैलना पड़ा कि अनेकों को उनके तले छाँह और रक्षा मिली। बाहर के आतप, वर्षा और शीत को अपने ऊपर ही उन्होंने सहा, मगर आश्रितों को हर तरह सुरक्षा दी। वह जीवन से जूझती रहीं, इकली बनकर नहीं, स्वयं में एक संस्था बनाकर। अपने डैनों के नीचे अनेकों को समेटे इस अपार शून्यता में मानो हठपूर्वक वह ऊँचाई की ओर ही देखती गईं। समय आया तो शरीर गिर गया; लेकिन प्राण तब भी उसमें से ऊपर ही की ओर उठे।
मृत्यु-शैया पर थीं। गिनती के दिन ही अब उन्हें जीना था। मैंने कहा, “पीने को अंग्रेज़ी दवा ले लो।” लेकिन जो नहीं हो सकता था, नहीं हुआ। रात में उलटियाँ होती थीं, प्यास लगती थी, मैं कहता था, “क्या है, पानी पीलो न?” कहने से वमन के बाद कुल्ला तो उन्होंने किया; लेकिन कुछ भी हो, गले के नीचे एक घूँट पानी उतारने के लिए मैं उन्हें राज़ी न कर सका। अपने नेम को रखकर ज़िंदगी को चुनौती देते जाने और उससे जूझते रहने की बात सुनता था, समझता भी था; लेकिन माताजी में उसे देखकर मैं सहमा रह गया हूँ। उस आग्रह में गर्व भी तो न था एक निष्कपट सहजता थी। वह आग्रह विनम्र था, कट्टर तनिक भी न था और मेरे-जैसा तब का बुद्धिवादी भी उसे मूढ़ता कहकर टाल नहीं पाता था; बल्कि उसकी सत्यता के आगे बरबस उसे झुक जाना होता था।
एक कसक वह मन में लेकर ही गई। वह थी मुझको लेकर। इस दुनिया में मैं कैसे जिऊँगा, जी भी पाऊँगा या नहीं, इस बारे में वह चारों ओर से आश्वासन खोजती थीं। पर किसी ओर से इतना भी आश्वासन मरते दम तक उनको नहीं मिल सका। कोई अभिभावक न था। महात्माजी थे और उनकी गोद में लुढ़ककर तो उन्होंने प्राण ही दिए। पर उनके जैसे विरागी जन से सांसारिक अपेक्षा रखने का दोष माँ से हो ही कैसे सकता था? उनकी सगी और अकेली बहन थीं; पर भाई को भाई से भी अधिक इतना मानती थीं कि उनकी आत्मलीन सांसारिक उदासीनता पर वह भूले भी कोई भार या आभार नहीं डाल सकती थीं। तब उनके इस अक्षम और निरीह इकलौते बेटे को अपनी छाँह बढ़ाकर उसके तले ले लेनेवाला इस जगत में कौन था? फिर जगत के पास सहानुभूति का इतना अतिरेक भी कहाँ है कि उसकी आशा और अपेक्षा की जा सके? बल्कि उसे स्वयं सहानुभूति की भूख है। ऐसे में हे भगवान्, उनके इस इकलौते जैनेंद्र का क्या होगा? मानो वह पूछती थीं और कहीं से इसका कुछ उत्तर न पाकर मरने के लिए वह अनुद्यत हो जाती थीं।
मुझसे उन्हें कुछ सांत्वना न थी। अपने पेट लायक़ रोटी भी मैं कैसे जुटाऊँगा। और उस वक़्त तक तो दो बच्चों का पिता भी मैं हो चुका था। सच है कि साहित्य में थोड़ा-बहुत अख़बारी नाम मेरा हो जाने के कारण कुछ तो उन्हें धीरज बंधा था; पर आर्थिक तल पर वह तनिक भी उनकी सांत्वना का निमित्त हो सका था, ऐसा मानने की भूल का बहाना मेरे पास नहीं है।
लेकिन महात्माजी का मानना है— और हम दोनों ही उनकी मृत्यु-मुहूर्त के साक्षी थे— कि मरने से काफ़ी पहले उनके धार्मिक संस्कारों ने उन्हें संसार के रागादिक बंधनों से उत्तीर्णता दे दी थी और चिंता बाँध कर नहीं, अंदर के विश्वास का संबल लेकर अपनी अनंत यात्रा पर उन्होंने इस धराधाम से कूच किया।
apni mataji ke bare mein kuch kahte mujhe jhijhak hoti hai. pita ko to mainne jana hi nahin. chaar mahine ka tha, tabhi sunte hain unka dehant ho gaya. pita ki or ke kinhin sambandhi hone ka mujhe pata nahin. ghar ki haalat naqad ya jayedad ki taraf se ek dam sifar thi. isse chhutpan se hi hamare parivar ka bojh mataji ke mayke valon par aaya. lekin mere janm ke baad nana aur nani adhik kaal nahin rahe. mama (mahatma bhagvandinji) ki umr chhoti thi aur usi avastha mein unhen naukari par jana paDa. hum unhin ke ashray mein pale.
par mama ke man mein dharm shraddha ka beej tha. svadhyay se wo ankurit ho raha tha. tabhi la० gaindanlalji ka saath unhen mila. lalaji bhi fatahpur mein the aur dharm ki unhen gaDhi abhiruchi thi. achran ko apne vishvas ke barabar lane ki lagan mein donon ne ghar chhoD vrati aur brahamchari hone ki thani. naukari us yagya mein svaha hui aur hum bhai bahnon ko lekar mataji apni mayke ke ghar atrauli aa gain.
mahatmaji aur la० gaindanlalji bharat bhar ki teerth yatra par nikle. mataji saath theen, arjun laal ji sethi aur baa० ajit parsad ji aadi bhi saath rahe. mahatma ji ne to kuch vizan van yatra bhi ki. ant mein ghar chhoDne ke koi ek DeDh varsh ke anantar, hastinapur mein brahmcharyashram qayam hua aur hum balak uske pahle brahamchari hue. balkon ki samasya aise hal hui. balikaon ka bhaar mataji par aaya. do meri bahnen theen, do kanyayen la० gendanlalji ki theen. ghar ke baDe jab vrati hue to hum balak to gurukul mein aage; par donon parivaron mein ke shesh vyaktiyon ko sambhalne ke liye mataji ke sivaye aur koi na tha. mami (mahatmaji ki patni) bhi us dal mein theen. tay hua ki mataji sabko lekar bambii maganbaiji ke shravikashram mein chali javen. chal sampatti mein jitna jo tha rai ratti mahatmaji ne hastinapur ashram ki neenv mein hom diya.
aage kaise hua aur kya hua, ye mataji hi janti hain. mahatmaji bhi jante honge to shayad pura nahin. mahatmaji ne apne aur apnon ke prati daya ko kamzori samjha. bas achal sampatti atrauli mein nana ki kuch bachi rah gai thi. mahatmaji udhar se udasin hue to wo bhaar bhi mataji par aaya. atrauli mamuli qasba hai aur sampatti mein do teen makan hi kahiye, jinki aay vishesh kya ho sakti thi. adhar ke liye sirf wo, palne ko khasa kunba, aur is bare mein sochne aur karne dharne ko akeli meri ek maan!
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mujhse unhen kuch santvna na thi. apne pet layaq roti bhi main kaise jutaunga. aur us vaqt tak to do bachchon ka pita bhi main ho chuka tha. sach hai ki sahitya mein thoDa bahut akhbari naam mera ho jane ke karan kuch to unhen dhiraj bandha tha; par arthik tal par wo tanik bhi unki santvna ka nimitt ho saka tha, aisa manne ki bhool ka bahana mere paas nahin hai.
lekin mahatmaji ka manna hai— aur hum donon hi unki mrityu muhurt ke sakshi the— ki marne se kafi pahle unke dharmik sanskaron ne unhen sansar ke ragadik bandhnon se uttirnta de di thi aur chinta baandh kar nahin, andar ke vishvas ka sambal lekar apni anant yatra par unhonne is dharadham se kooch kiya.
apni mataji ke bare mein kuch kahte mujhe jhijhak hoti hai. pita ko to mainne jana hi nahin. chaar mahine ka tha, tabhi sunte hain unka dehant ho gaya. pita ki or ke kinhin sambandhi hone ka mujhe pata nahin. ghar ki haalat naqad ya jayedad ki taraf se ek dam sifar thi. isse chhutpan se hi hamare parivar ka bojh mataji ke mayke valon par aaya. lekin mere janm ke baad nana aur nani adhik kaal nahin rahe. mama (mahatma bhagvandinji) ki umr chhoti thi aur usi avastha mein unhen naukari par jana paDa. hum unhin ke ashray mein pale.
par mama ke man mein dharm shraddha ka beej tha. svadhyay se wo ankurit ho raha tha. tabhi la० gaindanlalji ka saath unhen mila. lalaji bhi fatahpur mein the aur dharm ki unhen gaDhi abhiruchi thi. achran ko apne vishvas ke barabar lane ki lagan mein donon ne ghar chhoD vrati aur brahamchari hone ki thani. naukari us yagya mein svaha hui aur hum bhai bahnon ko lekar mataji apni mayke ke ghar atrauli aa gain.
mahatmaji aur la० gaindanlalji bharat bhar ki teerth yatra par nikle. mataji saath theen, arjun laal ji sethi aur baa० ajit parsad ji aadi bhi saath rahe. mahatma ji ne to kuch vizan van yatra bhi ki. ant mein ghar chhoDne ke koi ek DeDh varsh ke anantar, hastinapur mein brahmcharyashram qayam hua aur hum balak uske pahle brahamchari hue. balkon ki samasya aise hal hui. balikaon ka bhaar mataji par aaya. do meri bahnen theen, do kanyayen la० gendanlalji ki theen. ghar ke baDe jab vrati hue to hum balak to gurukul mein aage; par donon parivaron mein ke shesh vyaktiyon ko sambhalne ke liye mataji ke sivaye aur koi na tha. mami (mahatmaji ki patni) bhi us dal mein theen. tay hua ki mataji sabko lekar bambii maganbaiji ke shravikashram mein chali javen. chal sampatti mein jitna jo tha rai ratti mahatmaji ne hastinapur ashram ki neenv mein hom diya.
aage kaise hua aur kya hua, ye mataji hi janti hain. mahatmaji bhi jante honge to shayad pura nahin. mahatmaji ne apne aur apnon ke prati daya ko kamzori samjha. bas achal sampatti atrauli mein nana ki kuch bachi rah gai thi. mahatmaji udhar se udasin hue to wo bhaar bhi mataji par aaya. atrauli mamuli qasba hai aur sampatti mein do teen makan hi kahiye, jinki aay vishesh kya ho sakti thi. adhar ke liye sirf wo, palne ko khasa kunba, aur is bare mein sochne aur karne dharne ko akeli meri ek maan!
us samay ki baton ka theek byaura mujhe gyaat nahin, anuman bhar kar sakta hoon. shayad atrauli mein parivar ke bharan poshan ke liye mataji ne arhar ki daal ka vyavsay kiya tha. bahut chhutpan ki mujhe dhimi dhimi sudh hai ki ghar mein chakkiyan chal rahi hain aur daal dali ja rahi hai. mataji pisti theen, mami aur dusre jan bhi piste the. shayad us kaam mein khaas nafa nahin raha; balki kuch tota hi paDa; kyonki bahar ka kaam jinke supurd tha ve mard the aur apne na the, vetan ke the. uske baad, yaad paDta hai, atrauli aur aligaDh ke beech ikke chalane ka kaam unhonne shuru kiya tha. khule hue ikkon aur dana khate aur rah rah kar hinhinate hue ghoDon se bhare bahar ke chauk ki tasvir mere man mein ab bhi kabhi kabhi dhundhli si jhalak aati hai. ye kaam bhi phala phula, aisa nahin jaan paDta. phir to mataji shayad mamaji aur charon bahnon ko lekar bambii ja pahunchin. isse pahle sadharan akshar gyaan hi unhen raha hoga. bambii mein ek varsh ke bhitar dharm ka achchha parichay aur apni vyvahar kushalta ke karan lok sangrah aur sarvajnik karya mein unhonne achchhi dakshata praapt karli. bahut jaldi dharmik janon mein unki maang hone lagi aur wo indaur, dilli aadi sthanon par dharmik parvo aur samarohon ke uplakshya mein bulai jane lagin. dharm nishtha mool se unmen thi aur mrityu samay tak wo usmen aDig aur tatpar rahin.
sthapana ke samay se hi hastinapur ashram ko tyagi bhai motilalji ka sahyog mila. unka ek makan dilli ke sataghre mein tha. bhaiji ka agrah hua aur mataji ne us makan mein shayad ek sanstha ka arambh kiya. . isse pahle seth hukamchand aur kanchanbaiji ke anurodh par kadachit ek varsh ke liye unki ek mahila sanstha ka sanchalan mataji par aaya tha. bambii mein maganbaiji ke alava shrimti kankubai aur lalitabhan aadi se unka mantri sambandh ho gaya tha aur indaur mein kanchanbaiji, panDita bhuribaiji aadi se unka atyant sneh ka sambandh ban aaya.
is arse mein dilli ke dharmvatsal bandhu bhaginiyon ke prem ke karan unka dilli aana jana hota hi rahta tha. ant mein yahan ke bhai bahnon ke utsaah aur anurodh par san 18 mein pahaDi dhiraj par jain mahilashram ki sthapana hui aur mataji uski sanchalika hui.
itna kuch karte dharte hue bhi atrauli ke makanon ki dekhbhal bhi unse na chhuti thi. mamle muqadme bhi lage hi raha karte the. indaur shravikashram sanchalan ka kaam aur samay hi aisa tha jismen unpar apne vyay ka bhaar nahin paDa. shayad rahne sahne ke kharch ke atirikt saath rupya unhen vahan milta tha. shesh mein to atrauli ki sampatti ki vyavastha ke adhar par hi unhen chalna tha. is tarah apne pita (hamare nana) ke niji rahne ke makan ko chhoD kar shesh jayedad dhire dhire karke unhen bech deni paDi.
idhar san 18 mein hastinapur se mein nikal aaya tha. samprdayikta, dalgat aur vyaktigat spardha vaimanasya jo na karaye thoDa! parinam ye hua ki san 17 mein mahatmaji vahan se alag ho chuke the. aur san 18 tak baDi shreniyon ke balak zyadatar vahan se ja chuke the. nikal kar aaya tab mataji dilli mahilashram ki sanchalika theen.
san 18 se san 35 tak ke unke jivan ka mein thoDa bahut sakshi raha hoon. wo itihas ek drishti se mere liye vismaykar hai to dusri taraf se wo mere liye duःkha aur chinta ka karan hai. ek gahri bhiti, sankoch aur udasinata usse mere bhitar sama gai hai. san 19 mein chhah varsh ki avastha mein unse chhutkar terah varsh ka hokar san 18 mein main unke paas aaya tha aur iktis varsh ki aayu tak unke sampark mein raha. akhir san 35 mein mahayatra ke pryaan par unhen akela chhoDkar unse alag main sansar mein bacha rah gaya. terah se tees varsh tak ki aayu ke saal banne aur bigaDne ke hote hain. jo main bana bigDa hoon, usmen inhin varshon ka haath raha hoga.
vismay hota hai mujhe mataji ke adamya utsaah par. unka sahas kabhi na tuta. karmathta ek kshan bhi unke jivan mein koi murchhit nahin kar paya. mainne kabhi unhen apne liye rahte nahin paya. do dhotiyan unke paas rahti theen aur sankalppurvak chaar dhotiyon se adhik vastra unhonne apne paas nahin rakhe. iske atirikt chadar aur phatuhi. apne mein wo vyast aur grast na theen, jaisa aksar buddhimanon ka haal hota hai. apne sampark mein aane valon mein wo hil mil kar unke sukh duःkha mein mano ek ho jati theen. parivar ka koi vyakti aur kisi ka vichar unke sneh aur chinta se bachta na tha.
achar mein wo kathor theen. main sada ka shithilachari, ratri bhojan ke sambandh mein asavadhan. lekin unka iklauta beta tha to kya, mujhe yaad hai, shuru mein der se lautne par kai din raat ko mujhe khana nahin diya gaya hai. kul maryada aur samajik vyvahar ke sheel sambhram ka unhen pura avadhan tha. mahilashram ka sampurn bhaar unpar tha. arth sangrah, antrik vyavastha, uske atirikt jan sangrah bhi. is ati durvah karm chakr ke vyooh mein kabhi hat buddhi ho jate mainne unhen dekha hai, aisa yaad nahin paDta. paisa nahin hai, vyavastha samiti ne dhan rok liya hai, makan ka kai mahinon ka kiraya chaDh gaya hai. ashram mein chalis paintalis ashrit jan hai. mataji kal hi amuk utsav ya karya se lauti hain. makan malik ka unhen notis bataya gaya. sab or ki nirasha un tak aai, vyavastha samiti ka vidrohi aur vikshubdh rukh unpar prakat hua. abhi theek tarah vriddh sharir ki thakan bhi nahin utaar pai hai ki sab sunkar unhonne kaha, “shivakumari trank mein do dhoti to rakh dena beta! kuch mathri bathri bana deni hogi, riport aur rasiden rakh dena. aur kyon, tu chalegi? jane de, main akeli hi chali jaungi. sabere jana hoga. theek karde, beta!” dekha hai ki is tarah sada hi wo nikal paDi hain, is phaile vishv ke vishvas ke bal par. apna bharosa unhonne kabhi nahin khoya hai aur bhavishya ke prati kisi sanshay ko kabhi man mein sthaan nahin diya hai.
unke prati vismay aur shraddha mujhmen baDhti hi gai hai to dusri or gahra avsad bhi mere man mein baith gaya hai. jagat ke prati ghor upeksha ka sa jo bhaav bhitar sama gaya hai, mujhe hamesha Dasta rahta hai. mataji jain samaj ki sadasya theen aur satya ki sakshi se janta hoon ki jivan ke ant ke pachchis varsh unke us samaj ki seva aur chinta mein bite. is lagan mein unhonne apne ko daya ya kshama nahin di. lekin unko jo puraskar mila, meri ankhon ke samne hai. mandir mein, ghar mein, khuli saDak par unka apman hua. wo mari to samaj ki apdrishti unpar thi. ispar kabhi to ghor nastikta mere man mein chha jati hai. phir sochta hoon ki shayad seva dharm ki yahi pariksha hai. jo ho, ek gahra shok sada hi man ko Dase rahta hai, jo jain samaj se mujhe kuch bhaybhit aur uski seva se kuch door banaye rakhta hai. jivan mein is gambhir akritarthta ko lekar mujhe jina paD raha hai. mataji par sochta hoon to jaan paDta hai ki wo ek nari theen jinko prashray nahin mila, balki jinse prashray manga gaya. lata bankar dusre ke sahare uthne aur hare bhare hone ki suvidha unhen nahin mili. vriksh ki bhanti apni nijta ke bal par unhen is tarah uthna aur phailna paDa ki anekon ko unke tale chhaanh aur raksha mili. bahar ke aatap, varsha aur sheet ko apne uupar hi unhonne saha, magar ashriton ko har tarah suraksha di. wo jivan se jujhti rahin, ikli bankar nahin, svayan mein ek sanstha banakar. apne Dainon ke niche anekon ko samete is apar shunyata mein mano hathpurvak wo uunchai ki or hi dekhti gain. samay aaya to sharir gir gaya; lekin praan tab bhi usmen se uupar hi ki or uthe.
mrityu shaiya par theen. ginti ke din hi ab unhen jina tha. mainne kaha, “pine ko angrezi dava le lo. ” lekin jo nahin ho sakta tha, nahin hua. raat mein ulatiyan hoti theen, pyaas lagti thi, main kahta tha, “kya hai, pani pilo na?” kahne se vaman ke baad kulla to unhonne kiya; lekin kuch bhi ho, gale ke niche ek ghoont pani utarne ke liye main unhen razi na kar saka. apne nem ko rakhkar zindagi ko chunauti dete jane aur usse jujhte rahne ki baat sunta tha, samajhta bhi tha; lekin mataji mein use dekhkar main sahma rah gaya hoon. us agrah mein garv bhi to na tha ek nishkapat sahajta thi. wo agrah vinamr tha, kattar tanik bhi na tha aur mere jaisa tab ka buddhivadi bhi use muDhta kahkar taal nahin pata tha; balki uski satyata ke aage barbas use jhuk jana hota tha.
ek kasak wo man mein lekar hi gai. wo thi mujhko lekar. is duniya mein main kaise jiunga, ji bhi paunga ya nahin, is bare mein wo charon or se ashvasan khojti theen. par kisi or se itna bhi ashvasan marte dam tak unko nahin mil saka. koi abhibhavak na tha. mahatmaji the aur unki god mein luDhakkar to unhonne praan hi diye. par unke jaise viragi jan se sansarik apeksha rakhne ka dosh maan se ho hi kaise sakta tha? unki sagi aur akeli bahan theen; par bhai ko bhai se bhi adhik itna manti theen ki unki atmalin sansarik udasinata par wo bhule bhi koi bhaar ya abhar nahin Daal sakti theen. tab unke is aksham aur nirih iklaute bete ko apni chhaanh baDhakar uske tale le lenevala is jagat mein kaun tha? phir jagat ke paas sahanubhuti ka itna atirek bhi kahan hai ki uski aasha aur apeksha ki ja sake? balki use svayan sahanubhuti ki bhookh hai. aise mein he bhagvan, unke is iklaute jainendr ka kya hoga? mano wo puchhti theen aur kahin se iska kuch uttar na pakar marne ke liye wo anudyat ho jati theen.
mujhse unhen kuch santvna na thi. apne pet layaq roti bhi main kaise jutaunga. aur us vaqt tak to do bachchon ka pita bhi main ho chuka tha. sach hai ki sahitya mein thoDa bahut akhbari naam mera ho jane ke karan kuch to unhen dhiraj bandha tha; par arthik tal par wo tanik bhi unki santvna ka nimitt ho saka tha, aisa manne ki bhool ka bahana mere paas nahin hai.
lekin mahatmaji ka manna hai— aur hum donon hi unki mrityu muhurt ke sakshi the— ki marne se kafi pahle unke dharmik sanskaron ne unhen sansar ke ragadik bandhnon se uttirnta de di thi aur chinta baandh kar nahin, andar ke vishvas ka sambal lekar apni anant yatra par unhonne is dharadham se kooch kiya.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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