गोधूलि से संबंधित शत-शत चित्र देखने के पश्चात् भी मन यही कहता है—इससे भी अच्छा चित्र प्रस्तुत किया जाना चाहिए! जिसने नगर में जन्म लिया और वहीं रहा उसे तो गोधूलि का मामूली दृश्य भी भा जाएगा। पर जो स्वयं गाँव में पैदा हुआ और जाने कितने जनपदों के गाँवों में घूम-फिर आया उसे तो गोधूलि का कोई मुँह बोलता चित्र ही पसंद आ सकता है।
संध्या का समय है। गायें जंगल में चर कर लौट रही हैं। उनके खुरों से धूल उड़ने के कारण धुँध-सी छा गई है। यह तो गोधूलि का साधारण रूप है। इससे आज के कवि का मन झंकृत नहीं हो सकता। आज के कवि की तो बात दूर रही, पुराना कवि तो इतने भर से संतुष्ट नहीं हो सकता था। इतने भर से तो केवल गोधूलि का शब्दार्थ ही सामने आता है। बल्कि आज का कवि तो शायद गोधूलि की प्रशंसा करने की बजाए उल्टा इसके विरुद्ध बहुत कुछ कह जाए। क्योंकि धूल आख़िर धूल है, फिर चाहे वह गौओं के खुरों से उड़े और चाहे तेज़ हवा चलने से, धूल में तो कोई अच्छी बात नहीं—यह दलील बड़ी आसानी से दी जा सकती है।
हाँ तो बात धूल की नहीं, गोधूलि की है। इसका मुख्य विषय है संध्या-वेला। कविता में संध्या के अनेक दृश्य प्रस्तुत किए गए हैं। और अभी इस पर जाने कितना लिखा जाना बाक़ी है। यदि उषाकाल का अपना चमत्कार है तो गोधूलि का भी कुछ कम महत्व नहीं। पर जिस व्यक्ति ने पहले पहल गोधूलि की चर्चा की थी, उसने देखे होंगे गौओं के अनेक समूह। इसी गोधन के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उसने साँझ के लिए 'गोधूलि' शब्द का प्रयोग किया होगा।
विद्यापति ने एक स्थल पर गोधूलि की चर्चा करते हुए कहा है—
जब गोधूलि समय बेलिधनि मंदिर बाहिर भेलि,नव जलधरे बिजुरि-रेहाद्वंद्व पसारि गेलि।
कवि ने देखा कि गोधूलि-बेला में पूजा समाप्त करके एक युवती अभी-अभी मंदिर से बाहर आकर अपने घर की ओर चल पड़ी। बस यही दृश्य देखकर उसका हृदय झंकृत हो उठा। कोई चाहे तो पूछ सकता है कि इसमें गोधूलि को कैसे श्रेय मिलेगा। यदि कवि ने किसी और समय इस सुंदरी को देखा होता तो उसे सौंदर्य की अनुभूति बिल्कुल न हुई होती, यह तो नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक दृश्य के लिए उसी के अनुरूप पृष्ठभूमि की आवश्यकता पड़ती है। हर समय एक ही हश्य अच्छा नहीं लगता। यह सच है कि समय की छाप के बिना कोई चित्र बोल ही नहीं सकता। अतः यह बात विश्वासपूर्वक नहीं की जा सकती कि यदि कवि ने इस सुंदरी को किसी और समय देखा होता तो उस पर उसकी छवि का यही प्रभाव पड़ता।
विद्यापति के इस पद की ओर संकेत करते हुए रवींद्रनाथ ठाकुर ने लिखा था—गोधूलि-काल में एक कन्या मंदिर से निकल आई, यह हमारे निकट अत्यंत सामान्य है। इस संवाद के सहारे ही यह चित्र हमारे सामने स्पष्ट नहीं खिंच जाता। हम मानो सुनकर भी नहीं सुनते। एक चिरंतन एक रूप में वह वस्तु हमारे मन में स्थान नहीं पाती। यदि कोई 'मान न मान में वेश मेहमान' भला आदमी हमारा ध्यान खींचने के लिए इस ख़बर को फिर सुनाने लगे तो हम खीज कर कहेंगे—'कन्या अगर मंदिर से निकल आर्इ तो हमारा क्या?' अर्थात हम उसके साथ उसका कोई संबंध अनुभव नहीं कर रहे हैं, इसलिए यह घटना हमारे लिए सही नहीं है। किंतु ज्यों ही छंद, सुर, उपमा के योग से यह मामूली बात सुषमा (सौंदर्य) के एक अखंड ऐक्य के रूप में संपूर्ण होकर प्रकट हुई, त्योंही यह प्रश्न शांत हो गया कि 'इससे हमारा क्या?' क्योंकि जब सत्य को पूर्ण रूप में देखते हैं तब उसके साथ व्यक्तिगत संबंध के द्वारा आकृष्ट नहीं होते, सत्यगत संबंध के द्वारा आकृष्ट होते हैं। गोधूलि के समय कन्या मंदिर से निकल आई, इस बात को तथ्य के तौर पर यदि पूरा करना होता तो शायद अनेक और भी बातें कहनी पड़तीं। आस-पास की बहुतेरी ख़बरें इसमें जोड़ने से रह गई हैं। कवि शायद कह सकता था कि उस समय कन्या को भूख लगी थी और वह मन ही मन मिठाई की बात सोच रही थी। बहुत संभव है, उस समय यही चिंता कन्या के मन में सब से अधिक प्रबल थी। किंतु तथ्य जुटाना कवि का काम नहीं है। इसीलिए जो बातें बहुत ही ज़रूरी और बड़ी है वही कहने से रह गई है। यह तथ्य का बोझ जो कम हो गया है। इसीलिए संगीत के बंधन में छोटी-सी बात इस तरह के रूप में परिपूर्ण हो उठी है और कविता ऐसी संपूर्ण और अखंड होकर प्रकट हुई है कि पाठक का मन इस सामान्य तथ्य के भीतरी सत्य को इस गहराई के साथ अनुभव कर सका है। इस सत्य के ऐक्य को अनुभव करते ही हम आनंद पाते हैं।
इस पर भी शायद कोई कहे कि विद्यापति को यदि गोधूलि में अधिक अनुराग था तो उन्हें यह बात अवश्य स्पष्ट कर देनी चाहिए थी। कोई मनचला तो यहाँ तक कह सकता है कि देखिए साहब 'एक ने कही दूसरे ने मानी' वाली बात नहीं चलेगी, और विद्यापति की वकालत रवींद्रनाथ ठाकुर करें, यह तो हमें बिलकुल स्वीकार नहीं। इसके उत्तर में यही कहा जाएगा कि गोधूलि के महत्व को अपनी ही आँखों से देखने का यत्न करो, और हो सके तो इसके साथ दर्शक के जीवन की कोई स्मरणीय घटना जुड़ जानी चाहिए।
विद्यापति ने जिस सुंदरी को गोधूलि-बेला में मंदिर से निकलकर घर जाते देखा था, उसको मुखाकृति में शायद रूप की अपेक्षा लावण्य ही अधिक रहा होगा। किस प्रकार उसने कवि के मन को खींच लिया, यह बात कवि ने स्पष्ट नहीं की। कवि ने कल्पना कर ली होगी कि जब यह युवती हँसती होगी तो उसके गालों पर गुलाब खिल उठते होंगे! आप कहेंगे गुलाब तो गोधूलि के समय नहीं खिलते। शायद उस समय आकाश पर श्वेत सारस उड़े चले जा रहे होंगे। कौन जाने युवती और कवि की निगाहें एक साथ सारस पंक्ति की ओर उठ गई हों। पर कवि ने इसके बारे में कुछ भी तो नहीं कहा। शायद कवि ने सोचा होगा कि उस युवती की उड़ती हुई अलक उसके गाल को ढकने का यत्न कर रही है। या शायद कवि को ध्यान आ गया हो कि जब कच्ची उम्र में वह युवती लकड़ी के खेल-घोड़े पर चढ़ती होगी तो वह कितनी सुंदर लगती होगी। कौन जाने युवती अनायास ही हँस पड़ी हो और उसकी भौहें तिरछी हो गई हों, या शायद कवि को यह ध्यान आ गया हो कि जब शारदीया हवा के जमा किए हुए झरे-जीर्ण पत्तों पर यह युवती चलेगी तो कैसी अजीब-सी ध्वनि पैदा होगी। यह भी हो सकता है कि कवि ने सोचा हो कि जब यह युवती अपनी बगिया में तितलियों के पीछे भागती होगी तो उसकी अलकें एकदम हवा में लहराने लगती होंगी। पर आप कह सकते हैं यह सब कल्पना व्यर्थ है, क्योंकि कवि ने तो ऐसी कोई बात कही ही नहीं। फिर आप यह भी पूछ सकते हैं कि यदि ये सब ठीक भी हों तो बताओ इसमें गोधूलि की बात कहाँ से आ गई।
मैं मान लेता हूँ कि मैं ज़रा सुर चढ़ाकर गोधूलि की बात लिख रहा हूँ। पर मैं तो कहूँगा कि मुझे इसका अधिकार है। क्या हुआ यदि विद्यापति का युग कभी का लद गया, मैं तो आज उसी युग का स्पर्श अनुभव कर रहा हूँ।
अभी-अभी कहीं हिमाचल प्रदेश के एक किन्नर लोकगीत का उल्लेख देखा, जो 'ना-न-न-न-न-न-न-न-ना ई, ना- न-न-न-न-न-न-न-नो-ऽ' की गमक पर अग्रसर होता है अनुवाद में भी मूल द्रव्य दबता नहीं—
जङ् मोपोती बोली—“सखि, हे सखि! चलो पर्वत के ऊपरी भाग पर खेत की रक्षा करने चलें।कृष्ण भगवती बोली—चलने को तो कहती हो, कलेवा क्या ले चलें?”
कलेवा तो ले चलें रोपङ् का मुना गेहूँ, किल्न पापड़ का आटा, ठोकरों के काले उड़द की दाला।
मैं सच कहता हूँ कि जङ् मोपोती और कृष्ण भगवती की इस बातचीत में एक पल के लिए प्रभाव का चित्र उभरा ज़रूर, पर शीघ्र ही मेरा ध्यान गोधूलि की ओर पलट गया। मेरा मन बस यही सोचने लगा कि गोधूलि-बेला में ये किन्नरियाँ कितनी सुंदर लगती होंगी। सोचता हूँ कि ये किन्नरियाँ तो दिन-रात में गुँथी रह कर आज भी दिन-यात्रा का गान किए जा रही होंगी। कलेवे का संबंध तो हुआ सवेरे के साथ। गोधूलि की बात का क्या इस गान में एकदम ज़िक्र नहीं रहता होगा?
इसी को लेकर एक मित्र से बात हो रही थी। वह बोला—तुम्हारा स्वभाव तो बिलकुल गुठली तक पके हुए आम की तरह है। जिस बात को तुम पकड़ते हो छोड़ते ही नहीं। ठीक उसकी गहराई तक चले जाते हो।
मैंने पलट कर कहा—तब तो मेरा स्वभाव के अनुरूप ही हुआ। अँधेरे में ही तो चिंतन का मज़ा है। अरे भर्इ, गोधूलि यही संदेश लेकर आती है कि अब और सब काम-धंधा छोड़ो हाथ-मुँह धोकर बैठ जाओ और थोड़ा चिंतन कर लो।
उस समय मेरी कल्पना के कला-भवन में उस युवती का चित्र एकदम उभरा जिसे एक दिन विद्यावति ने गोधूलि-वेला में पूजा समाप्त होने पर मंदिर से निकल कर घर की ओर जाते देखा था। जैसे यह युवती कह रही हो—पूछो क्या पूछना चाहते हो? फिर जैसे वे किन्नरियाँ—जड़ मोपोती और कृष्णा भगववी भी खिलखिला कर हँस पड़ी हो—हाँ, पूछो, पूछो! मैं कहना चाहता था कि पूछने वाली कोई बात हो तो पूछूँ भी। जैसे मंदिर से निकल कर घर को जाती हुई युवती भी व्यंग्य-भरी हँसी हँसे जा रही हो। मैं मन ही मन खिसियाना सा होकर यही कहने जा रहा था कि गोधूलि-बेला की धूल तो मुझे बिलकुल नहीं सुहाती। हाँ, गौओं को गाँव की ओर लौटते देख कर मन ख़ुशी से उछल पड़ता है। अब इन गौओं का दूध दुहा जाएगा, मन कह उठता है, अब इन के बछड़ों को भी थोड़ा बहुत दूध अवश्य पीने को मिलेगा।
हाँ, तो दूध दुहने के चित्र की कल्पना में गोधूलि को थोड़ा-बहुत श्रेय तो अवश्य मिलना चाहिए। आप कह सकते हैं—वाह, यह भी कोई बात हुई? दूध तो प्रभात के समय भी दुहा जाता है। इसके उत्तर में मैं यही कहूँगा कि संध्या-समय गो-दोहन का चित्र जितना प्रिय लगता है उतना प्रभात में नहीं। आप इस के विरुद्ध दलील नहीं दे सकते, क्योंकि यहाँ तो अपनी-अपनी रुचि की बात है।
संध्या-समय के गो-दोहन की सर्वप्रथम याद मेरे हृदय पर सदा अंकित रहेगी। धरती पर बैठकर मैंने एक ग्वाले से कहा था कि वह मेरे मुँह में दूध की धार छोड़े। कितना आनंद आया था। दूध की धार के स्पर्श मात्र से मेरा मन नाच उठा था गोधूलि के समय मैंने इस गाय को घर आते देखा था। इसीलिए उस दुग्धपान के साथ गोधूलि का चित्र आज तक मेरे मन पर अंकित है।
जिस युवती को विद्यापति ने देखा था, उससे मैं पूछना चाहता हूँ कि कहो तुम्हारे मुँह में भी कभी किसी ने दूध की धार छोड़ी थी। मैं तो उन किन्नरियों से भी पूछना चाहता हूँ कि क्या उन्हें भी बचपन का कोई ऐसा संस्मरण याद है।
जैसे कोई आवाज़ आ रही हो—यदि तुम गोधूलि के समय रुक आओ तो इन फैले हुए केशों से तुम्हारे चरण पोछ डालूँ!
पर मुझे यह बिलकुल पसंद नहीं कि कोई अपने केशों से मेरे पैर पोंछने का कष्ट उठाए। गोधूलि के समय तो यूँ ही राह चलते पैरों पर धूल लग जाती है।
जैसे यह आवाज़ बराबर आ रही हो—गोधूलि-काल के मंद प्रकाश में ही तो मैंने तुम्हें सर्वप्रथम देखा था।
मैं कहना चाहता हूँ—अवश्य देखा होगा। ओ अजानी सुंदरी! पर मैं तो विद्यापति नहीं कि इसी घटना को लेकर कोई कविता रच डालूँ।
चीनी-कवि ली पो ने कभी गाया था—दिन की आभा विदा ले रही है, फूल धुंध में छिप गए हैं! सोचता हूँ कि क्या ली-पो ने गोधूलि-काल में धूल का मेघ देख कर ही उसे धुंध से उपमा दी थी। फिर सोचता हूँ कि चीनी कवि ने यह भी तो कहा था—दक्षिण से आ रहे हंसों को न मारो। इन्हें उतर जाने दो। यदि मारना ही है तो जाड़े को मारो और उन्हें ले लो। उन्हें एक दूसरे से जुदा न होने दो! सोचता हूँ इस कविता पर भी गोधूलि-काल के गंभीर चिंतन का प्रभाव अवश्य पड़ा होगा।
याद आती है जापान की एक युद्ध-संबंधी प्रथा की। अभी एक वीर रणभूमि की ओर प्रस्थान कर रहा है। वीर को विदा देने के उपलक्ष्य में घर की स्त्रियों ने पथ पर एक रुमाल बिछा दिया। देखो समीप से गुज़रने वाली नारियाँ अपनी-अपनी सुई से इस रुमाल में एक-एक गूँथ लगाती चली गईं। जो एक हज़ार नारियों की सुइयों के गूँथ पूरे हो चुके। अब यह वीर इस रुमाल को सर पर बाँधकर ख़ुशी से रण-भूमि को जा सकता है। क्योंकि पुरातन विश्वास के अनुसार यह सहस गूंथोंवाला रुमाल एक कवच का काम देता है और युद्ध में मृत्यु से रक्षा करता है। याद आती है एक आधुनिक चीनी कविता जिसमें रूचि लिङ-हु-लिङ-त इस जापानी प्रथा को लक्ष्य करके कहता है—
‘तुम गूंथती हो एक गूंथ आशा का!तुम गूंथती हो एक गूंथ श्रद्धा का!कौन फेंकता है शोकाकुल दृष्टि!स्वस्तिवाचन में प्रकंपित होता है किसका स्वर?आशा परिणत होगी मुट्ठी भर राख में,स्वस्तिवाचन भी होगा म्लान होठों पर,एक करुणा से—मूढ़ता से—प्रेरित विचार वस्त्रखंड पर,एक दुखांत कथा का घृणा से पान मानस में,ओ! सहस्र गूंथ गूंथने में लगी ललनाओ!गूँथो अपने न गिर रहे आश्रमुक्ताफल,गूंथने की सुई का प्रयोग करो ठीक-ठीक,छेद डालो छोटे अवगुंठन को,भेद डालो मत हृदयों कोऔर न खुलनेवाली मोह-निद्रा को!’
सच पूछो तो मुझे यह गोधूलि भी कोई ललना प्रतीत होती है जो अकेली सहस्त्र ललनाओं की तरह मेरे लिए पथ पर बिछे रुमाल में सुई से गूंथ लगा दे। हाँ, एक ही शर्त रहती है और वह यह कि रात भर आराम किया जाए और सवेरे दिन यात्रा आरंभ की जाए। इसीलिए मैं कहता हूँ—गोधूलि! तुम्हें शत-शत प्रणाम! गली, पथ, गृह द्वार—इनकी ओर से भी शत-शत प्रणाम स्वीकार करो। ये सब भीतें, ये सब खपरैल—सभी तुम्हें प्रणाम करते हैं।
समूचा इतिहास चित्र मेरे सम्मुख खुला पड़ा है। इसमें मंदिर से निकल कर घर जाती युवती भी नज़र आ रही है। यहाँ जड़ मोपोती और कृष्ण भगवती सरीखी सुंदर किन्नरियाँ भी है, और रुमाल में सुई से गूंथ लगाती ललनाएँ भी हैं। इसमें देश-विदेश का अंतर नहीं यह अखंड मानवता का इतिहास चित्र जो ठहरा!
गौएँ जंगल से घरों को लौट रही है। गाँव के ये तंग गली-पथ, ये द्वार और वातायन सभी गोधूलि-काल के सम्मुख नतमस्तक से नज़र आते हैं। गोधूलि ही तो है, कोई अपरिचिता नहीं। अरे! यह तो रोज़ आती है। गौएँ रँभाती हैं। वहीं परिचित बोली सुनाई दे रही है।
जिस प्रकार एक कवि पीढ़ियों की उपार्जित कविता को हमारे समीप पहुँचाने का दायित्व निभाते हुए हमें इस कला-निधि का उत्तराधिकारी बनाता है और भविष्य का मार्ग दिखाता है, उसी प्रकार गोधूलि हमसे कहती है—अब विश्राम करो, पिछले अनुभव पर विचार करो। सवेरे फिर से दिन-यात्रा आरंभ करनी होगी।
- पुस्तक : रेखाएं बोल उठीं
- रचनाकार : देवेन्द्र सत्यार्थी
- प्रकाशन : प्रगति प्रकाशन दिल्ली
- संस्करण : 1949
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