वर्तमान की कौन-सी अज्ञात प्रेरणा हमारे अतीत की किसी भूली हुई कथा को संपूर्ण मार्मिकता के साथ दोहरा जाती है यह जान लेना सहज होता तो मैं भी आज गाँव के उस मलिन सहमे नन्हें से विद्यार्थी की सहसा याद आ जाने का कारण बता सकती जो एक छोटी लहर के समान ही मेरे जीवन-तट को अपनी सारी आर्द्रता से छू कर अनंत जल-राशि में विलीन हो गया है।
गंगा पार झूँसी के खँडहर और उसके आस-पास के गाँवों के प्रति मेरा जैसा अकारण आकर्षण रहा है उसे देख कर ही संभवतः लोग जन्म-जन्मांतर के संबंध का व्यंग करने लगे हैं। है भी तो आश्चर्य की बात! जिस अवकाश के समय को लोग इष्ट मित्रों से मिलने, उत्सवों में सम्मिलित होने तथा अन्य आमोद-प्रमोद के लिए सुरक्षित रखते हैं उसी को मैं इस खँडहर और उसके क्षत-विक्षत चरणों पर पछाड़ें खाती हुई भागीरथी के तट पर काट ही नहीं, सुख से काट देती हूँ।
दूर पास बसे हुए गुड़ियों के बड़े-बड़े घरौंदों के समान लगने वाले कुछ लिपे-पुते, कुछ जीर्ण-शीर्ण घरों से स्त्रियों का जो झुंड पीतल ताँबे के चमचमाते, मिट्टी के नए लाल और पुराने भदरंग घड़े लेकर गंगाजल भरने आता है उसे भी मैं पहचान गई हूँ। उनमें कोई बूटेदार लाल, कोई निरी काली, कोई कुछ सफ़ेद और कोई मैल और सूत में अद्वैत स्थापित करने वाली कोई कुछ नई और कोई छेदों से चलनी बनी हुई धोती पहने रहती है। किसी की मोम लगी पाटियों के बीच में एक अँगुल चौड़ी सिंदूर रेखा अस्त होते हुए सूर्य की किरणों में चमक रहती है और किसी की कड़ूवे तेल से भी अपरिचित रूखी जटा बनी हुई छोटी-छोटी लटे मुख को घेर कर उसकी उदासी को और अधिक केंद्रित कर देती है। किसी की साँवली गोल कलाई पर शहर की कढ़ी नगदार चूड़ियों के नग रह-रह कर हीरे-से चमक जाते हैं और किसी के दुर्बल काले पहुँचे पर लाख की पीली-मैली चूड़ियाँ काले पत्थर पर मटमैले चंदन की मोटी लकीरें जान पड़ती हैं। कोई अपने गिलट के कड़े-युक्त हाथ घड़े की ओट में छिपाने का प्रयत्न-सा करती रहती है और कोई चाँदी के पछेली-ककना की झनकार के ताल के साथ ही बात करती है। किसी के कान में लाख की पैसे वाली तरकी धोती से कभी-कभी झाँक भर लेती है और किसी की ढारें लंबी ज़ंजीर से गला और गाल एक करती रहती हैं। किसी के गुदना गुदे गेहुँए पैरों में चाँदी के कड़े सुडौलता की परिधि-सी लगते हैं और किसी की फैली उँगलियों और सफ़ेद एड़ियों के साथ मिली हुई स्याही राँग और काँसे के कड़ों को लोहे की साफ़ की हुई बेड़ियाँ बना देती है।
वे सब पहले हाथ-मुँह धोती हैं फिर पानी में कुछ घुस कर घड़ा भर लेती है−तब घड़ा किनारे रख सिर पर इँडुरी ठीक करती हुई मेरी ओर देख कर कभी मलिन, कभी उजली, कभी दुःख की व्यथा-भरी, कभी सुख की कथा-भरी मुस्कान से मुस्कुरा देती हैं। अपने मेरे बीच का अंतर उन्हें ज्ञात है तभी कदाचित वे इस मुस्कान के सेतु से उसका वार-पार जोड़ना नहीं भूलतीं।
ग्वालों के बालक अपनी चरती हुई गाय भैंसों में से किसी को उस ओर बहकते देख कर ही लकुटी लेकर दौड़ पड़ते हैं, गड़रियों के बच्चे अपने झुंड की एक बकरी या भेड़ को उस ओर बढ़ते देख कर कान पकड़ कर खींच ले जाते हैं और व्यर्थ दिन भर गिल्ली-डंडा खेलने वाले निठल्ले लड़के भी बीच-बीच में नज़र बचा कर मेरा रुख़ देखना नहीं भूलते।
उस पार शहर में दूध बेचने जाते या लौटते हुए ग्वाले क़िले में काम करने जाते या घर आते हुए मज़दूर, नाव बाँधते या खोलते हुए मल्लाह कभी-कभी 'चुनरी त रँगाउब लाल मजीठी हो' गाते गाते मुझ पर दृष्टि पड़ते ही अकचका कर चुप हो जाते हैं। कुछ विशेष सभ्य होने का गर्व करने वालों से मुझे एक सलज्ज नमस्कार भी प्राप्त हो जाता है।
कह नहीं सकती कब और कैसे मुझे उन बालकों को कुछ सिखाने का ध्यान आया। पर जब बिना कार्यकारिणी के निर्वाचन के, बिना पदाधिकारियों के चुनाव के, बिना भवन के, बिना चंदे की अपील के और सारांश यह कि बिना किसी चिरपरिचित समारोह के मेरे विद्यार्थी पीपल के पेड़ की घनी छाया में मेरे चारों ओर एकत्र हो गए तब में बड़ी कठिनाई से गुरु के उपयुक्त गंभीरता का भार वहन कर सकी।
और वे जिज्ञासु कैसे थे सो कैसे बताऊँ! कुछ कानों में बालियाँ और हाथों में कड़े पहने, धुले कुरते और ऊँची मैली धोती में नगर और ग्राम का सम्मिश्रण जान पड़ते थे, कुछ अपने बड़े भाई का पाँच तक लंबा कुरता पहने, खेत में डराने के लिए खड़े किए हुए नक़ली आदमी का स्मरण दिलाते थे, कुछ उभरी पसलियों, बड़े पेट और टेढ़ी दुर्बल टाँगों के कारण अनुमान से ही मनुष्य संतान की परिभाषा में आ सकते थे और कुछ अपने दुर्बल रूखे और मलिन मुखों की करुण सौम्यता और निष्प्रभ पीली आँखों में संसार भर की उपेक्षा बटोरे बैठे थे। पर घीसा उनमें अकेला ही रहा और आज भी मेरी स्मृति में अकेला ही आता है।
वह गोधूली मुझे अब तक नहीं भूली! संध्या के लाल सुनहली आभा वाले उड़ते हुए दुकूल पर रात्रि ने मानो छिप कर अंजन की मूठ चला दी थी। मेरा नाव वाला कुछ चिंतित-सा लहरों की ओर देख रहा था; बूढ़ी भक्तिन मेरी किताबें, काग़ज़ क़लम आदि सँभाल कर नाव पर रख कर, बढ़ते अंधकार पर खिजला कर बुदबुदा रही थी या मुझे कुछ सनकी बनाने वाले विधाता पर, यह समझना कठिन था। बेचारी मेरे साथ रहते-रहते दस लंबे वर्ष काट आई है, नौकरानी से अपने आपको एक प्रकार की अभिभाविका मानने लगी है, परंतु मेरी सनक का दुष्परिणाम सहने के अतिरिक्त उसे क्या मिला है! सहसा ममता से मेरा मन भर आया, परंतु नाव की ओर बढ़ते हुए मेरे पैर, फैलते हुए अंधकार में से एक स्त्री-मूर्ति को अपनी ओर आता देख ठिठक रहे। साँवले कुछ लंबे-से मुखड़े में पतले स्याह ओठ कुछ अधिक स्पष्ट हो रहे थे। आँखें छोटी, पर व्यथा से आर्द्र थीं। मलिन बिना किनारी की गाढ़े की धोती ने उसके सलूका रहित अंगों को भली भाँति ढक लिया था, परंतु तब भी शरीर की सुडौलता का आभास मिल रहा था। कंधे पर हाथ रख कर वह जिस दुर्बल अर्धनंग बालक को अपने पैरों से चिपकाए हुए थी उसे मैंने संध्या के झुटपुटे में ठीक से नहीं देखा।
स्त्री ने रुक-रुक कर कुछ शब्दों और कुछ संकेत में जो कहा उससे मैं केवल यह समझ सकी कि उसके पति नहीं है, दूसरों के घर लीपने पोतने का काम करने वह जाती है और उसका यह अकेला लड़का ऐसे ही घूमता रहता है। मैं इसे भी और बच्चों के साथ बैठने दिया करूँ तो यह कुछ तो सीख सके।
दूसरे इतवार को मैंने उसे सबसे पीछे अकेले एक ओर दुबक कर बैठे हुए देखा। पक्का रंग, पर गठन में विशेष सुडौल मलिन मुख जिसमें दो पीली पर सचेत जड़ी-सी जान पड़ती थीं। कस कर मंद किए हुए पतले होठों की दृढ़ता और सिर पर खड़े हुए छोटे-छोटे रूखे बालों की उग्रता उसके मुख की संकोच-भरी कोमलता से विद्रोह कर रही थी। उभरी हड्डियों वाली गर्दन को सँभाले हुए झुके कंधों से रक्त-हीन मटमैली हथेलियों और टेढ़े-मेढ़े कटे हुए नाख़ूनों युक्त हाथों वाली पतली बाहें ऐसे भूलती थीं जैसे ड्रामा में विष्णु बनने वाले की दो नक़ली भुजाएँ। निरंतर दौड़ते रहने के कारण उस लचीले शरीर में दुबले पैर ही विशेष पुष्ट जान पड़ते थे।−बस ऐसा ही था यह घीसा। न नाम में कवित्व की गुंजाइश न शरीर में।
पर उसकी सचेत आँखों में न जाने कौन-सी जिज्ञासा भरी थी। वे निरंतर घड़ी की तरह खुली मेरे मुख पर टिकी ही रहती थी। मानो मेरी सारी विद्या-बुद्धि को सोख लेना ही उनका ध्येय था।
लड़के उससे कुछ खिँचे-खिँचे-से रहते थे। इसलिए नहीं कि वह कोरी था वरन् इसलिए कि किसी की माँ, किसी की नानी, किसी की बुआ आदि ने घीसा से दूर रहने की नितांत आवश्यकता उन्हें कान पकड़-पकड़ कर समझा दी थी। यह भी उन्हीं ने बताया और बताया घीसा के सबसे अधिक कुरूप नाम का रहस्य। बाप तो जन्म से पहले ही नहीं रहा। घर में कोई देखने-भालने वाला न होने के कारण माँ उसे बंदरिया के बच्चे के समान चिपकाए फिरती थी। उसे एक ओर लिटा कर जब वह मज़दूरी के काम में लग जाती थी तब पेट के बल घिसट-घिसट कर बालक संसार के प्रथम अनुभव के साथ-साथ इस नाम की योग्यता भी प्राप्त करता जाता था।
फिर धीरे-धीरे अन्य स्त्रियाँ भी मुझे आते-जाते रोक कर अनेक प्रकार की भावभंगिमा के साथ एक विचित्र सांकेतिक भाषा में घीसा की जन्म-जात अयोग्यता का परिचय देने लगीं। क्रमश: मैंने उसके नाम के अतिरिक्त और कुछ भी जाना।
उसका बाप था तो कोरी, पर बड़ा ही अभिमान और भला आदमी बनने का इच्छुक। डलिया आदि बुनने का काम छोड़ कर वह थोड़ी बढ़ईगीरी सीख आया और केवल इतना ही नहीं, एक दिन चुपचाप दूसरे गाँव से युवती वधू लाकर उसने अपने गाँव की सब सजातीय सुंदरी बालिकाओं को उपेक्षित और उनके योग्य माता-पिता को निराश कर डाला। मनुष्य इतना अन्याय सह सकता है, परंतु ऐसे अवसर पर भगवान की असहिष्णुता प्रसिद्ध ही है। इसी से जब गाँव के चौखट किवाड़ बना कर और ठाकुरों के घरों में सफ़ेदी करके उसने कुछ ठाट-बाट से रहना आरंभ किया तब अचानक हैज़े के बहाने वह वहाँ बुला लिया गया जहाँ न जाने का बहाना न उसकी बुद्धि सोच सकी न अभिमान। पर स्त्री भी कम गर्वीली न निकली। गाँव के अनेक विधुर और अविवाहित कोरियों ने केवल उदारतावश ही उसकी जीवन नैया पार लगाने का उत्तरदायित्व लेना चाहा, परंतु उसने केवल कोरा उत्तर ही नहीं दिया प्रत्युत् उसे नमकमिर्च लगा कर तीता भी कर दिया। कहा 'हम सिंघ कै मेहरारू होइके का सियारन के जाब।' फिर बिना स्वर-ताल के आँसू गिरा कर, बाल खोल कर, चूड़ियाँ फोड़ कर और बिना किनारे की धोती पहन कर जब उसने बड़े घर की विधवा का स्वाँग भरना आरंभ किया तब तो सारा समाज क्षोभ के समुद्र में डूबने उतराने लगा। उस पर घीसा बाप के मरने के बाद हुआ है। हुआ तो वास्तव में छः महीने बाद, परंतु उस समय के संबंध में क्या कहा जाय जिसका कभी एक क्षण वर्ष सा बीतता है और कभी एक वर्ष क्षण हो जाता है। इसी से यदि वह छः मास का समय रबर की तरह खिंच कर एक साल की अवधि तक पहुँच गया तो इसमें गाँववालों का क्या दोष!
यह कथा अनेक क्षेपकोमय विस्तार के साथ सुनाई तो गई थी मेरा मन फेरने के लिए और मन फिरा भी, परंतु किसी सनातन नियम से कथावाचकों की ओर न फिर कर कथा के नायकों की ओर फिर गया और इस प्रकार घीसा मेरे और अधिक निकट आ गया। जीवन-संबंधी अपवाद कदाचित् पूरा नहीं समझ पाया था, परंतु अधूरे का भी प्रभाव उस पर कम न था क्योंकि यह सबको अपनी छाया से इस प्रकार बचाता रहता था मानो उसे कोई छूत की बीमारी हो।
पढ़ने, उसे सबसे पहले समझने, उसे व्यवहार के समय स्मरण रखने, पुस्तक में एक भी धब्बा न लगाने, स्लेट को चमचमाती रखने और अपने छोटे से छोटे काम का उत्तरदायित्व बड़ी गंभीरता से निभाने में उसके समान कोई चतुर न था। इसी से कभी-कभी मन चाहता था कि उसकी माँ से उसे माँग ले जाऊँ और अपने पास रख कर उसके विकास की उचित व्यवस्था कर दूँ−परंतु उस उपेक्षिता पर मानिनी विधवा का वही एक सहारा था। वह अपने पति का स्थान छोड़ने पर प्रस्तुत न होगी यह भी मेरा मन जानता था और उस बालक के बिना उसका जीवन कितना दुर्बह हो सकता है यह भी मुझसे छिपा न था। फिर नौ साल के कर्तव्यपरायण घीसा की गुरु-भक्ति देख कर उसकी मातृ-भक्त के संबंध में कुछ संदेह करने का स्थान ही नहीं रह जाता था और इस तरह घीसा यहीं और उन्हीं कठोर परिस्थितियों में रहा जहाँ क्रूरतम नियति ने केवल अपने मनोविनोद के लिए ही उसे रख दिया था।
शनिश्वर के दिन ही यह अपने छोटे दुर्बल हाथों से पीपल की छाया को गोबर-मिट्टी से पीला चिकनापन दे आता था। फिर इतवार को माँ के मज़दूरी पर जाते ही एक मैले फटे कपड़े में बंधी मोटी रोटी और कुछ नमक या थोड़ा चना और एक डली गुड़ बग़ल में दबा कर पीपल की छाया को एक बार फिर झाड़ने बुहारने के पश्चात् वह गंगा के तट पर आ बैठता और अपनी पीली सतेज आँखों पर क्षीण साँवले हाथ की छाया कर दूर-दूर तक दृष्टि को दौड़ाता रहता। जैसे ही उसे मेरी नीली सफ़ेद नाथ की झलक दिखाई पड़ती वैसे ही वह अपनी पतली टाँगों पर तीर के समान उड़ता और बिना नाम लिए हुए ही साथियों को सुनाने के लिए गुरु साहब, गुरु साहब कहता हुआ फिर के नीचे पहुँच जाता जहाँ न जाने कितनी बार दुहराए-तिहराए हुए कार्य-कम की एक अंतिम आवृत्ति आवश्यक हो उठती। पेड़ की डाल पर रखी हुई मेरी शीतलपाटी उतार कर बार-बार झाड़ पोंछकर बिछाई जाती, कभी काम न आने वाली सूखी स्याही से काली कच्चे काँच की दवात, टूटे निब और उखड़े हुए रंगवाले भूरे हरे क़लम के साथ पेड़ के कोटर से निकाल कर यथास्थान रख दी जाती और तब इस चित्र पाठशाला का विचित्र मंत्री और निराला विद्यार्थी कुछ आगे बढ़ कर मेरे प्रथम स्वागत के लिए प्रस्तुत हो जाता।
महीने में चार दिन ही मैं वहाँ पहुँच सकती थी और कभी-कभी काम की अधिकता से एक-आध छुट्टी का दिन और भी निकल जाता था, पर उस थोड़े से समय और इने-गिने दिनों में भी मुझे उस बालक के हृदय का जैसा परिचय मिला वह चित्रों के एल्बम के समान निरंतर नवीन सा लगता है।
मुझे आज भी वह दिन नहीं भूलता जब मैंने बिना कपड़ों का प्रबंध किए हुए ही उन बेचारों को सफ़ाई का महत्व समझाते-समझाते थका डालने की मूर्खता की। दूसरे इतवार को सब जैसे के तैसे ही सामने थे−केवल कुछ गंगा जी में मुँह इस तरह धो आए थे कि मैल अनेक रेखाओं में विभक्त हो गया था, कुछ ने हाथ पाँव ऐसे घिसे थे कि शेष मलिन शरीर के साथ वे अलग जोड़े हुए से लगते थे और कुछ 'न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी' की कहावत चरितार्थ करने के लिए कीट से मैले फटे कुरते घर ही छोड़ कर ऐसे अस्थिपंजरमय रूप में उपस्थित हुए थे जिसमें उनके प्राण, 'रहने का आश्चर्य है गए अचंभा कौन' की घोषणा करते जान पड़ते थे। पर घीसा ग़ायब था। पूछने पर लड़के कानाफूसी करने या एक साथ सभी उसकी अनुपस्थिति का कारण सुनाने को आतुर होने लगे। एक-एक शब्द जोड़-तोड़ कर समझना पड़ा कि घीसा माँ से कपड़ा धोने के साबुन के लिए तभी से कह रहा था−माँ को मज़दूरी के पैसे मिले नहीं और दुकान दार ने नाज लेकर साबुन दिया नहीं। कल रात को माँ को पैसे मिले और आज सवेरे वह सब काम छोड़ कर पहले साबुन लेने गई। अभी लौटी है, अतः घीसा कपड़े धो रहा है क्योंकि गुरु साहब ने कहा था कि नहा धोकर कपड़े पहन कर आना और अभागे के पास कपड़े ही क्या थे! किसी दयावती का दिया हुआ एक पुराना कुरता जिसकी एक आस्तीन आधी थी और एक अंगौछा जैसा फटा टुकड़ा। जब घीसा नहा कर गीला अंगौछा लपेटे और आधा भीगा कुरता पहने अपराधी के समान मेरे सामने आ खड़ा हुआ तब आँखें ही नहीं मेरा रोम-रोम गीला हो गया। उस समय समझ में आया कि द्रोणाचार्य ने अपने भील शिष्य से अँगूठा कैसे कटवा लिया था।
एक दिन न जाने क्या सोचकर मैं उन विद्यार्थियों के लिए 5-6 सेर जलेबियाँ ले गई पर कुछ तौलने वाले की सफ़ाई से, कुछ तुलवाने वाले की समझदारी से और कुछ वहाँ की छीना-झपटी के कारण प्रत्येक को पाँच से अधिक न मिल सकीं। एक कहता था मुझे एक कम मिली, दूसरे ने बताया मेरी अमुक ने छीन ली, तीसरे को घर में सोते हुए छोटे भाई के लिए चाहिए, चौथे को किसी और की याद आ गई। पर इस कोलाहल में अपने हिस्से की जलेबियाँ लेकर घीसा कहाँ खिसक गया यह कोई न जान सका। एक नटखट अपने साथी से कह रहा था 'सार एक ठो पिलवा पाले है ओही का देय बरे गा होई' पर मेरी दृष्टि से संकुचित होकर चुप रह गया। और तब तक घीसा लौटा ही। उसका सब हिसाब ठीक था−जलखईवाले छन्ने में दो जलेबियाँ लपेट कर वह भाई के लिए छप्पर में खोंस आया है, एक उसने अपने पाले हुए, बिना माँ के कुत्तों के पिल्ले को खिला दी और दो स्वयं खा लीं। और चाहिए पूछने पर उसकी संकोच-भरी आँखें झुक गर्इं−ओठ कुछ हिले पता चला कि पिल्ले को उससे कम मिली है। दें तो गुरु साहब पिल्ले को ही एक और दे दें।
और होली के पहले की एक घटना तो मेरी स्मृति में ऐसे गहरे रंगों से अंकित है जिनका धुल सकना सहज नहीं। उन दिनों हिंदू मुस्लिम वैमनस्य धीरे-धीरे बढ़ रहा था और किसी दिन उसके चरम सीमा तक पहुँच जाने को पूर्ण संभावना थी। घीसा दो सप्ताह से ज्वर में पड़ा था−दवा मैं भिजवा देती थी परंतु देख-भाल का कोई ठीक प्रबंध न हो पाता था। दो चार दिन उसकी माँ स्वयं बैठी रही फिर एक अंधी बुढ़िया को बैठा कर काम पर जाने लगी।
इतवार की साँझ को मैं यथाक्रम बच्चों को विदा दे घीसा को देखने चली; परंतु पीपल से पचास पग दूर पहुँचते न पहुँचने उसी को डगमगाते पैरों से गिरते-पड़ते अपनी ओर आते देख मेरा मन उद्विग्न हो उठा। वह तो पंद्रह दिन से उठा ही नहीं था, अतः मुझे उसके सन्निपातग्रस्त होने का ही संदेह हुआ। उसके सूखे शरीर में तरल विद्युत-सी दौड़ रही थी, आँखें और भी सतेज और मुख ऐसा था जैसे हल्की आँच में धीरे-धीरे लाल होने वाला लोहे का टुकड़ा।
पर उसके वात-ग्रस्त होने से भी अधिक चिंताजनक उसको समझदारी की कहानी निकली। वह प्यास से जाग गया था पर पानी पास मिला नहीं और अंधी मनियों की आजी से माँगना ठीक न समझ कर वह चुपचाप कष्ट सहने लगा। इतने में भुल्लू के कका ने पार से लौट कर दरवाज़े से ही अंधी को बताया कि शहर में दंगा हो रहा है और तब उसे गुरु साहब का ध्यान आया। मुल्लू के कक्का के हटते ही वह ऐसे हौले-हौले उठा कि बुढ़िया को पता ही न चला और कभी दीवार कभी पेड़ का सहारा लेता-लेता इस ओर भागा। अब वह गुरु साहब के गोड़ धर कर यहीं पड़ा रहेगा पर पार किसी तरह भी जाने देगा।
तब मेरी समस्या और भी जटिल हो गई। पार तो मुझे पहुँचना था ही पर साथ ही बीमार घीसा को ऐसे समझा कर जिससे उसकी स्थिति और गंभीर न हो जाए। पर सदा के संकोची नम्र और आज्ञाकारी घीसा का इस दृढ़ और हठी बालक में पता ही न चलता था। उसने पारसाल ऐसे ही अवसर पर हताहत दो मल्लाह देखे थे और कदाचित इस समय उसका रोग से विकृत मस्तिष्क उन चित्रों में गहरा रंग भर कर मेरी उलझन को और उलका रहा था। पर उसे समझाने का प्रयत्न करते-करते अचानक ही मैंने एक ऐसा तार छू दिया जिसका स्वर मेरे लिए भी नया था। यह सुनते ही कि मेरे पास रेल में बैठ कर दूर-दूर से आए हुए बहुत से विद्यार्थी हैं जो अपनी माँ के पास साल भर में एक बार ही पहुँच पाते हैं और जो मेरे न जाने से अकेले घबरा जाएँगे, घीसा का सारा हठ सारा विरोध ऐसे बह गया जैसे वह कभी था ही नहीं। और तब घीसा के समान तर्क की क्षमता किसमें थी! जो साँझ को अपनी माई के पास नहीं जा सकते उनके पास गुरु साहब को जाना ही चाहिए। घीसा रोकेगा तो उसके भगवान जो ग़ुस्सा हो जाएँगे क्योंकि वे ही तो घीसा को अकेला बेकार घूमता देख कर गुरु साहब को भेज देते हैं आदि-आदि। उसके तर्कों का स्मरण कर आज भी मन भर आता है। परंतु उस दिन मुझे आपत्ति से बचाने के लिए अपने बुख़ार से जलते हुए अशक्त शरीर को घसीट लाने वाले घीसा को जब उसकी टूटी खटिया पर लिटा कर मैं लौटी तब मेरे मन में कौतूहल की मात्रा ही अधिक थी।
इसके उपरांत घीसा अच्छा हो गया और धूल और सूखी पत्तियों को बाँध कर उन्मत्त के समान घूमने व गर्मी की हवा से उसका रोज़ संग्राम छिड़ने लगा−झाड़ते-फाड़ते ही वह पाठशाला धूल-धूसरित होकर, भूरे, पीले और कुछ हरे पत्तों की चादर में छिप कर, तथा कंकालशेष शाख़ाओं में उलझते, सूखे पत्तों को पुकारते वायु की संतप्त सरसर से मुखरित होकर उस भ्रांत बालक को चिढ़ाने लगती, तब मैंने तीसरे पहर से संध्या समय तक वहाँ रहने का निश्चय किया, परंतु पता चला घीसा किसकिसाती आँखों को मलता और पुस्तक से बार-बार धूल झाड़ता हुआ दिन भर वहीं पेड़ के नीचे बैठा रहता है मानो वह किसी प्राचीन युग का तपोव्रती अनगारिक ब्रह्मचारी हो जिसकी तपस्या भंग करने के लिए ही लू के झोंके आते हैं।
इस प्रकार चलते-चलते समय ने जब दाई छूने के लिए दौड़ते हुए बालक के समान झपट कर उस दिन पर उँगली धर दी जब मुझे उन लोगों को छोड़ जाना था तब तो मेरा मन बहुत ही अस्थिर हो उठा। कुछ बालक उदास थे और कुछ खेलने की छुट्टी से प्रसन्न। कुछ जानना चाहते थे कि छुट्टियों के दिन चूने की टिपकियाँ रख कर गिने जाएँ या कोयले की लकीरें खींच कर। कुछ के सामने बरसात में चूते हुए घर में आठ पृष्ठ की पुस्तक बचा रखने का प्रश्न था और कुछ काग़ज़ों पर अकारण को ही चूहों की समस्या का समाधान चाहते थे। ऐसे महत्वपूर्ण कोलाहल में घीसा न जाने कैसे अपना रहना अनावश्यक समझ लेता था, अतः सदा के समान आज भी मैंने उसे न खोज पाया। जब मैं कुछ चिंतित सी वहाँ से चली तब मन भारी-भारी हो रहा था, आँखों में कोहरा-सा घिर-घिर जाता था। वास्तव में उन दिनों डाक्टरों को मेरे पेट में फोड़ा होने का संदेह हो रहा था—ऑपरेशन की संभावना थी। कब लौटेंगी हो रहा या नहीं लौटूँगी यही सोचते-सोचते मैंने फिर कर चारों ओर जो आर्द्र डाली यह कुछ समय तक उन परिचित स्थानों को भेंट कर वहीं उलझ रही।
पृथ्वी के उच्छ्वास के समान उठते हुए धुँधलेपन में वे कच्चे घर आकंठ मग्न हो गए थे−केवल फूस के मटमैले और खपरैल के कत्थई और काले छप्पर, वर्षा में बढ़ी गंगा के मिट्टी जैसे जल में पुरानी नावों के समान जान पड़ते थे। कछार की बालू में दूर तक फैले तरबूज़ और ख़रबूज़ के खेत अपने सिरकी और फूस के मुठियों, टट्टियों और रखवाली के लिए बनी पूर्णकुटियों के कारण जल में बसे किसी आदिम द्वीप का स्मरण दिलाते थे। उनमें एक-दो दिए जल चुके थे तब मैंने दूर पर एक छोटा-सा काला धब्बा आगे बढ़ता देखा। यह घीसा ही होगा यह मैंने दूर से ही जान लिया। आज गुरु साहब को उसे विदा देना है यह उसका नन्हा हृदय अपनी पूरी संवेदन-शक्ति से जान रहा था इसमें संदेह नहीं था परंतु उस उपेक्षित बालक के मन में मेरे लिए कितनी सरल ममता और मेरे बिछोह की कितनी गहरी व्यथा हो सकती है यह जानना मेरे लिए शेष था।
निकट आने पर देखा कि उस धूमिल गोधूली में बादामी काग़ज़ पर काले चित्र के समान लगने वाला नंगे बदन, घीसा एक बड़ा तरबूज़ दोनों हाथों में संभाले था जिसने बीच के कुछ कटे भाग में से भीतर की ईषत-लक्ष्य ललाई चारों ओर के गहरे हरेपन में कुछ खिले कुछ बंद गुलाबी फूल जैसी जान पड़ती थी।
घीसा के पास न पैसा था न खेत—तब क्या वह इसे चुरा लाया है! मन का संदेह बाहर आया ही और तब मैंने जाना कि जीवन का खरा सोना छिपाने के लिए उस मलिन शरीर को बनाने वाला ईश्वर उस बूढ़े आदमी से भिन्न नहीं जो अपनी सोने की मोहर को कच्ची मिट्टी की दीवार में रख कर निश्चिंत हो जाता है। घीसा गुरु साहब से झूठ बोलना भगवान जी से झूठ बोलना समझता है। यह तरबूज़ कई दिन पहले देख आया था। माई के लौटने में न जाने क्यों देर हो गई तब उसे अकेले ही खेत पर जाना पड़ा। वहाँ खेत वाले का लड़का था जिसकी उसके नए कुरते पर बहुत दिन से नज़र थी। प्रायः सुना-सुना कर कहता रहता था कि जिनकी भूख जूठी पत्तल से बुझ सकती है उनके लिए परोसा लगाने वाले पागल होते है। उसने कहा पैसा नहीं है तो कुरता दे जाओ। और घीसा आज तरबूज़ न लेता तो कल उसका क्या करता। इससे कुरता दे आया—पर गुरु साहब को चिंता करने की आवश्यकता नहीं क्योंकि गर्मी में वह कुरता पहनता ही नहीं और जाने-आने के लिए पुराना ठीक रहेगा। तरबूज़ सफ़ेद न हो इसलिए कटवाना पड़ा—मीठा है या नहीं यह देखने के लिए उँगली कुछ निकाल भी लेना पड़ा।
गुरु साहब न लें तो घीसा रात भर रोएगा—छुट्टी भर रोएगा ले जावें तो यह रोज़ नहा-धोकर पेड़ के नीचे पढ़ा हुआ पाठ दोहराता रहेगा और छुट्टी के बाद पूरी किताब पट्टी पर लिख कर दिखा सकेगा।
और तब अपने स्नेह में प्रगल्भ उस बालक के सिर पर हाथ रख कर मैं भावातिरेक से ही निश्चल हो रही। उस तट पर किसी गुरु को किसी शिष्य से कभी ऐसी दक्षिणा मिली होगी ऐसा मुझे विश्वास नहीं, परंतु उस दक्षिणा के सामने संसार के अब तक के सारे आदान-प्रदान फीके जान पड़े।
फिर घीसा के सुख का विशेष प्रबंध कर चली गई और लौटते-लौटते कई महीने लग गए। इस बीच में उसका कोई समाचार न मिलना ही संभव था। जब फिर उस ओर जाने का मुझे अवकाश मिल सका तब घीसा को उसके भगवानजी ने सदा के लिए पढ़ने से अवकाश दे दिया था—आज वह कहानी दोहराने की मुझ में शक्ति नहीं है पर संभव है आज के कल, कल के कुछ दिन, दिनों के मास और मास के वर्ष बन जाने पर मैं दार्शनिक के समान धीर भाव से उस छोटे जीवन का उपेक्षित अंत बता सकूँगी। अभी मेरे लिए इतना ही पर्याप्त है कि मैं अन्य मलिन मुखों में उसकी छाया ढूँढ़ती हूँ।
wartaman ki kaun si agyat prerna hamare atit ki kisi bhuli hui katha ko sampurn marmikta ke sath dohra jati hai ye jaan lena sahj hota to main bhi aaj ganw ke us malin sahne nanhen se widyarthi ki sahsa yaad aa jane ka karan bata sakti jo ek chhoti lahr ke saman hi mere jiwan tat ko apni sari ardrata se chhu kar anant jal rashi mein wilin ho gaya hai
ganga par jhunsi ke khanDahar aur uske aas pas ke ganwon ke prati mera jaisa akaran akarshan raha hai use dekh kar hi sambhwatः log janm janmantar ke sambandh ka wyang karne lage hain hai bhi to ashchary ki baat! jis awkash ke samay ko log isht mitron se milne, utsarwon mein sammilit hone tatha any aamod pramod ke liye surakshait rakhte hain usi ko main is khanDahar aur uske kshatawichat charnon par pachhaDen khati hui bhagirathi ke tat par kat hi nahin, sukh se phat deti hoon
door pas base hue guDiyon ke baDe baDe gharaundon ke saman lagne wale kuch lipe pute, kuch jeern sheern gharon se striyon ka jo jhunD pital tanbe ke chamchamate, mitti ke nae lal aur purane bhadrang ghaDe lekar gangajal bharne aata hai use bhi main pahchan gai hoon unmen koi butedar lal, koi niri kali, koi kuch safed aur koi mail aur soot mein adwait sthapit karne wali koi kuch nai aur koi chhedon se chalni bani hui dhoti pahne rahti hai kisi ki mom lagi patiyon ke beech mein ek angul chauDi sindur rekha ast hote hue surya ki kirnon mein chamak rahti hai aur kisi ki kaDuwe tel se bhi aprichit rusi jata bani hui chhoti chhoti latai mukh ko gher kar uski udasi ko aur adhik kendrit kar deti hai kisi ki sanwli gol kalai par shahr ki kaDhi nagdar chuDiyon ke nag rah rah kar hire se chamak jate hain aur kisi ke durbal kale pahunche par lakh ki pili maili chuDiyan kale patthar par matamaile chandan ki moti lakiren jaan paDti hain koi apne gilat ke kaDe yukt hath ghaDe ki ot mein chhipane ka prayatn sa karti rahti hai aur koi chandi ke pachheli kakna ki jhankar ke tal ke sath hi baat karti hai kisi ke kan mein lakh ki paise wali tarki dhoti se kabhi kami jhank bhar leti hai aur kisi ki Dharen lambi zanjir se gala aur gal ek karti rahti hain kisi ke gudna gude gehune pairon mein chandi ke kaDe suDaulta ki paridhi si lagte hain aur kisi ki phaili ungliyon aur safed eDiyon ke sath mili hui syahi rang aur kanse ke kaDon ko lohe ki saf ki hui beDiyan bana deti hai
we sab pahle hath munh dhoti hain phir pani mein kuch ghus kar ghaDa bhar leti hai−tab ghaDa kinare rakh sir par inDuri theek karti hui meri or dekh kar kabhi malin, kabhi ujli, kabhi duःkh ki wyatha bhari, kabhi sukh ki katha bhari muskan se muskura deti hain apne mere beech ka antar unhen gyat hai tabhi kadachit we is muskan ke setu se uska war par joDna nahin bhultin
gwalon ke balak apni charti hui gay bhainson mein se kisi ko us or bahakte dekh kar hi lakuti lekar dauD paDte hain, gaDariyon ke bachche apne jhunD ki ek bakri ya bheD ko us or baDhte dekh kar kan pakaD kar kheench le jate hain aur byarth din bhar gilli DanDa khelne wale nithalle laDke bhi beech beech mein nazar bacha kar mera rukh dekhana nahin bhulte
us par shahr mein doodh bechne jate ya lautte hue wale qile mein kaam karne jate ya ghar aate hue mazdur, naw bandhte ya kholte hue mallah kabhi kabhi ‘chunari t rangaub lal majithi ho gate gate mujh par drishti paDte hi akachka kar chup ho jate hain kuch wishesh sabhy hone ka garw karne walon se mujhe ek salaj namaskar bhi prapt ho jata hai
kah nahin sakti kab aur kaise mujhe un balkon ko kuch sikhane ka dhyan aaya par jab bina karyakarinai ke nirwachan ke, bina padadhikariyon ke chunaw ke, bina bhawan ke, bina chande ki appeal ke aur saransh ye ki bina kisi chiraprichit samaroh ke mere widyarthi pipal ke peD ki ghani chhaya mein mere charon or ekatr ho gaye tab mein baDi kathinai se guru ke upyukt gambhirta ka bhaar wahn kar saki
aur we jigyasu kaise the so kaise bataun! kuch kanon mein baliyan aur hathon mein kaDe pahne, dhule kurte aur unchi maili dhoti mein nagar aur gram ka sammishran jaan paDte the, kuch apne baDe bhai ka panch tak lamba kurta pahne, khet mein Darane ke liye khaDe kiye hue naqli adami ka smarn dilate the, kuch ubhri pasaliyon, baDe pet aur teDhi durbal tangon ke karan anuman se hi manushya santan ki paribhasha mein aa sakte the aur kuch apne durbal rukhe aur malin mukhon ki karun saumyata aur nishprabh pili ankhon mein sansar bhar ki upeksha batore baithe the par ghisa unmen akela hi raha aur aaj bhi meri smriti mein akela hi aata hai
wo godhuli mujhe ab tak nahin bhuli! sandhya ke lal sunahli aabha wale uDte hue dukul par ratri ne mano chhip kar anjan ki mooth chala di thi mera naw wala kuch chintit sa lahron ki or dekh raha tha; buDhi bhaktin meri kitaben, kaghaz qalam aadi sanbhal kar naw par rakh kar, baDhte andhkar par khijla kar budbuda rahi thi ya mujhe kuch sanki banane wale widhata par, ye samajhna kathin tha bechari mere sath rahte rahte das lambe warsh kat i hai, naukarani se apne aapko ek prakar ki abhibhawika manne lagi hai, parantu meri sanak ka dushparinam sahne ke atirikt use kya mila hai! sahsa mamta se mera man bhar aaya, parantu naw ki or baDhte hue mere pair, phailte hue andhkar mein se ek istri murti ko apni or aata dekh thithak rahe sanwle kuch lambe se mukhDe mein patle syah oth kuch adhik aspasht ho rahe the ankhen chhoti, par wyatha se i theen malin bina kinari ki gaDhe ki dhoti ne uske saluka rahit angon ko bhali bhanti Dhak liya tha, parantu tab bhi sharir ki suDaulta ka abhas mil raha tha kandhe par hath rakh kar wo jis durbal ardhnang balak ko apne pairon se chipkaye hue thi use mainne sandhya ke jhutpute mein theek se nahin dekha
istri ne ruk ruk kar kuch shabdon aur kuch sanket mein jo kaha usse mein kewal ye samajh saki ki uske pati nahin hai, dusron ke ghar lipne potne ka kaam karne wo jati hai aur uska ye akela laDka aise hi ghumta rahta hai main ise bhi aur bachchon ke sath baithne diya karun to ye kuch to seekh sake
dusre itwar ko mainne use sabse pichhe akele ek or dubak kar baithe hue dekha pakka rang, par gathan mein wishesh suDaul malin mukh jismen do pili par sachet jaDi si jaan paDti theen kas kar mand kiye hue patle hothon ki driDhta aur sir par khaDe hue chhote chhote rukhe balon ki ugrata uske mul ki sankoch bhari komalta se widroh kar rahi thi ubhri haDDiyon wali gardan ko sambhale hue jhuke kandhon se rakt heen matmaili hatheliyon aur teDhe meDhe kate hue nakhunon yukt hathon wali patli bahen aise bhulti theen jaise Drama mein wishnu banne wale ki do naqli bhujayen nirantar dauDte rahne ke karan us lachile sharir mein duble pair hi wishesh pusht jaan paDte the −bus aisa hi tha ye ghisa na nam mein kawitw ki gunjaish na sharir mein
par uski sachet ankhon mein na jane kaun si jigyasa bhari thi we nirantar ghaDi ki tarah khuli mere mukh par tiki hi rahti thi mano meri sari widdya buddhi ko sokh lena hi unka dhyey tha
laDke usse kuch khinche khinche se rahte the isliye nahin ki wo kori tha paran isliye ki kisi ki man, kisi ki nani, kisi ki bua aadi ne ghisa se door rahne ki nitant awashyakta unhen kan pakaD pakaD kar samjha di thi ye bhi unhin ne bataya aur bataya ghisa ke sabse adhik kurup nam ka rahasy bap to janm se pahle hi nahin raha ghar mein koi dekhne bhalne wala na hone ke karan man use bandariya ke bachche ke saman chipkaye phirti thi use ek or lita kar jab wo mazduri ke kaam mein lag jati thi tab pet ke bal ghisat ghisat kar balak sansar ke pratham anubhaw ke sath sath is nam ki yogyata bhi prapt karta jata tha
phir dhire dhire any striyan bhi mujhe aate jate rok kar anek prakar ki bhawbhangima ke sath ek wichitr sanketik bhasha mein ghisa ki janm jat ayogyata ka parichai dene lagin kramshah mainne uske nam ke atirikt aur kuch bhi jana
uska bap tha to kori, par baDa hi abhiman aur bhala adami banne ka ichchhuk Daliya aadi bunne ka kaam chhoD kar wo thoDi baDhigiri seekh aaya aur kewal itna hi nahin, ek din chupchap dusre ganw se yuwati wadhu lakar usne apne ganw ki sab sajatiy sundri balikaon ko upekshait aur unke yogya mata pita ko nirash kar Dala manushya itna annyaye sah sakta hai, parantu aise awsar par bhagwan ki ashishnauta prasiddh hi hai isi se jab ganw ke chaukhat kiwaD bana kar aur thakuron ke gharon mein safedi karke usne kuch that baat se rahna arambh kiya tab achanak haize ke bahane wo wahan bula liya gaya jahan na jane ka bahana na uski buddhi soch saki na abhiman par istri bhi kam garwili na nikli ganw ke anek widhur aur awiwahit koriyon ne kewal udartawash hi uski jiwan naiya par lagane ka uttardayitw lena chaha, parantu usne kewal kora uttar hi nahin diya pratyut use namakmirch laga kar tita bhi kar diya kaha hum singh kai mehraru hoike ka siyaran ke jab phir bina swar tal ke ansu gira kar, baal khol kar, chuDiyan phoD kar aur bina kinare ki dhoti pahan kar jab usne baDe ghar ki widhwa ka swang bharna arambh kiya tab to sara samaj kshaobh ke samudr mein Dubne utrane laga us par ghisa bap ke marne ke baad hua hai hua to wastaw mein chhः mahine baad, parantu us samay ke sambandh mein kya kaha jay jiska kabhi ek kshan warsh sa bitta hai aur kabhi ek warsh kshan ho jata hai isi se yadi wo chhः mas ka samay rabar ki tarah khinch kar ek sal ki awadhi tak pahunch gaya to ismen ganwwalon ka kya dosh!
ye katha anek kshepkomay wistar ke sath sunai to gai thi mera man pherne ke liye aur man phira bhi, parantu kisi sanatan niyam se kathawachkon ki or na phir kar katha ke naykon ki or phir gaya aur is prakar ghisa mere aur adhik nikat aa gaya jiwan sambandhi apwad kadachit pura nahin samajh paya tha, parantu adhure ka bhi prabhaw us par kam na tha kyonki ye sabko apni chhaya se is prakar bachata rahta tha mano use koi chhoot ki bimari ho
paDhne, use sabse pahle samajhne, use wywahar ke samay smarn rakhne, pustak mein ek bhi dhabba na lagane, slet ko chamchamati rakhne aur apne chhote se chhote kaam ka uttardayitw baDi gambhirta se nibhane mein uske saman koi chatur na tha isi se kabhi kabhi man chahta tha ki uski man se use mang le jaun aur apne pas rakh kar uske wikas ki uchit wyawastha kar dun−parantu us upekshita par manini widhwa ka wahi ek sahara tha wo apne pati ka sthan chhoDne par prastut na hogi ye bhi mera man janta tha aur us balak ke bina uska jiwan kitna durbah ho sakta hai ye bhi mujhse chhipa na tha phir nau sal ke kartawyaprayan ghisa ki guru bhakti dekh kar uski matri bhakt ke sambandh mein kuch sandeh karne ka sthan hi nahin rah jata tha aur is tarah ghisa yahin aur unhin kathor paristhitiyon mein raha jahan krurtam niyti ne kewal apne manowinod ke liye hi use rakh diya tha
shanishwar ke din hi ye apne chhote durbal hathon se pipal ki chhaya ko gobar mitti se pila chiknapan de aata tha phir itwar ko man ke mazduri par jate hi ek maile phate kapDe mein bandhi moti roti aur kuch namak ya thoDa chana aur ek Dali guD baghal mein daba kar pipal ki chhaya ko ek bar phir jhaDne buharne ke pashchat wo ganga ke tat par aa baithta aur apni pili satej ankhon par kshain sanwle hath ki chhaya kar door door tak drishti ko dauData rahta jaise hi use meri nili safed nath ki jhalak dikhai paDti waise hi wo apni patli tangon par teer ke saman uDta aur bina nam liye hue hi sathiyon ko sunane ke liye guru sahab, guru sahab kahta hua phir ke niche pahunch jata jahan na jane kitni bar duhraye tihraye hue kary kam ki ek antim awritti awashyak ho uthti peD ki Dal par rakhi hui meri shitalpati utar kar bar bar jhaD ponchhkar bichhai jati, kabhi kaam na anewali sukhi syahi se kali kachche kanch ki dawat, tute nib aur ukhDe hue rangwale bhure hare qalam ke sath peD ke kotar se nikal kar yathasthan rakh di jati aur tab is chitr pathashala ka wichitr mantri aur nirala widyarthi kuch aage baDh kar mere pratham swagat ke liye prastut ho jata
mahine mein chaar din hi main wahan pahunch sakti thi aur kabhi kabhi kaam ki adhikta se ek aadh chhutti ka din aur bhi nikal jata tha, par us thoDe se samay aur ine gine dinon mein bhi mujhe us balak ke hirdai ka jaisa parichai mila wo chitron ke album ke saman nirantar nawin sa lagta hai
mujhe aaj bhi wo din nahin bhulta jab mainne bina kapDon ka prbandh kiye hue hi un becharon ko safai ka mahatw samjhate samjhate thaka Dalne ki murkhata ki dusre itwar ko sab jaise ke taise hi samne the−kewal kuch ganga ji mein munh is tarah dho aaye the ki mail anek rekhaon mein wibhakt ho gaya tha, kuch ne hath panw aise ghise the ki shesh malin sharir ke sath we alag joDe hue se lagte the aur kuch na rahega bans na bajegi bansuri ki kahawat charitarth karne ke liye keet se maile phate ghar hi chhoD kar aise asthipanjarmay roop mein upasthit hue the jismen unke paran, rahne ka ashchary hai gaye achambha kaun ki ghoshana karte jaan paDte the par ghisa ghayab tha puchhne par laDke kanaphusi karne ya ek sath sabhi uski anupasthiti ka karan sunane ko aatur hone lage ek ek shabd joD toD kar samajhna paDa ki ghisa man se kapDa dhone ke sabun ke liye tabhi se kah raha tha−man ko mazduri ke paise mile nahin aur dukan dar ne naj lekar sabun diya nahin kal raat ko man ko paise mile aur aaj sawere wo sab kaam chhoD kar pahle sabun lene gai abhi lauti hai, atः ghisa kapDe dho raha hai kyonki guru sahab ne kaha tha ki nha dhokar kapDe pahan kar aana aur abhage ke pas kapDe hi kya the! kisi dayawati ka diya hua ek purana kurta jiski ek astin aadhi thi aur ek angauchha jaisa phata tukDa jab ghisa nha kar gila angauchha lapete aur aadha bhiga kurta pahne apradhi ke saman mere samne aa khaDa hua tab ankhen hi nahin mera rom rom gila ho gaya us samay samajh mein aaya ki dronachary ne apne bheel shishya se angutha kaise katwa liya tha
ek din na jane kya sochkar main un widyarthiyon ke liye 5 6 ser jalebiyan le gai par kuch taulnewale ki safai se, kuch tulwane wale ki samajhdari se aur kuch wahan ki chhina jhapti ke karan pratyek ko panch se adhik na mil sakin ek kahta tha mujhe ek kam mili, dusre ne bataya meri amuk ne chheen li, tisre ko ghar mein sote hue chhote bhai ke liye chahiye, chauthe ko kisi aur ki yaad aa gai par is kolahal mein apne hisse ki jalebiyan lekar ghisa kahan khisak gaya ye koi na jaan saka ek natkhat apne sathi se kah raha tha sar ek tho pilwa pale hai ohi ka dey bare ga hoi par meri drishti se sankuchit hokar chup rah gaya aur tab tak ghisa lauta hi uska sab hisab theek tha−jalakhiwale chhanne mein do jalebiyan lapet kar wo bhai ke liye chhappar mein khons aaya hai, ek usne apne pale hue, bina man ke kutton ke pille ko khila di aur do swayan kha leen aur chahiye puchhne par uski sankoch bhari ankhen jhuk garin−oth kuch hile pata chala ki pille ko usse kam mili hai den to guru sahab pille ko hi ek aur de den
aur holi ke pahle ki ek ghatna to meri smriti mein aise gahre rangon se ankit hai jinka dhul sakna sahj nahin un dinon hindu muslim waimanasy dhire dhire baDh raha tha aur kisi din uske charam sima tak pahunch jane ko poorn sambhawna thi ghisa do saptah se jwar mein paDa tha−dawa main bhijwa deti thi parantu dekh bhaal ka koi theek prbandh na ho pata tha do chaar din uski man swayan baithi rahi phir ek andhi buDhiya ko baitha kar kaam par jane lagi
itwar ki sanjh ko main yathakram bachchon ko wida de ghisa ko dekhne chali; parantu pipal se pachas pag door pahunchte na pahunchne usi ko Dagmagate pairon se girte paDte apni or aate dekh mera man udwign ho utha wo to pandrah din se utha hi nahin tha, atः mujhe uske sannipatagrast hone ka hi sandeh hua uske sukhe sharir mein taral widyut si dauD rahi thi, ankhen aur bhi satej aur mukh aisa tha jaise halki anch mein dhire dhire lal hone wala lohe ka tukDa
par uske wat grast hone se bhi adhik chintajnak usko samajhdari ki kahani nikli wo pyas se jag gaya tha par pani pas mila nahin aur andhi maniyon ki aaji se mangna theek na samajh kar wo chupchap kasht sahne laga itne mein mullu ke kaka ne par se laut kar darwaze se hi andhi ko bataya ki shahr mein danga ho raha hai aur tab use guru sahab ka dhyan aaya mullu ke kakka ke hatte hi wo aise haule haule utha ki buDhiya ko pata hi na chala aur kabhi diwar kabhi peD ka sahara leta leta is or bhaga ab wo guru sahab ke goD dhar kar yahin paDa rahega par par kisi tarah bhi jane dega
tab meri samasya aur bhi jatil ho gai par to mujhe pahunchna tha hi par sath hi bimar ghisa ko aise samjha kar jisse uski sthiti aur gambhir na ho jaye par sada ke sankochi namr aur agyakari ghisa ka is driDh aur hathi balak mein pata hi na chalta tha usne parasal aise hi awsar par hatahat do mallah dekhe the aur kadachit is samay uska rog se wikrt mastishk un chitron mein gahra rang bhar kar meri uljhan ko aur ulka raha tha par use samjhane ka prayatn karte karte achanak hi mainne ek aisa tar chhu diya jiska swar mere liye bhi naya tha ye sunte hi ki mere pas rail mein baith kar door door se aaye hue bahut se widyarthi hain jo apni man ke pas sal bhar mein ek bar hi pahunch pate hain aur jo mere na jane se akele ghabra jayenge, ghisa ka sara hath sara wirodh aise bah gaya jaise wo kabhi tha hi nahin aur tab ghisa ke saman tark ki kshamata kismen thee! jo sanjh ko apni mai ke pas nahin ja sakte unke pas guru sahab ko jana hi chahiye ghisa rokega to uske bhagwan jo ghussa ho jayenge kyonki we hi to ghisa ko akela bekar ghumta dekh kar guru sahab ko bhej dete hain aadi aadi uske tarkon ka smarn kar aaj bhi man bhar aata hai parantu us din mujhe apatti se bachane ke liye apne bukhar se jalte hue ashakt sharir ko ghasit lane wale ghisa ko jab uski tuti khatiya par lita kar main lauti tab mere man mein kautuhal ki matra hi adhik thi
iske uprant ghisa achchha ho gaya aur dhool aur sukhi pattiyon ko bandh kar unmatt ke saman ghumne wa garmi ki hawa se uska roz sangram chhiDne laga−jhaDte phaDte hi wo pathashala dhool dhusarit hokar, bhure, pile aur kuch hare patton ki chadar mein chhip kar, tatha kankalshep shakhaon mein ulajhte, sukhe patton ko pukarte wayu ki santapt sarsar se mukhrit hokar us bhrant balak ko chiDhane lagti, tab mainne tisre pahar se sandhya samay tak wahan rahne ka nishchay kiya, parantu pata chala ghisa kisakisati ankhon ko malta aur pustak se bar bar dhool jhaDta hua din bhar wahin peD ke niche baitha rahta hai mano wo kisi prachin yug ka tapowrti angarik brahamchari ho jiski tapasya bhang karne ke liye hi lu ke jhonke aate hain
is prakar chalte chalte samay ne jab dai chhune ke liye dauDte hue balak ke saman jhapat kar us din par ungli dhar di jab mujhe un logon ko chhoD jana tha tab to mera man bahut hi asthir ho utha kuch balak udas the aur kuch khelne ki chhutti se prasann kuch janna chahte the ki chhuttiyon ke din chune ki tipakiyan rakh kar gine jayen ya koyle ki lakiren kheench kar kuch ke samne barsat mein chute hue ghar mein aath prishth ki pustak bacha rakhne ka parashn tha aur kuch kaghzon par akaran ko hi chuhon ki samasya ka samadhan chahte the aise mahatwapurn kolahal mein ghisa na jane kaise apna rahna anawashyak samajh leta tha, atः sada ke saman aaj bhi mainne use na khoj paya jab main kuch chintit si wahan se chali tab man bhari bhari ho raha tha, ankhon mein kohara sa ghir ghir jata tha wastaw mein un dinon Daktron ko mere pet mein phoDa hone ka sandeh ho raha tha—operation ki sambhawna thi kab lautengi ho raha ya nahin lautungi yahi sochte sochte mainne phir kar charon or jo aardr Dali ye kuch samay tak un parichit sthanon ko bhent kar wahin ulajh rahi
prithwi ke uchchhwas ke saman uthte hue dhundhlepan mein we kachche ghar akanth magn ho gaye the−kewal phoos ke matamaile aur khaprail ke katthai aur kale chhappar, warsha mein baDhi ganga ke mitti jaise jal mein purani nawon ke saman jaan paDte the kachhar ki balu mein door tak phaile tarbuz aur kharbuz ke khet apne sirki aur phoos ke muthiyon, tattiyon aur rakhwali ke liye bani purnakutiyon ke karan jal mein base kisi aadim dweep ka smarn dilate the unmen ek do diye jal chuke the tab mainne door par ek chhota sa kala dhabba aage baDhta dekha ye ghisa hi hoga ye mainne door se hi jaan liya aaj guru sahab ko use wida dena hai ye uska nanha hirdai apni puri sanwedan shakti se jaan raha tha ismen sandeh nahin tha parantu us upekshait balak ke man mein mere liye kitni saral mamta aur mere wichhoh ki kitni gahri wyatha ho sakti hai ye janna mere liye shesh tha
nikat aane par dekha ki us dhumil godhuli mein badami kaghaz par kale chitr ke saman lagne wala nange badan, ghisa ek baDa tarbuz donon hathon mein samhale tha jisne beech ke kuch kate bhag mein se bhitar ki ishat lakshya lalai charon or ke gahre harepan mein kuch khile kuch band gulabi phool jaisi jaan paDti thi
ghisa ke pas na paisa tha na khet—tab kya wo ise chura laya hai! man ka sandeh bahar aaya hi aur tab mainne jana ki jiwan ka khara sona chhipane ke liye us malin sharir ko banane wala ishwar us buDhe adami se bhinn nahin jo apni sone ki mohar ko kachchi mitti ki diwar mein rakh kar nishchint ho jata hai ghisa guru sahab se jhooth bolna bhagwan ji se jhooth bolna samajhta hai ye tarbuz kai din pahle dekh aaya tha mai ke lautne mein na jane kyon der ho gai tab use akele hi khet par jana paDa wahan khet wale ka laDka tha jiski uske nae kurte par bahut din se nazar thi prayः suna suna kar kahta rahta tha ki jinki bhookh juthi pattal se bujh sakti hai unke liye parosa lagane wale pagal hote hai usne kaha paisa nahin hai to kurta de jao aur ghisa aaj tarbuz na leta to kal uska kya karta isse kurta de aya—par guru sahab ko chinta karne ki awashyakta nahin kyonki garmi mein wo kurta pahanta hi nahin aur jane aane ke liye purana theek rahega tarbuz safed na ho isliye katwana paDa—mitha hai ya nahin ye dekhne ke liye ungli kuch nikal bhi lena paDa
guru sahab na len to ghisa raat bhar roega—chhutti bhar roega le jawen to ye roz nha dhokar peD ke niche paDha hua path dohrata rahega aur chhutti ke baad puri kitab patti par likh kar dikha sakega
aur tab apne sneh mein pragalbh us balak ke sir par hath rakh kar main bhawatirek se hi nishchal ho rahi us tat par kisi guru ko kisi shishya se kabhi aisi dachchhina mili hogi aisa mujhe wishwas nahin, parantu us dachchhina ke samne sansar ke ab tak ke sare adan pradan phike jaan paDe
phir ghisa ke sukh ka wishesh prbandh kar chali gai aur lautte lautte kai mahine lag gaye is beech mein uska koi samachar na milna hi sambhaw tha jab phir us or jane ka mujhe awkash mil saka tab ghisa ko uske bhagwanji ne sada ke liye paDhne se awkash de diya tha—aj wo kahani dohrane ki mujh mein shakti nahin hai par sambhaw hai aaj ke kal, kal ke kuch din, dinon ke mas aur mas ke warsh ban jane par main darshanik ke saman dheer bhaw se us chhote jiwan ka upekshait ant bata sakungi abhi mere liye itna hi paryapt hai ki main any malin mukhon mein uski chhaya DhunDhati hoon
wartaman ki kaun si agyat prerna hamare atit ki kisi bhuli hui katha ko sampurn marmikta ke sath dohra jati hai ye jaan lena sahj hota to main bhi aaj ganw ke us malin sahne nanhen se widyarthi ki sahsa yaad aa jane ka karan bata sakti jo ek chhoti lahr ke saman hi mere jiwan tat ko apni sari ardrata se chhu kar anant jal rashi mein wilin ho gaya hai
ganga par jhunsi ke khanDahar aur uske aas pas ke ganwon ke prati mera jaisa akaran akarshan raha hai use dekh kar hi sambhwatः log janm janmantar ke sambandh ka wyang karne lage hain hai bhi to ashchary ki baat! jis awkash ke samay ko log isht mitron se milne, utsarwon mein sammilit hone tatha any aamod pramod ke liye surakshait rakhte hain usi ko main is khanDahar aur uske kshatawichat charnon par pachhaDen khati hui bhagirathi ke tat par kat hi nahin, sukh se phat deti hoon
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we sab pahle hath munh dhoti hain phir pani mein kuch ghus kar ghaDa bhar leti hai−tab ghaDa kinare rakh sir par inDuri theek karti hui meri or dekh kar kabhi malin, kabhi ujli, kabhi duःkh ki wyatha bhari, kabhi sukh ki katha bhari muskan se muskura deti hain apne mere beech ka antar unhen gyat hai tabhi kadachit we is muskan ke setu se uska war par joDna nahin bhultin
gwalon ke balak apni charti hui gay bhainson mein se kisi ko us or bahakte dekh kar hi lakuti lekar dauD paDte hain, gaDariyon ke bachche apne jhunD ki ek bakri ya bheD ko us or baDhte dekh kar kan pakaD kar kheench le jate hain aur byarth din bhar gilli DanDa khelne wale nithalle laDke bhi beech beech mein nazar bacha kar mera rukh dekhana nahin bhulte
us par shahr mein doodh bechne jate ya lautte hue wale qile mein kaam karne jate ya ghar aate hue mazdur, naw bandhte ya kholte hue mallah kabhi kabhi ‘chunari t rangaub lal majithi ho gate gate mujh par drishti paDte hi akachka kar chup ho jate hain kuch wishesh sabhy hone ka garw karne walon se mujhe ek salaj namaskar bhi prapt ho jata hai
kah nahin sakti kab aur kaise mujhe un balkon ko kuch sikhane ka dhyan aaya par jab bina karyakarinai ke nirwachan ke, bina padadhikariyon ke chunaw ke, bina bhawan ke, bina chande ki appeal ke aur saransh ye ki bina kisi chiraprichit samaroh ke mere widyarthi pipal ke peD ki ghani chhaya mein mere charon or ekatr ho gaye tab mein baDi kathinai se guru ke upyukt gambhirta ka bhaar wahn kar saki
aur we jigyasu kaise the so kaise bataun! kuch kanon mein baliyan aur hathon mein kaDe pahne, dhule kurte aur unchi maili dhoti mein nagar aur gram ka sammishran jaan paDte the, kuch apne baDe bhai ka panch tak lamba kurta pahne, khet mein Darane ke liye khaDe kiye hue naqli adami ka smarn dilate the, kuch ubhri pasaliyon, baDe pet aur teDhi durbal tangon ke karan anuman se hi manushya santan ki paribhasha mein aa sakte the aur kuch apne durbal rukhe aur malin mukhon ki karun saumyata aur nishprabh pili ankhon mein sansar bhar ki upeksha batore baithe the par ghisa unmen akela hi raha aur aaj bhi meri smriti mein akela hi aata hai
wo godhuli mujhe ab tak nahin bhuli! sandhya ke lal sunahli aabha wale uDte hue dukul par ratri ne mano chhip kar anjan ki mooth chala di thi mera naw wala kuch chintit sa lahron ki or dekh raha tha; buDhi bhaktin meri kitaben, kaghaz qalam aadi sanbhal kar naw par rakh kar, baDhte andhkar par khijla kar budbuda rahi thi ya mujhe kuch sanki banane wale widhata par, ye samajhna kathin tha bechari mere sath rahte rahte das lambe warsh kat i hai, naukarani se apne aapko ek prakar ki abhibhawika manne lagi hai, parantu meri sanak ka dushparinam sahne ke atirikt use kya mila hai! sahsa mamta se mera man bhar aaya, parantu naw ki or baDhte hue mere pair, phailte hue andhkar mein se ek istri murti ko apni or aata dekh thithak rahe sanwle kuch lambe se mukhDe mein patle syah oth kuch adhik aspasht ho rahe the ankhen chhoti, par wyatha se i theen malin bina kinari ki gaDhe ki dhoti ne uske saluka rahit angon ko bhali bhanti Dhak liya tha, parantu tab bhi sharir ki suDaulta ka abhas mil raha tha kandhe par hath rakh kar wo jis durbal ardhnang balak ko apne pairon se chipkaye hue thi use mainne sandhya ke jhutpute mein theek se nahin dekha
istri ne ruk ruk kar kuch shabdon aur kuch sanket mein jo kaha usse mein kewal ye samajh saki ki uske pati nahin hai, dusron ke ghar lipne potne ka kaam karne wo jati hai aur uska ye akela laDka aise hi ghumta rahta hai main ise bhi aur bachchon ke sath baithne diya karun to ye kuch to seekh sake
dusre itwar ko mainne use sabse pichhe akele ek or dubak kar baithe hue dekha pakka rang, par gathan mein wishesh suDaul malin mukh jismen do pili par sachet jaDi si jaan paDti theen kas kar mand kiye hue patle hothon ki driDhta aur sir par khaDe hue chhote chhote rukhe balon ki ugrata uske mul ki sankoch bhari komalta se widroh kar rahi thi ubhri haDDiyon wali gardan ko sambhale hue jhuke kandhon se rakt heen matmaili hatheliyon aur teDhe meDhe kate hue nakhunon yukt hathon wali patli bahen aise bhulti theen jaise Drama mein wishnu banne wale ki do naqli bhujayen nirantar dauDte rahne ke karan us lachile sharir mein duble pair hi wishesh pusht jaan paDte the −bus aisa hi tha ye ghisa na nam mein kawitw ki gunjaish na sharir mein
par uski sachet ankhon mein na jane kaun si jigyasa bhari thi we nirantar ghaDi ki tarah khuli mere mukh par tiki hi rahti thi mano meri sari widdya buddhi ko sokh lena hi unka dhyey tha
laDke usse kuch khinche khinche se rahte the isliye nahin ki wo kori tha paran isliye ki kisi ki man, kisi ki nani, kisi ki bua aadi ne ghisa se door rahne ki nitant awashyakta unhen kan pakaD pakaD kar samjha di thi ye bhi unhin ne bataya aur bataya ghisa ke sabse adhik kurup nam ka rahasy bap to janm se pahle hi nahin raha ghar mein koi dekhne bhalne wala na hone ke karan man use bandariya ke bachche ke saman chipkaye phirti thi use ek or lita kar jab wo mazduri ke kaam mein lag jati thi tab pet ke bal ghisat ghisat kar balak sansar ke pratham anubhaw ke sath sath is nam ki yogyata bhi prapt karta jata tha
phir dhire dhire any striyan bhi mujhe aate jate rok kar anek prakar ki bhawbhangima ke sath ek wichitr sanketik bhasha mein ghisa ki janm jat ayogyata ka parichai dene lagin kramshah mainne uske nam ke atirikt aur kuch bhi jana
uska bap tha to kori, par baDa hi abhiman aur bhala adami banne ka ichchhuk Daliya aadi bunne ka kaam chhoD kar wo thoDi baDhigiri seekh aaya aur kewal itna hi nahin, ek din chupchap dusre ganw se yuwati wadhu lakar usne apne ganw ki sab sajatiy sundri balikaon ko upekshait aur unke yogya mata pita ko nirash kar Dala manushya itna annyaye sah sakta hai, parantu aise awsar par bhagwan ki ashishnauta prasiddh hi hai isi se jab ganw ke chaukhat kiwaD bana kar aur thakuron ke gharon mein safedi karke usne kuch that baat se rahna arambh kiya tab achanak haize ke bahane wo wahan bula liya gaya jahan na jane ka bahana na uski buddhi soch saki na abhiman par istri bhi kam garwili na nikli ganw ke anek widhur aur awiwahit koriyon ne kewal udartawash hi uski jiwan naiya par lagane ka uttardayitw lena chaha, parantu usne kewal kora uttar hi nahin diya pratyut use namakmirch laga kar tita bhi kar diya kaha hum singh kai mehraru hoike ka siyaran ke jab phir bina swar tal ke ansu gira kar, baal khol kar, chuDiyan phoD kar aur bina kinare ki dhoti pahan kar jab usne baDe ghar ki widhwa ka swang bharna arambh kiya tab to sara samaj kshaobh ke samudr mein Dubne utrane laga us par ghisa bap ke marne ke baad hua hai hua to wastaw mein chhः mahine baad, parantu us samay ke sambandh mein kya kaha jay jiska kabhi ek kshan warsh sa bitta hai aur kabhi ek warsh kshan ho jata hai isi se yadi wo chhः mas ka samay rabar ki tarah khinch kar ek sal ki awadhi tak pahunch gaya to ismen ganwwalon ka kya dosh!
ye katha anek kshepkomay wistar ke sath sunai to gai thi mera man pherne ke liye aur man phira bhi, parantu kisi sanatan niyam se kathawachkon ki or na phir kar katha ke naykon ki or phir gaya aur is prakar ghisa mere aur adhik nikat aa gaya jiwan sambandhi apwad kadachit pura nahin samajh paya tha, parantu adhure ka bhi prabhaw us par kam na tha kyonki ye sabko apni chhaya se is prakar bachata rahta tha mano use koi chhoot ki bimari ho
paDhne, use sabse pahle samajhne, use wywahar ke samay smarn rakhne, pustak mein ek bhi dhabba na lagane, slet ko chamchamati rakhne aur apne chhote se chhote kaam ka uttardayitw baDi gambhirta se nibhane mein uske saman koi chatur na tha isi se kabhi kabhi man chahta tha ki uski man se use mang le jaun aur apne pas rakh kar uske wikas ki uchit wyawastha kar dun−parantu us upekshita par manini widhwa ka wahi ek sahara tha wo apne pati ka sthan chhoDne par prastut na hogi ye bhi mera man janta tha aur us balak ke bina uska jiwan kitna durbah ho sakta hai ye bhi mujhse chhipa na tha phir nau sal ke kartawyaprayan ghisa ki guru bhakti dekh kar uski matri bhakt ke sambandh mein kuch sandeh karne ka sthan hi nahin rah jata tha aur is tarah ghisa yahin aur unhin kathor paristhitiyon mein raha jahan krurtam niyti ne kewal apne manowinod ke liye hi use rakh diya tha
shanishwar ke din hi ye apne chhote durbal hathon se pipal ki chhaya ko gobar mitti se pila chiknapan de aata tha phir itwar ko man ke mazduri par jate hi ek maile phate kapDe mein bandhi moti roti aur kuch namak ya thoDa chana aur ek Dali guD baghal mein daba kar pipal ki chhaya ko ek bar phir jhaDne buharne ke pashchat wo ganga ke tat par aa baithta aur apni pili satej ankhon par kshain sanwle hath ki chhaya kar door door tak drishti ko dauData rahta jaise hi use meri nili safed nath ki jhalak dikhai paDti waise hi wo apni patli tangon par teer ke saman uDta aur bina nam liye hue hi sathiyon ko sunane ke liye guru sahab, guru sahab kahta hua phir ke niche pahunch jata jahan na jane kitni bar duhraye tihraye hue kary kam ki ek antim awritti awashyak ho uthti peD ki Dal par rakhi hui meri shitalpati utar kar bar bar jhaD ponchhkar bichhai jati, kabhi kaam na anewali sukhi syahi se kali kachche kanch ki dawat, tute nib aur ukhDe hue rangwale bhure hare qalam ke sath peD ke kotar se nikal kar yathasthan rakh di jati aur tab is chitr pathashala ka wichitr mantri aur nirala widyarthi kuch aage baDh kar mere pratham swagat ke liye prastut ho jata
mahine mein chaar din hi main wahan pahunch sakti thi aur kabhi kabhi kaam ki adhikta se ek aadh chhutti ka din aur bhi nikal jata tha, par us thoDe se samay aur ine gine dinon mein bhi mujhe us balak ke hirdai ka jaisa parichai mila wo chitron ke album ke saman nirantar nawin sa lagta hai
mujhe aaj bhi wo din nahin bhulta jab mainne bina kapDon ka prbandh kiye hue hi un becharon ko safai ka mahatw samjhate samjhate thaka Dalne ki murkhata ki dusre itwar ko sab jaise ke taise hi samne the−kewal kuch ganga ji mein munh is tarah dho aaye the ki mail anek rekhaon mein wibhakt ho gaya tha, kuch ne hath panw aise ghise the ki shesh malin sharir ke sath we alag joDe hue se lagte the aur kuch na rahega bans na bajegi bansuri ki kahawat charitarth karne ke liye keet se maile phate ghar hi chhoD kar aise asthipanjarmay roop mein upasthit hue the jismen unke paran, rahne ka ashchary hai gaye achambha kaun ki ghoshana karte jaan paDte the par ghisa ghayab tha puchhne par laDke kanaphusi karne ya ek sath sabhi uski anupasthiti ka karan sunane ko aatur hone lage ek ek shabd joD toD kar samajhna paDa ki ghisa man se kapDa dhone ke sabun ke liye tabhi se kah raha tha−man ko mazduri ke paise mile nahin aur dukan dar ne naj lekar sabun diya nahin kal raat ko man ko paise mile aur aaj sawere wo sab kaam chhoD kar pahle sabun lene gai abhi lauti hai, atः ghisa kapDe dho raha hai kyonki guru sahab ne kaha tha ki nha dhokar kapDe pahan kar aana aur abhage ke pas kapDe hi kya the! kisi dayawati ka diya hua ek purana kurta jiski ek astin aadhi thi aur ek angauchha jaisa phata tukDa jab ghisa nha kar gila angauchha lapete aur aadha bhiga kurta pahne apradhi ke saman mere samne aa khaDa hua tab ankhen hi nahin mera rom rom gila ho gaya us samay samajh mein aaya ki dronachary ne apne bheel shishya se angutha kaise katwa liya tha
ek din na jane kya sochkar main un widyarthiyon ke liye 5 6 ser jalebiyan le gai par kuch taulnewale ki safai se, kuch tulwane wale ki samajhdari se aur kuch wahan ki chhina jhapti ke karan pratyek ko panch se adhik na mil sakin ek kahta tha mujhe ek kam mili, dusre ne bataya meri amuk ne chheen li, tisre ko ghar mein sote hue chhote bhai ke liye chahiye, chauthe ko kisi aur ki yaad aa gai par is kolahal mein apne hisse ki jalebiyan lekar ghisa kahan khisak gaya ye koi na jaan saka ek natkhat apne sathi se kah raha tha sar ek tho pilwa pale hai ohi ka dey bare ga hoi par meri drishti se sankuchit hokar chup rah gaya aur tab tak ghisa lauta hi uska sab hisab theek tha−jalakhiwale chhanne mein do jalebiyan lapet kar wo bhai ke liye chhappar mein khons aaya hai, ek usne apne pale hue, bina man ke kutton ke pille ko khila di aur do swayan kha leen aur chahiye puchhne par uski sankoch bhari ankhen jhuk garin−oth kuch hile pata chala ki pille ko usse kam mili hai den to guru sahab pille ko hi ek aur de den
aur holi ke pahle ki ek ghatna to meri smriti mein aise gahre rangon se ankit hai jinka dhul sakna sahj nahin un dinon hindu muslim waimanasy dhire dhire baDh raha tha aur kisi din uske charam sima tak pahunch jane ko poorn sambhawna thi ghisa do saptah se jwar mein paDa tha−dawa main bhijwa deti thi parantu dekh bhaal ka koi theek prbandh na ho pata tha do chaar din uski man swayan baithi rahi phir ek andhi buDhiya ko baitha kar kaam par jane lagi
itwar ki sanjh ko main yathakram bachchon ko wida de ghisa ko dekhne chali; parantu pipal se pachas pag door pahunchte na pahunchne usi ko Dagmagate pairon se girte paDte apni or aate dekh mera man udwign ho utha wo to pandrah din se utha hi nahin tha, atः mujhe uske sannipatagrast hone ka hi sandeh hua uske sukhe sharir mein taral widyut si dauD rahi thi, ankhen aur bhi satej aur mukh aisa tha jaise halki anch mein dhire dhire lal hone wala lohe ka tukDa
par uske wat grast hone se bhi adhik chintajnak usko samajhdari ki kahani nikli wo pyas se jag gaya tha par pani pas mila nahin aur andhi maniyon ki aaji se mangna theek na samajh kar wo chupchap kasht sahne laga itne mein mullu ke kaka ne par se laut kar darwaze se hi andhi ko bataya ki shahr mein danga ho raha hai aur tab use guru sahab ka dhyan aaya mullu ke kakka ke hatte hi wo aise haule haule utha ki buDhiya ko pata hi na chala aur kabhi diwar kabhi peD ka sahara leta leta is or bhaga ab wo guru sahab ke goD dhar kar yahin paDa rahega par par kisi tarah bhi jane dega
tab meri samasya aur bhi jatil ho gai par to mujhe pahunchna tha hi par sath hi bimar ghisa ko aise samjha kar jisse uski sthiti aur gambhir na ho jaye par sada ke sankochi namr aur agyakari ghisa ka is driDh aur hathi balak mein pata hi na chalta tha usne parasal aise hi awsar par hatahat do mallah dekhe the aur kadachit is samay uska rog se wikrt mastishk un chitron mein gahra rang bhar kar meri uljhan ko aur ulka raha tha par use samjhane ka prayatn karte karte achanak hi mainne ek aisa tar chhu diya jiska swar mere liye bhi naya tha ye sunte hi ki mere pas rail mein baith kar door door se aaye hue bahut se widyarthi hain jo apni man ke pas sal bhar mein ek bar hi pahunch pate hain aur jo mere na jane se akele ghabra jayenge, ghisa ka sara hath sara wirodh aise bah gaya jaise wo kabhi tha hi nahin aur tab ghisa ke saman tark ki kshamata kismen thee! jo sanjh ko apni mai ke pas nahin ja sakte unke pas guru sahab ko jana hi chahiye ghisa rokega to uske bhagwan jo ghussa ho jayenge kyonki we hi to ghisa ko akela bekar ghumta dekh kar guru sahab ko bhej dete hain aadi aadi uske tarkon ka smarn kar aaj bhi man bhar aata hai parantu us din mujhe apatti se bachane ke liye apne bukhar se jalte hue ashakt sharir ko ghasit lane wale ghisa ko jab uski tuti khatiya par lita kar main lauti tab mere man mein kautuhal ki matra hi adhik thi
iske uprant ghisa achchha ho gaya aur dhool aur sukhi pattiyon ko bandh kar unmatt ke saman ghumne wa garmi ki hawa se uska roz sangram chhiDne laga−jhaDte phaDte hi wo pathashala dhool dhusarit hokar, bhure, pile aur kuch hare patton ki chadar mein chhip kar, tatha kankalshep shakhaon mein ulajhte, sukhe patton ko pukarte wayu ki santapt sarsar se mukhrit hokar us bhrant balak ko chiDhane lagti, tab mainne tisre pahar se sandhya samay tak wahan rahne ka nishchay kiya, parantu pata chala ghisa kisakisati ankhon ko malta aur pustak se bar bar dhool jhaDta hua din bhar wahin peD ke niche baitha rahta hai mano wo kisi prachin yug ka tapowrti angarik brahamchari ho jiski tapasya bhang karne ke liye hi lu ke jhonke aate hain
is prakar chalte chalte samay ne jab dai chhune ke liye dauDte hue balak ke saman jhapat kar us din par ungli dhar di jab mujhe un logon ko chhoD jana tha tab to mera man bahut hi asthir ho utha kuch balak udas the aur kuch khelne ki chhutti se prasann kuch janna chahte the ki chhuttiyon ke din chune ki tipakiyan rakh kar gine jayen ya koyle ki lakiren kheench kar kuch ke samne barsat mein chute hue ghar mein aath prishth ki pustak bacha rakhne ka parashn tha aur kuch kaghzon par akaran ko hi chuhon ki samasya ka samadhan chahte the aise mahatwapurn kolahal mein ghisa na jane kaise apna rahna anawashyak samajh leta tha, atः sada ke saman aaj bhi mainne use na khoj paya jab main kuch chintit si wahan se chali tab man bhari bhari ho raha tha, ankhon mein kohara sa ghir ghir jata tha wastaw mein un dinon Daktron ko mere pet mein phoDa hone ka sandeh ho raha tha—operation ki sambhawna thi kab lautengi ho raha ya nahin lautungi yahi sochte sochte mainne phir kar charon or jo aardr Dali ye kuch samay tak un parichit sthanon ko bhent kar wahin ulajh rahi
prithwi ke uchchhwas ke saman uthte hue dhundhlepan mein we kachche ghar akanth magn ho gaye the−kewal phoos ke matamaile aur khaprail ke katthai aur kale chhappar, warsha mein baDhi ganga ke mitti jaise jal mein purani nawon ke saman jaan paDte the kachhar ki balu mein door tak phaile tarbuz aur kharbuz ke khet apne sirki aur phoos ke muthiyon, tattiyon aur rakhwali ke liye bani purnakutiyon ke karan jal mein base kisi aadim dweep ka smarn dilate the unmen ek do diye jal chuke the tab mainne door par ek chhota sa kala dhabba aage baDhta dekha ye ghisa hi hoga ye mainne door se hi jaan liya aaj guru sahab ko use wida dena hai ye uska nanha hirdai apni puri sanwedan shakti se jaan raha tha ismen sandeh nahin tha parantu us upekshait balak ke man mein mere liye kitni saral mamta aur mere wichhoh ki kitni gahri wyatha ho sakti hai ye janna mere liye shesh tha
nikat aane par dekha ki us dhumil godhuli mein badami kaghaz par kale chitr ke saman lagne wala nange badan, ghisa ek baDa tarbuz donon hathon mein samhale tha jisne beech ke kuch kate bhag mein se bhitar ki ishat lakshya lalai charon or ke gahre harepan mein kuch khile kuch band gulabi phool jaisi jaan paDti thi
ghisa ke pas na paisa tha na khet—tab kya wo ise chura laya hai! man ka sandeh bahar aaya hi aur tab mainne jana ki jiwan ka khara sona chhipane ke liye us malin sharir ko banane wala ishwar us buDhe adami se bhinn nahin jo apni sone ki mohar ko kachchi mitti ki diwar mein rakh kar nishchint ho jata hai ghisa guru sahab se jhooth bolna bhagwan ji se jhooth bolna samajhta hai ye tarbuz kai din pahle dekh aaya tha mai ke lautne mein na jane kyon der ho gai tab use akele hi khet par jana paDa wahan khet wale ka laDka tha jiski uske nae kurte par bahut din se nazar thi prayः suna suna kar kahta rahta tha ki jinki bhookh juthi pattal se bujh sakti hai unke liye parosa lagane wale pagal hote hai usne kaha paisa nahin hai to kurta de jao aur ghisa aaj tarbuz na leta to kal uska kya karta isse kurta de aya—par guru sahab ko chinta karne ki awashyakta nahin kyonki garmi mein wo kurta pahanta hi nahin aur jane aane ke liye purana theek rahega tarbuz safed na ho isliye katwana paDa—mitha hai ya nahin ye dekhne ke liye ungli kuch nikal bhi lena paDa
guru sahab na len to ghisa raat bhar roega—chhutti bhar roega le jawen to ye roz nha dhokar peD ke niche paDha hua path dohrata rahega aur chhutti ke baad puri kitab patti par likh kar dikha sakega
aur tab apne sneh mein pragalbh us balak ke sir par hath rakh kar main bhawatirek se hi nishchal ho rahi us tat par kisi guru ko kisi shishya se kabhi aisi dachchhina mili hogi aisa mujhe wishwas nahin, parantu us dachchhina ke samne sansar ke ab tak ke sare adan pradan phike jaan paDe
phir ghisa ke sukh ka wishesh prbandh kar chali gai aur lautte lautte kai mahine lag gaye is beech mein uska koi samachar na milna hi sambhaw tha jab phir us or jane ka mujhe awkash mil saka tab ghisa ko uske bhagwanji ne sada ke liye paDhne se awkash de diya tha—aj wo kahani dohrane ki mujh mein shakti nahin hai par sambhaw hai aaj ke kal, kal ke kuch din, dinon ke mas aur mas ke warsh ban jane par main darshanik ke saman dheer bhaw se us chhote jiwan ka upekshait ant bata sakungi abhi mere liye itna hi paryapt hai ki main any malin mukhon mein uski chhaya DhunDhati hoon
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।