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नया नगर

naya nagar

प्रकाशचंद्र गुप्त

और अधिकप्रकाशचंद्र गुप्त

    उस प्राचीन नगर के पार्श्व में उजड़े बीहड़ देश में एक नए नगर का जन्म हुमा है! क्रमशः एक-एक करके खंड-खंड पत्थरों से फूट कर तरु-लताओं से लहलहाते अनेक भव्य भवन उठे, और आकाश में उनके उन्नत मस्तक छा गए।

    यह नई नगरी काँच और लकड़ी से बनी है। पत्थर इसमें नाम मात्र को ही है। सुनहरी और नीले रेशमी पदों के पीछे इस रहस्यमई पुरी का व्यापार छिपा है। इन मकानों की गोल, चमकती खिड़कियों पथारोहियो को घूर कर देखती हैं और अंधकार में किसी जंगली बिल्ले की आँखों-सी जल उठती है।

    यह टेढ़े-मेढ़े कुरूप भवन हमारे युग की आत्मा के अनुरूप ही बने हैं। वे इस युग की स्वर्ण मछली के लिए काँच का केस हैं।

    इस नगरी में पुराने और नए का अपूर्व सम्मिश्रण है। पुराने खंडहर, पीपल और इमली के पुराने पेड़, कुएँ, और यह शोख़ी भरे होटल, क्लब और बैठकें जहाँ रात भर जुआ चलता है।

    नए नगर के एक सिरे पर अमरूद के बाग़ मे अब भी चरस चलता है। चू-चू चर-अमर कर पानी खिचता है, बैल ज़ोर लगाते हैं, एक भारी प्रयास कर चरसवाला चमड़े के बड़े डोल को ऊपर खींच लेता है और पानी उलट देता है। यह पानी छोटी पतली नालियों में होकर बाग़ भर में फैल जाता है और पेड़ों के फूल-पत्ती इस जीवनी-शक्ति को पाकर उल्लसित हो उठते हैं।

    झोपड़ी में बैठी बुढ़िया यह रहस्य देखती है, और नहीं देखती। बच्चे मेड़ पर बैठ कर गंदा करते हैं और पेड़ से बँधा टीन खींचकर एक कोहराम मचा देते हैं। कौए भयभीत होकर अमरूद के पेड़ों से काँव-काँव कर भागते हैं।

    बमपुलिस से दुर्गंधि उड़-उड़ कर हवा में फैलती है और इन ग्रामीणों के फेफड़ों में पहुँच कर उन्हें सड़ाती है।

    बाग़ के नीचे क़साईख़ाने के सुर अपने कातर, कर्कश नाद से आसमान को गुँजा देते हैं। बाहर कुत्तों और मक्खियों की भीड़ चोरी और लूट की आशा से इकट्ठी होती है। कुछ ख़रीदार भी इकट्ठे होते हैं। टूटे, फटेहाल बूढ़े, बालक, युवा जो बड़े यत्न से अपनी जेब के पैसे बार-बार टटोलते हैं। फिर किसी गंदे झाड़न में हड्डी और गोश्त का कोई छोटा टुकड़ा आतुरता से घर ले जाते हैं।

    सामने मैदान में गंद ढोने वाली अनेक गाड़ियाँ झुटपुटा होने की उम्मीद में खड़ी रहती हैं। इन्हें हम लोग 'टाइगर' कहते हैं, क्योंकि अँधेरा होते ही यह इस जंगल—से उजाड़ शहर में निकलती हैं और चतुर्दिक स्वच्छंद विचरती हैं। इनके भय से रात में अकेला आता-जाता राहगीर नाक बंद करके एक ओर दुबक जाता है। सुबह हम लोग सड़कों पर इन 'बाघों' के छितराए मल-मूत्र को देखते हैं और समझ जाते है कि रात में 'टाइगर' यहाँ वन-क्रीड़ा में निमग्न थे।

    मैदान से लगी ही मेहतरों की बस्ती है, ठीक उस सुंदर, नए प्रासाद के सामने जहाँ स्त्रियों का अस्पताल है और नए नगर की सर्व सुंदर इमारत है। पतली, कच्ची दुर्गंधिपूर्ण गलियाँ। कीड़ों से बिलबिलाते बच्चे, की-की करते सुअर और कोई अर्द्ध-मानव जाति जो इस विषैले वायुमंडल में रह कर भी पनपती है!

    कुछ ही दिनों में नए नगर के सुंदर अवयवों पर पड़े ये धब्बे हटा दिए जाएँगे और बीच-बीच का यह ग्राम-देश, यह अंधकार भरी दुनिया आँख से ओझल हो जाएगी। कहीं दूर ले जाकर इन मेहतरों, क़साइयों, ग्वालों और पशुओं को बसाया जाएगा। यह निचली दुनियाँ के प्राणी, पाताल-वासी सम्य जग की सतह से नीचे छिप जाएँगे।

    तब यह नगर कितना गुलज़ार हो उठेगा!

    दूर तक लहलहाते हरे भरे खेत, नए भव्य भवन, बाँध पर अनेक बिजलियों से जगमग रेलगाड़ी के डब्बे, रात का आकाश! 'तारों का नभ तारो का नम!'

    नया नगर कितना आकर्षक है!

    सड़क के किनारे पान, सिगरेट, बीड़ी, मूँगफली आदि की दुकान हैं, जहाँ आते-जाते बाबू लोग अपनी भूख प्यास मिटा लेते हैं और कभी-कभी दुकान वाली को देखकर अपनी आँख भी सेक लेते हैं। वह जर्जर यौवना कभी रूपवती रही होगी, क्योंकि खंडहर बता रहे थे कि इमारत आलीशान थी। लेकिन अब मँहगाई और ग़रीबी ने अपनी कूँची उठाकर उसके मुँह पर कालिख पोत दी थी।

    यह दुकान सड़क के तल से नीची है। अंदर आदमी सिर्फ़ उकड़ूँ बैठ सकता है, खड़ा हो सकता है, चल-फिर सकता है।

    दुकान वाली के बच्चे सड़क पर खेलते हैं, दो-तीन चार, कौन गिने? पशुओं की तरह अनसोचे ही वे जन्मते है और मर भी जाते है। पिछली बार जब एक छोटा बच्चा एक पलटन की लारी के नीचे दब गया, तो जाने कहाँ से दुकान वाली का रोना फट पड़ा! उसका रोना एकताहीन था। बहुत कुछ उसे समझाया गया, 'रो मत, भगवान और देंगे।' वह सिसकियों के बीच कहती: 'अभी तो वह हँस रहा था, खेल रहा था। और अब? हाय राम!'

    इस नगर में अनेक रूपवती स्त्रियाँ, युवक और चिर-शांति के अभिलापी हिमवान् बूढ़े सुबह शाम घूमने निकलते हैं। उनके हृदय संतोष से भर जाते हैं। यह भव्य भवन, यह नए ढंग का फ़र्नीचर, यह रेशमी पर्दे, संगीत की मृदु गूँज, यौवन का उल्लास और अंत में बुढ़ापे की बुझी ज्वाला! यह नर-नारी अपनी कल्पना के स्वर्ग में थे। उन्हे निर्वाण मिल चुका था।

    वह युवक टेढ़ा हैट लगाए, मुँह पर पाउडर का हलका 'कोटिंग' दिए, सिगरेट के कश खींचता हुआ, 'शार्क-स्किन' का सूट पहने...

    वह युवती सुंदर सिल्क की साड़ी पहने, शोख़ी भरी चाल से खट खट कर पृथ्वी नापती, प्रकृति की ओर कटाक्ष करती, अपनी सुंदरता से आप ही आतुर...

    कितने सुंदर हैं वे! कितने भाग्यवान हैं वे!

    किंतु इस स्वर्ग का धब्बा और कलंक वह मेहतरों का मुहल्ला! कीड़ों से बिलबिलाते और बरसाती मक्खियों की तरह पटापट मरते वे नव-मानव! कितने कुरूप हैं वे! कितने अभागे हैं!

    उस नए नगर के आलोक में छिपे वे दुर्गांधिपूर्ण, गाँव, वे अर्द्ध पशु और पूर्ण-पशुओं की बस्तियाँ, मैदान में खड़ी वह सरेशाम निकलने वाली मैले की गाड़ियाँ—हमारे इस नगर-उपवन में स्वच्छंद विचरने वाले वन-विलाब, वे की-की करते सुअर आँखों के सामने एकबारगी जाते हैं।

    इस नए सुंदर नगर में उनका क्यों स्थान है? इस प्रश्न का उत्तर हमें नहीं मिलता।

    स्रोत :
    • पुस्तक : रेखाचित्र
    • रचनाकार : प्रकाशचंद्र गुप्त
    • प्रकाशन : विद्यार्थी ग्रंथागार, प्रयाग

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