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चीनी यात्री

chini yatri

महादेवी वर्मा

महादेवी वर्मा

चीनी यात्री

महादेवी वर्मा

और अधिकमहादेवी वर्मा

    मुझे चीनियों में पहचान कर स्मरण रखने योग्य विभिन्नता कम मिलती है। कुछ समतल मुख एक ही साँचे में ढले-से जान पड़ते हैं और उनकी एकरसता दूर करने वाली, वस्त्र पर पड़ी हुई सिकुड़न जैसी नाक की गठन में भी विशेष अंतर नहीं दिखाई देता। कुछ तिरछी अधखुली और विरल भूरी बरुनियों वाली आँखों की तरल रेखाकृति देखकर भ्रांति होती है कि वे सब एक नाप के अनुसार किसी तेज धार से चीर कर बनाई गई हैं। स्वाभाविक पीतवर्ण धूप के चरण-चिह्नों पर पड़े हुए धूल के आवरण के कारण कुछ ललछौंहें सूखे पत्ते की समानता पा लेता है। आकार, प्रकार, वेशभूषा सब मिलकर इन दूर-देशियों को यंत्रचालित पुतलों की भूमिका दे देते हैं; इसी से अनेक बार देखने पर भी एक फेरीवाले चीनी को दूसरे से भिन्न करके पहचानना कठिन है।

    पर आज मुखों की एकरूप समष्टि में मुझे एक मुख आर्द्र नीलिमा-मयी आँखों के साथ स्मरण आता है जिसकी मौन भंगिमा कहती है—हम कार्बन की कापियाँ नहीं हैं। हमारी भी एक कथा है। यदि जीवन की वर्णमाला के संबंध में तुम्हारी आँखें निरक्षर नहीं हैं तो तुम पढ़कर देखो न!

    कई वर्ष पहले की बात है। मैं तांगे से उतर कर भीतर रही थी और भूरे कपड़े का गट्ठर बाएँ कंधे के सहारे पीठ पर लटकाए हुए और दाहिने हाथ में लोहे का गज़ घुमाता हुआ चीनी फेरीवाला फाटक से बाहर निकल रहा था। संभवतः मेरे घर को बंद पाकर वह लौटा जा रहा था। ‘कुछ लेगा मेम साब’—दुर्भाग्य का मारा चीनी! उसे क्या पता कि यह संबोधन मेरे मन में रोष की सब से तुंग तरंग उठा देता है। मइया, माता, जीजी, दिदिया, बिटिया आदि जाने कितने संबोधनों से मेरा परिचय है और सब मुझे प्रिय हैं, पर यह विजातीय संबोधन मानो सारा परिचय छीनकर मुझे गाउन में खड़ा कर देता है। इस संबोधन के उपरांत मेरे पास से निराश होकर लौटना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है।

    मैंने अवज्ञा से उत्तर दिया, “मैं विदेशी—फॉरेन—नहीं ख़रीदती।” “हम फ़ॉरेन है? हम तो चाइना से आता है।” कहने वाले के कंठ में सरल विस्मय के साथ उपेक्षा की चोट से उत्पन्न चोट भी थी। इस बार रुककर, उत्तर देने वाले को ठीक से देखने की इच्छा हुई। धूल से मटमैले सफ़ेद किरमिच के जूते में छोटे पैर छिपाए, पतलून और पैजामे का सम्मिश्रित परिणाम जैसा पैजामा और कुरते तथा कोट की एकता के आधार पर सिला कोट पहने, उधड़े हुए किनारों से पुरानेपन की घोषणा करते हुए हैट से आधा माथा ढके, दाढ़ी-मूँछ विहीन दुबली नाटी जो मूर्ति खड़ी थी वह तो शाश्वत चीनी है। उसे सबसे अलग करके देखने का प्रश्न जीवन में पहली बार उठा।

    मेरी उपेक्षा से उस विदेशीय को चोट पहुँची, यह सोचकर मैंने अपनी ‘नहीं’ को और अधिक कोमल बनाने का प्रयास किया, “मुझे कुछ नहीं चाहिए भाई! चीनी भी विचित्र निकला—“हमको भाय बोला है तब ज़रूल लेगा, ज़रूल लेगा—हाँ?” ‘होम करते हाथ जला वाली कहावत हो गई। विवश कहना पड़ा, “देखूँ, तुम्हारे पास है क्या?” चीनी बरामदे में कपड़े का गट्ठर उतारता हुआ कह चला, “भोत अच्छा सिल्क लाता है, सिस्तर! चाइना सिल्क, क्रेप”...बहुत कहने-सुनने के उपरांत दो मेज़पोश ख़रीदना आवश्यक हो गया। सोचा—चलो, छुट्टी हुई। इतनी कम बिक्री होने के कारण चीनी अब कभी इस ओर आने की भूल करेगा।

    पर कोई पंद्रह दिन बाद वह बरामदे में अपनी गठरी पर बैठकर गज़ को फ़र्श पर बजा-बजाकर गुनगुनाता हुआ मिला। मैंने उसे कुछ बोलने का अवसर देकर व्यस्त भाव से कहा—“अब तो में कुछ लूँगी। समझे।” चीनी खड़ा होकर जेब से कुछ निकालता हुआ प्रफुल्ल मुद्रा से बोला, “सिस्तर का वास्ते हैंकी लाता है—भोत बेस्त, सब सेल हो गया। हम इसको पाकेत में छिपा के लाता है।”

    देखा, कुछ रूमाल थे। ऊदी रंग के डोरे से भरे हुए किनारों का हर घुमाव और कोनों में उसी रंग से बने नन्हें फूलों की प्रत्येक पंखुड़ी चीनी नारी की कोमल उंगलियों की कलात्मकता ही नहीं व्यक्त कर रही थी, जीवन के अभाव की करुण कहानी भी कह रही थी। मेरे मुख के निषेधात्मक भाव को लक्ष्य कर अपनी नीली रेखाकृति आँखों को जल्दी-जल्दी बंद करते और खोलते हुए वह एक साँस में “सिस्तर का वास्ते लाता है, सिस्तर का वास्ते लाता है।” दोहराने-तिहराने लगा।

    मन में सोचा कि अच्छा भाई मिला है। बचपन में मुझे लोग ‘चीनी’ कहकर चिढ़ाया करते थे। संदेह होने लगा कि उस चिढ़ाने में कोई तत्व भी रहा होगा, अन्यथा आज सचमुच का चीनी, सारे इलाहाबाद को छोड़कर मुझसे बहन का संबंध क्यों जोड़ने आता! पर उस दिन से चीनी को मेरे यहाँ जब-तब आने का विशेष अधिकार प्राप्त हो गया। चीन का साधारण श्रेणी का व्यक्ति भी कला के संबंध में विशेष अभिरुचि रखता है, इसका पता भी उसी चीनी की परिष्कृत रुचि में मिला।

    नीली दीवार पर किस रंग के चित्र सुंदर जान पड़ते हैं, हरे कुशन पर किस प्रकार के पक्षी अच्छे लगते हैं, सफ़ेद पर्दे के कोनों में किस बनावट के फूल-पत्ते खिलेंगे आदि के विषय में चीनी उतनी ही जानकारी रखता था जितनी किसी अच्छे कलाकार में मिलेगी। रंग से उसका अति परिचय यह विश्वास उत्पन्न कर देता था कि वह आँखों पर पट्टी बाँध देने पर भी केवल स्पर्श से रंग पहचान लेगा।

    चीन के वस्त्र, चीन के चित्र आदि की रंगमयता देखकर भ्रम होने लगता है कि वहाँ की मिट्टी का हर कण भी इन्हीं रंगों से रंगा हुआ हो। चीन देखने की इच्छा प्रकट करते ही ‘सिस्तर का वास्ते हम चलेगा’, कहते-कहते चीनी की आँखों की नीली रेखा प्रसन्नता से उजली हो उठती थी।

    अपनी कथा सुनाने के लिए भी वह विशेष उत्सुक रहा करता था, पर कहने-सुनने वाले के बीच की खाई बहुत गहरी थी। उसे चीनी और बर्मी भाषाएँ आती थीं, जिनके संबंध में अपनी सारी विद्या-बुद्धि के साथ में ‘आँखों के अंधे नाम नैनसुख’ की कहावत चरितार्थ करती थी। अंग्रेज़ी की क्रियाहीन संज्ञाएँ और हिंदुस्तानी की क्रियाओं के सम्मिश्रण से जो विचित्र भाषा बनती थी उसमें कथा का सारा मर्म बंध नहीं पाता था। पर जो कथाएँ हृदय का बाँध तोड़कर, दूसरों को अपना परिचय देने के लिए बह निकलती हैं वे प्रायः करुण होती हैं और करुणा की भाषा शब्दहीन रहकर भी बोलने में समर्थ है। चीनी फेरी वाले की कथा भी इसका अपवाद नहीं।

    जब उसके माता-पिता ने माँडले आकर चाय की छोटी दुकान खोली तब उसका जन्म नहीं हुआ था। उसे जन्म देकर और सात वर्ष की बहन के संरक्षण में छोड़कर जो परलोक सिधारी उस अनदेखी माँ के प्रति चीनी की श्रद्धा अटूट थी।

    संभवतः माँ ही ऐसा प्राणी है जिसे कभी देख पाने पर भी मनुष्य ऐसे स्मरण करता है जैसे उसके संबंध में कुछ जानना बाकी नहीं। यह स्वाभाविक भी है।

    मनुष्य को संसार से बाँधने वाला विधाता माँ ही है, इसी से उसे मान कर संसार को मानना सहज है; पर संसार को मान कर उसे मानना असंभव ही रहता है।

    पिता ने जब दूसरी बर्मी-चीनी स्त्री को गृहिणी-पद पर अभिषिक्त किया तब उन मातृहीनों की यातना की कठोर कहानी आरंभ हुई। दुर्भाग्य इतने से ही संतुष्ट नहीं हो सका; क्योंकि उसके पाँचवें वर्ष में पैर रखते रखते एक दुर्घटना में पिता ने भी प्राण खोए।

    अन्य अबोध बालकों के समान उसने सहज ही अपनी परिस्थितियों से समझौता कर लिया, पर बहन और विमाता में किसी प्रस्ताव को लेकर जो वैमनस्य बढ़ रहा था वह इस समझौते को उत्तरोत्तर विषाक्त बनाने लगा। किशोरी बालिका की अवज्ञा का बदला उसी को नहीं, उसके अबोध भाई को कष्ट देकर भी चुकाया जाता था। अनेक बार उसने ठिठुरती हुई बहन की कंपित उंगलियों में अपना हाथ रख, उसके मलिन वस्त्रों में अपना आँसुओं से धुला मुख छिपा और उसकी छोटी-सी गोद में सिमट कर भूख भुलाई थी। कितनी ही बार सबेरे, आँख मूँदकर बंद द्वार के बाहर दीवार से टिकी हुई बहन की ओर से गीले बालों में, अपनी ठिठुरी हुई उंगलियों को गर्म करने का व्यर्थ प्रयास करते हुए, उसने पिता के पास जाने का रास्ता पूछा था। उत्तर में बहन के फीके गाल पर चुपचाप ढुलक आने वाले आँसू की बड़ी बूँद देखकर वह घबराकर बोल उठा था—उसे कहवा नहीं चाहिए। वह तो पिता को देखना भर चाहता है।

    कई बार पड़ोसियों के यहाँ रकाबियाँ धोकर और काम के बदले भात माँगकर बहन ने भाई को खिलाया था। व्यथा की कौन-सी अंतिम मात्रा ने बहन के नन्हें हृदय का बाँध तोड़ डाला, इसे अबोध बालक क्या जाने! पर एक रात उसने बिछौने पर लेटकर बहन की प्रतीक्षा करते-करते आधी आँख खोली और विमाता को कुशल बाज़ीगर की तरह, मैली-कुचली बहन का कायापलट करते देखा : उसके सूखे ओठों पर विमाता की मोटी उंगली ने दौड़-दौड़ कर लाली फेरी, उसके फीके गालों पर चौड़ी हथेली ने घूम-घूम कर सफ़ेद गुलाबी रंग भरा, उसके रूखे बालों को कठोर हाथों ने घेर-घेर कर सँवारा और तब नए रंगीन वस्त्रों में सजी हुई उस मूर्ति को एक प्रकार से ठेलती हुई विमाता रात के अंधकार में बाहर अंतर्हित हो गई!

    बालक का विस्मय भय में बदल गया और भय ने रोने में शरण पाई। कब वह रोते-रोते सो गया इसका पता नहीं, पर जब वह किसी के स्पर्श से जागा तो बहन उस गठरी बने हुए भाई के मस्तक पर मुख रखकर सिसकियाँ रोक रही थी। उस दिन उसे अच्छा भोजन मिला, दूसरे दिन कपड़े, तीसरे दिन खिलौने—पर बहन के दिनों-दिन विवर्ण होने वाले ओठों पर अधिक गहरे रंग की आवश्यकता पड़ने लगी, उसके उत्तरोत्तर फीके पड़ने वाले गालों पर देर तक पाउडर मला जाने लगा।

    बहन के छीजते शरीर और घटती शक्ति का अनुभव बालक करता था, पर वह किससे कहे, क्या करे, यह उसकी समझ के बाहर की बात थी। बार-बार सोचता था कि पिता का पता मिल जाता तो सब ठीक हो जाता। उसके स्मृतिपट पर माँ की कोई रेखा नहीं; परंतु पिता का जो अस्पष्ट चित्र अंकित था उससे उनके स्नेहशील होने में संदेह नहीं रह जाता। प्रतिदिन निश्चय करता कि दुकान में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति से पिता का पता पूछेगा और एक दिन चुपचाप उनके पास पहुँच और उसी तरह चुपचाप उन्हें घर लाकर खड़ा कर देगा। तब यह विमाता डर जाएगी और बहन कितनी प्रसन्न होगी!

    चाय की दुकान का मालिक अब दूसरा था; परंतु पुराने मालिक के पुत्र के साथ उसके व्यवहार में सहृदयता कम नहीं रही, इसी से बालक एक कोने में सिकुड़ कर खड़ा हो गया और आने वालों से हकला-हकला कर पिता का पता पूछने लगा। कुछ ने उसे आश्चर्य से देखा, कुछ मुस्कुरा दिए, पर दो-एक ने दुकानदार से कुछ ऐसी बात कही जिससे वह बालक को, हाथ पकड़ कर बाहर ही नहीं छोड़ आया, इस भूल की पुनरावृत्ति होने पर विमाता से दंड दिलाने की धमकी भी दे गया। इस प्रकार उसकी खोज का अंत हुआ।

    बहन का संध्या होते ही कायापलट, फिर उसका आधी रात बीत जाने पर भारी पैरों से लौटना, विशाल शरीर वाली विमाता का जंगली बिल्ली की तरह हल्के पैरों से बिछौने से उछल कर उतर आना, बहन के शिथिल हाथों से बटुए का छिन जाना और उसका भाई के मस्तक पर मुख रखकर स्तब्ध भाव से पड़ रहना आदि क्रम ज्यों-के-त्यों चलते रहे।

    पर एक दिन बहन लौटी ही नहीं। सबेरे विमाता को कुछ चिंतितभाव से उसे खोजते देख बालक सहसा किसी अज्ञात भय से सिहर उठा। बहन—उसकी एकमात्र आधार बहन! पिता का पता पा सका और अब बहन भी खो गई! वह जैसा था वैसा ही बहन को खोजने के लिए गली-गली में मारा-मारा फिरने लगा। रात में वह जिस रूप में परिवर्तित हो जाती थी उसमें दिन को उसे पहचान सकना कठिन था। इसी से वह जिसे अच्छे कपड़े पहने हुए जाता देखता उसी के पास पहुँचने के लिए सड़क के एक ओर से दूसरी-दूसरी ओर दौड़ पड़ता। कभी किसी से टकरा कर गिरते-गिरते बचता, कभी किसी से गाली खाता, कभी कोई दया से प्रश्न कर बैठता—क्या इतना ज़रा-सा लड़का भी पागल हो गया है?

    इसी प्रकार भटकता हुआ वह गिरहकटों के गिरोह के हाथ लगा और तब उसकी दूसरी शिक्षा आरंभ हुई। जैसे लोग कुत्ते को दो पैरों से बैठना, गर्दन ऊँची कर खड़ा होना, मुँह पर पंजे रखकर सलाम करना आदि करतब सिखाते हैं उसी प्रकार वे सब उसे तंबाकू के धुँए और दुर्गंधित साँस से भरे और फटे चिथड़े, टूटे बरतन और मैले शरीरों से बसे हुए कमरे में बंद कर कुछ विशेष संकेतों और हँसने-रोने के अभिनय में पारंगत बनाने लगे।

    कुत्ते के पिल्ले के समान ही वह घुटनों के बल खड़ा रहता और हँसने-रोने की विविध मुद्राओं का अभ्यास करता। हँसी का स्रोत इस प्रकार सूख चुका था कि अभिनय में भी वह बार-बार भूल करता और मार खाता; पर क्रंदन उसके भीतर इतना अधिक उमड़ा रहता था कि ज़रा मुँह बनाते ही दोनों आँखों से दो गोल-गोल बूँदें नाक के दोनों ओर निकल आतीं और पतली समानांतर रेखा बनती और मुँह के दोनों सिरों को छूती हुई ठुड्ढी के नीचे तक चली जातीं। इसे अपनी दुर्लभ शिक्षा का फल समझ कर, रोओं से काले उदर पर पीला-सा रंग बाँधने वाला उसका शिक्षक प्रसन्नता से उछलकर उसे एक लात जमाकर पुरस्कार देता।

    वह दल बर्मी, चीनी श्यामी आदि का सम्मिश्रण था, इसीसे ‘चोरों की बरात में अपनी-अपनी होशियारी’ के सिद्धांत का पालन बड़ी सतर्कता से हुआ करता। जो उसपर कृपा रखते थे उनके विरोधियों का संदेह-पात्र होकर पिटना भी उसका परम कर्तव्य हो जाता था। किसी की कोई वस्तु खोते ही उसपर संदेह की ऐसी दृष्टि आरंभ होती कि बिना चुराए ही वह चोर के समान काँपने लगता, और तब उस ‘चोर के घर छिछोर’ को जो मरम्मत होती थी उसका स्मरण करके चीनी की आँखें आज भी व्यथा और अपमान से धक-धक जलने लगती थीं।

    सबके खाने के पात्र में बचा उच्छिष्ट एक तामचीनी के टेढ़े-मेढ़े बरतन में, सिगार से जगह-जगह जले हुए काग़ज़ से ढककर रख दिया जाता था, जिसे वह हरी आँखों वाली बिल्ली के साथ मिलकर खाता था।

    बहुत रात गए तक उसके नरक के साथी एक-एक कर आते रहते और अँगीठी के पास सिकुड़कर लेटे हुए बालक को ठुकराते हुए निकल जाते। उनके पैरों की आहट को पढ़ने का उसे अच्छा अभ्यास हो चला था। जो हल्के पैरों को जल्दी-जल्दी रखता हुआ जाता है उसे बहुत मिल गया है, जो शिथिल परों को घसीटता हुआ लौटता है वह ख़ाली हाथ है, जो दीवार को टटोलता हुआ लड़खड़ाते पैरों से बढ़ता है, वह शराब में सब खोकर बेसुध आया है, जो देहली से ठोकर खाकर धम-धम पैर रखता हुआ घुसता है उसने किसी से झगड़ा मोल ले लिया है, आदि का ज्ञान उसे अनजान में ही प्राप्त हो गया था।

    यदि दीक्षांत संस्कार के उपरांत विद्या के उपयोग का श्रीगणेश होते ही उसकी भेंट पिता के परिचित एक चीनी व्यापारी से हो जाती तो इस साधना से प्राप्त विद्वत्ता का क्या अंत होता, यह बताना कठिन है। पर संयोग ने उसके जीवन की दिशा को इस प्रकार बदल दिया कि वह कपड़े की दुकान पर व्यापारी की विद्या सीखने लगा।

    प्रशंसा के पुल बाँधते वर्षों पुराना कपड़ा सबसे पहले उठा लाना, गज़ से इस तरह नापना कि जौ बराबर भी आगे बढ़े चाहे अँगुल भर पीछे रह जाए, रुपए से लेकर पाई तक ख़ूब देखभालकर लेना और लौटाते समय पुराने खोटे पैसे विशेष रूप से खनका-खनका कर दे डालना आदि का ज्ञान कम रहस्यमय नहीं था। पर मालिक के साथ भोजन मिलने के कारण बिल्ली के संग उच्छिष्ट सहभोज की आवश्यकता नहीं रही और दुकान में सोने की व्यवस्था होने से अँगीठी के पास ठोकरों से पुरस्कृत होने की विवशता जाती रही। चीनी छोटी अवस्था में ही समझ गया था कि धन-संचय से संबंध रखने वाली सभी विद्याएँ एक-सी हैं, पर मनुष्य किसी का प्रयोग प्रतिष्ठापूर्वक कर सकता है और किसी का छिपाकर।

    कुछ अधिक समझदार होने पर उसने अपनी अभागी बहन को ढूँढने का बहुत प्रयत्न किया; पर उसका पता पास का। ऐसी बालिकाओं का जीवन ख़तरे से ख़ाली नहीं रहता। कभी वे मूल्य देकर ख़रीदी जाती हैं और कभी बिना मूल्य के ग़ायब कर दी जाती हैं। कभी वे निराश होकर आत्म-हत्या कर लेती हैं और कभी शराबी ही नशे में उन्हें जीवन से मुक्त कर देते हैं। उस रहस्य की सूत्रधारिणी विमाता भी संभवतः पुनर्विवाह कर किसी और को सुखी बनाने के लिए कहीं दूर चली गई थी। इस प्रकार उस दिशा में खोज का मार्ग ही बंद हो गया।

    इसी बीच में मालिक के काम से चीनी रंगून आया, फिर दो वर्ष कलकत्ते में रहा और तब अन्य साथियों के साथ उसे इस ओर जाने का आदेश मिला। यहाँ शहर में एक चीनी जूतेवाले के घर ठहरा है और सबेरे आठ से बारह और दो से छ: बजे तक फेरी लगाकर कपड़े बेचता रहता है।

    चीनी की दो इच्छाएँ हैं, ईमानदार बनने की और बहन को ढूँढ़ लेने की, जिसमें से एक की पूति तो स्वयं उसीके हाथ में है और दूसरी के लिए वह प्रतिदिन भगवान बुद्ध से प्रार्थना करता है।

    बीच-बीच में वह महीनों के लिए बाहर चला जाता था; पर लौटते ही ‘सिस्तर का वास्ते लाता है’ कहता हुआ कुछ लेकर उपस्थित हो जाता। इस प्रकार उसे देखते-देखते मैं इतनी अभ्यत्त हो चुकी थी कि जब एक दिन वह “सिस्तर का वास्ते” कहकर और शब्दों की खोज करने लगा तब मैं उसकी कठिनाई समझकर हँस पड़ी। धीरे-धीरे पता चला— बुलावा आया है, वह लड़ने के लिए चाइना जाएगा। इतनी जल्दी कपड़े कहाँ बेचे और बेचने पर मालिक को हानि पहुँचा कर बेईमान कैसे बने! यदि मैं उसे आवश्यक रुपया देकर सब कपड़े ले लूँ तो वह मालिक का हिसाब चुकता कर तुरंत देश की ओर चल दे।

    किसी दिन पिता का पता पूछने जाकर वह हकलाया था—आज भी संकोच से हकला रहा था। मैंने सोचने का अवकाश पाने के लिए प्रश्न किया, “तुम्हारे तो कोई है ही नहीं, फिर बुलावा किसने भेजा?” चीनी की आँखें विस्मय से भरकर पूरी खुल गई—“हम कब बोला कि हमारा चाइना नहीं है? हम कब ऐसा बोला सिस्तर?” मुझे स्वयं अपने प्रश्न पर लज्जा आई। उसका इतना बड़ा चीन रहते वह अकेला कैसे होगा।

    मेरे पास रुपया रहना ही कठिन है, अधिक रुपए की चर्चा ही क्या? पर कुछ अपने पास खोज-ढूँढकर और कुछ दूसरों से उधार लेकर मैंने चीनी के जाने का प्रबंध किया। मुझे अंतिम अभिवादन कर जब वह चंचल पैरों से जाने लगा तब मैंने पुकार कर कहा, “यह गज़ तो लेते जाओ।” चीनी सहज स्मित के साथ घूमकर ‘सिस्तर का वास्ते’ ही कह सका। शेष शब्द उसके हकलाने में खो गए।

    और आज कई वर्ष हो चुके हैं—चीनी को फिर देखने की संभावना नहीं। उसकी बहन से मेरा कोई परिचय नहीं; पर जाने क्यों, वे दोनों भाई-बहन मेरे स्मृति-पट से हटते ही नहीं।

    चीनी की गठरी में से कई थान में अपने ग्रामीण बालकों के कुरते बना-बनाकर ख़र्च कर चुकी हूँ; परंतु अब भी तीन थान मेरी आलमारी में रखे हैं और लोहे का गज़ दीवार के कोने में खड़ा है। एक बार जब इन थानों को देखकर एक खादी-भक्त बहन ने आक्षेप किया था कि ‘जो लोग बाहर से विशुद्ध खद्दरधारी होते हैं वे भी विदेशी रेशम के थान ख़रीदकर रखते हैं, इसी से देश की उन्नति नहीं होती तब मैं बड़े कष्ट से हँसी रोक सकी थी।

    वह जन्म का दुखियारा मातृ-पितृहीन और बहन से बिछुड़ा हुआ चीनी भाई अपने समस्त स्नेह के एकमात्र आधार चीन में पहुँचने का आत्मतोष पा गया है, इसका कोई प्रमाण नहीं; पर मेरा मन यही कहता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : अमिट रेखाएँ (पृष्ठ 197)
    • संपादक : सत्यवती मलिक
    • रचनाकार : महादेवी वर्मा
    • प्रकाशन : सत्साहित्य प्रकाशन
    • संस्करण : 1955
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