विसय सुक्खु कहि नरय दुवारू, कहि अनंत सुहु संजम मारु।
भलउ बुरउ जाणंतु विचारइ, कागिणि कारणि फोडि कु हारइ॥३४॥
पुरण भणइ हरिगाह करेवी, नेमिकुमारह पय लग्गेवी।
सोमिय इक्कु पसाउ करिज्जउ, बालिय काविसरूव परणिज्जउ॥३५॥
जिणु बोज्झु जणीयन जंपइ, हरि जाणिंउ हउं मन्निउ संपइ।
कवण स होसइ धन्निय नारी, जा अणुहरिसइ नेमिकुमारि॥३६॥
हू जाणउ मइं अच्छइ बाली, राममई बहु गुणिहिं विसाली।
उग्गसेण रायं गहि जाइय, रूब सुहाग खाणि विक्खाइय॥३७॥
जसु धणुकेस कलावु लुलंतउ, नीलु किरण जालुब्व फुरंतउ।
दीसइ दीहर नयण सहंती, नं निलुप्पल लील हसंति॥३८॥
वयणु कमलु नं छण ससि मंडणु, दिक्खवि भुल्लइ धूआ खंडलु।
भणहरु धणहरु मणु मोहेइ, कंचन कलसह लीह न देई॥३९॥
सरल बाहु लय कंति विगिज्जिय, नं चंपय लयगयवणि लज्जिय।
जसु सरूवु पत्तिण उत्तासिय नरइ गइयस कत्थ विनासिय॥४०॥
इय चिणवणु कण्हि सा बाल वराविय।
नेमिकुमारह देसि (जुपत्थिय) जायब मेलाविय॥४१॥
- पुस्तक : आदिकाल की प्रामाणिक रचनाएँ (पृष्ठ 51)
- संपादक : गणपति चंद्र गुप्त
- रचनाकार : सुमति गणि
- प्रकाशन : नेशनल पब्लिशिंग हॉउस
- संस्करण : 1976
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