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आस्त्रीय जनम काइं दीधउ महेस

aastriiy janam kaa.i.n diidha.u mahes

नरपति नाल्ह

नरपति नाल्ह

आस्त्रीय जनम काइं दीधउ महेस

नरपति नाल्ह

और अधिकनरपति नाल्ह

    आस्त्रीय जनम काइं दीधउ महेस।

    अवर जनम थारइ घणा रे नरेस॥

    रानि सिरजीय रोझडी।

    घणह सिरजीय धउलीय गाइ।

    बनषंड काली कोइली।

    हउं बइसंती अंबा नइ चंपा की डाल।

    भषती द्राष बीजोरडी।

    इणि दुष झूरइ अबला जी बाल॥

    “हे महेश!” राजमती कहती है, “स्त्री का जन्म तुमने मुझे क्यों दिया? हे नरेश (नरों के स्वामी)! और जन्म तुम्हारे पास देने के लिए बहुतेरे थे, फिर भी तुमने मुझे अरण्य का रोझ (नील गाय) नहीं बनाया! घने वन की धोरी गाय भी नहीं बनाई, वन खंड की काली कोयल, कि मैं आम औऱ चंपा की डालों पर बैठती और अंगूर तथा वीजोरी (फल विशेष) खाती। यह अबला बाला इन दुःखों में झूर (सूख) रही है।”

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसलदेव रास (पृष्ठ 162)
    • संपादक : अगरचंद नाहटा
    • रचनाकार : नरपति नाल्ह
    • प्रकाशन : हिंदी परिषद् प्रकाशक, प्रयाग
    • संस्करण : 1959

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