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पंचपंडव चरित रासु (ठवणि ८)

panchpanDaw charit rasu (thawani ८)

शालिभद्र सूरि

शालिभद्र सूरि

पंचपंडव चरित रासु (ठवणि ८)

शालिभद्र सूरि

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    धिगु रि धिगु रि धिग देवविलासु पंचह पंडव हुइ वणवासु

    उतइं लाखहरुं परिजलइ उंतइं भीम जु केडइ मिलीइ॥१॥

    रातिं खुडत पडंता जाइं वयरी ने मइ वेगि पुलाइ

    ले जीवंतां जाणइ किमइ कूडु नवउं तउ मांडइ तिमइ॥२॥

    सासू वहूय चालइ पाउ ऊभउ रहइ जूठिलु राउ

    माडी बोलइ “सांभलि भीम केती भूइं वयरी नी सीम॥३॥

    इकि वयरी ना परिभव सह्या लहूया नंदणं पाछलि रह्या

    हूं थाकी अनु थाकी बहू दिणु ऊगिउ तऊ मरिसइ सहू”॥४॥

    वांसइ बाधा बंधव बेउ माडी महिली कंघि करेउ

    तरुयर मोडतु चालिउ भीम दैव तणुं बलु दलीइ ईम॥५॥

    एकं बाहं साहिउ राउ बीजी साहिउ लहुडउ भाउ

    जां महिमंडलि ऊगिउ सूरु तां वणि पहुतउ पंडव वीरु॥६॥

    सहू पराधुं निद्रा करीइ पाणी कारणि वणि वणि फिरइ

    भीम् जाम लेउ आवइ नीरु पाछलि जोअइ साहसधीरु॥७॥

    एक असंभम देखइ बाल पहिलुं दीठी अति विकराल

    बोलइ राखसि “सांभलि सामि हुं जि हिडंबा कहीउं नामि॥८॥

    राखस हिडंब तणी हूं धूय तइं दीठइं मयणातुर हूय

    बइठउ ताउ अछइ नीय ठाणि वाइं आवी माणुसहाणि॥९॥

    मुझ रहि आइसु दीघुं इसुं ‘कांई आव्युं छइ माणसुं

    कांघि करी लेउ वहिली आवि उपवासी मइं पारणं करावि॥१०॥

    कर जोडी हुं पणमउं पाय मई तुम्हि परणउ पांडवराय

    तुम्ह उपकार करिसु हुं घणा दूख दलिसु वणवासह तणा”॥११॥

    “उभी उभी इसुं बोलिइं पंडव बीजां मणूअ तोलि

    जग उद्धसिवा घर अवतरइं रूठा जगनुं जीवीउ हरइं॥१२॥

    माडी अम्ह घर नारि अम्ह बंधव सूता च्यारि

    ईह तणे तू चलणे लागि भगति करी सनवंछितु मागि॥१३॥

    एतइं राखसु रोसि जलंतु आवइ फुड फेकार करंतु

    बेटी बूसट मारइ जाम पीमु भिडेवा ऊठिउ ताम॥१४॥

    “रे राखस मुझ आगलि बाल मारिसि तउ तूं पूगउ कालु

    रूंख ऊपाडी बेई विढइं दह दिसि वाजइं डूंगर रढइं॥१५॥

    चलणनिहाइं जागिउं सहू पणमी बोलइ हिडंबा वहू

    “माइ माइ ऊठाडउ राउ रूठउ अम्हारउ ताउ॥१६॥

    इणि मारीसइ मुहडु भिडंतु वीजउ कोई धाउ तुरंतु”

    इसुं सुणी नइं धायउ पत्थु झुझइ भीम मिलिउ भडसत्थु॥१७॥

    पडिउ भीम आसासिउ राइ गदा लेउ वलि साम्हउ थाइ

    अरजुनु जां झूझेवा जाइ राखसु भीमि रहाविउ ठाइ॥१८॥

    ॥वस्तु॥

    अह हिडंबा अह हिडंबा सत्थि चल्लेइ

    कुंती अनु द्रौपदी कंघि करीउ मारगि चलावइ

    कुंती जल विणू तूंछीइ तहि हिडंब जलु लेउ आवइ

    एक दिवसु वण जोयती भोलाटी पंचालि

    जोई जोई ऊसना पंडव वणि विकरालि॥१९॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : आदिकाल की प्रामाणिक रचनाएँ (पृष्ठ 109)
    • संपादक : गणपति चंद्र गुप्त
    • रचनाकार : शालिभद्र सूरि
    • प्रकाशन : नेशनल पब्लिशिंग हॉउस
    • संस्करण : 1976

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