पंचपंडव चरित रासु (ठवणि ४)
panchpanDaw charit rasu (thawani ४)
गुरि वीनविउ अवसरि राउ “सविहुं बैठां करउ पसाउ
तुम्हि मंडवउ नवउ अखाडउ नव नव भंगि पुत्र रमाडउ”॥१॥
आइसु विदुरह दीधउं राइ दह दिसि जणवइ जोवा धाइं
सोवनथंभे मंच चडावइ राणो राणि ते सहू य आवइ॥२॥
पहिलउं आवइ गुरु गंगेउ धायरट्ठ धुरि बइसइं राउ
विदुर कृपा गुरु अवर नरिंद मंचि चड्या सोहइं जिम चंद॥३॥
केवि दिखाडइं खांडा सरमु केवि तुरंगम जाणइ मरमु
चक्र छुरी किवि साबल भालइं किवि हथीयार पडंता झालई॥४॥
पहिलुं सरमइ धरमह पुत्रो जेह रहइं नवि कोइ शत्रो
ऊठिउ भीमु गदा फेरंतउ तउ दुर्योधन भिडइ तुरंतउ॥५॥
मनि मावीत्रह मत्सर रहीउ पाछिइ अरजुनु अति गहगहीउ
भीमु दुजोहण जां बे मिलिया तां गुरनंदणि पाछा करीआ॥६॥
गुरु ऊठोडइ अरजुनु कुमरो करणहि सरिसउं माडइ वयरो
बे भाथा बिहुं खवे वहेई करयलि विसमु धणुहु धरेई॥७॥
लोहपुरुषु छइ चक्रि भेमंतउ पंच बाणि आहणइ तुरंतउ
राधावेधु करीउ दिखाडइ तिसउ न कोई तीण अखाडइ॥८॥
तींछे हूँफी ऊठइ करणु ‘अरजुनु पामइ मूं करि मरणु’
रोसिं ऊठइं बेउ झूझेवा रणरसु जोइं देवी देवा॥९॥
बेउ हूंफइं बेउ बाकरवाइं राय तणा मनि रीझु ऊपाइं
धरणि धसक्कइ गाजइ गयणु हारिइ जीतइ जयजयवयणु॥१०॥
हीयां ध्रसक्वइं कायर लोक संत तणां मन करइं सशोक
जाणे बीज पडि (अ) अकालि जाणे मुंद्र खुभ्या कलिकालि॥११॥
क्षणि नान्हा क्षणि मोटा दोसइं माहोमाहि खुसएं बेउ रीसइं
बंधवि वींटीउ राउ दुजोहणु चिहुंपंडवि वींटीउ द्रोणु॥१२॥
किसुं पहूतउ द्वापरि प्रलउ ईंह लगइ कइ अम्ह घरि विलउ
अरजुन बोलइ “रे अकुलीन, अरजुन झूझिसि मइं सुं हीन॥१३॥
अरजुन सरसी भेडि न कीजइ नियकुलमानि गरवु वहीजइ
इम आपणपुं घणुं वखाण बोलिन नीयकुल तणु प्रमाणुं॥१४॥
इम अरोडिउ तपि जा करणु पुरुष पराभवि सारुं मरणु
दुरजोधनि तउ पखउ करीजइ “वीराचारि कुलु जाणीजइ''॥१५॥
एतइं अतिरथि सारथि आवइ करण तणुं कुलु राउ जणावइ
मइं गंगा ऊगमतइ दीस लाधी रतनभरी मंजुस॥१६॥
कुंडल सरिसउ लाधउ बालो रंकू लहइ जिमरयण झमालो।
तिणि दिणि दीठउ सुमिणइ सूरो अम्ह घरि अविउ घुन्नह पूरो॥१७॥
कान हेठि करु करिउ जुसूउतउ अम्हि कहीयइ करणु निरुत्तउ”
इसीय वात मन भींतरि जाणी गूझू न कहीउ कूंती राणी॥१८॥
करणु दुजौहण बेई मित्र पंचह पंडव केरा शत्र
तसु दीधुं सइ कूयरं राजो सो संग्रहीइ जिणि हुइ काजो॥१९॥
द्रोणगुरि झूमतां वारी बेउ बेटा बहुमान भारी
ईम परीक्षा हुई अखाडइ तींछे अरजुन चडोउ पवाडइ॥२०॥
॥वस्तु॥
अन्न वासरि अन्न वासरि राय असथानि
परिवार सुं अछइं ताम दूतु पोलिं, पहूतऊ
यडिहारिंहिं वीनविउ लहीउ मानु चाउरि बइठ्ठऊ
पय पण मी इम वीनवइ “द्रपदनरिंदह धीय
परणउ कोई नरपवरुराहावेहु करीउ॥
द्रुपदरायह द्रुपदरायह तणी कूंयारि
तसु रूपह जामलिहिं त्रिहउं भूयणि कइ नारि नत्थीय
पधारउ कुमरिं सहीय आठ चक्र छइं थुमि थंभीय
तीह मति बि पूतली फिरइं सृष्टि संहारि
तासु नयण वेही करी परिणउ द्रपदि नारि”॥
- पुस्तक : आदिकाल की प्रामाणिक रचनाएँ (पृष्ठ 102)
- संपादक : गणपति चंद्र गुप्त
- रचनाकार : शालिभद्र सूरि
- प्रकाशन : नेशनल पब्लिशिंग हॉउसशा
- संस्करण : 1976
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