मरम म बोलिसि वीरु, कुणहइ केरउ कुतिगिहिं।
जलनिहि जिम गंभीरु, पुहविइ पुरुष प्रसंसीइ ए।।
उछिनु धनु लेउ, त्यागि भोगि जे वीद्रवइ ए।
पवहणि तडि पगु देउ, जाणे सो साइरि पडइ ए।।
एक कन्हइ लिइ व्याजि, बीजाह्नहं व्याजि दीयए।
सो नर जीविय काजि, विस वह्नि वन संचरइ ए।।
ऊडइ जलि म नपइसि, अधिक म बोलिसि सयणुस्युं।
सुनइ घरि म न पइसि, चउहटइ म विढिसि नारिस्युं।।
बोल विच्यारिय बोलि, अविचारीय घांघल पडइ ए।
मूरष मरइ निटोल, जे धण जौवण वाउला ए।।
बल ऊपहरऊ कोपु, बल ऊपहरी वेढि पुण।
म करिसि थापणि लोप, कूडओ किमइ म विवहरसे।।
म करिस जूयारी मित्र, म करिसि कलि धन सांपडए।
घणु लडावि म पुत्र, कलह म करिजे सुयण सिउं तु।।
धनु ऊपजतउं देषि, बाप तणी निंदा म करे।
म गमु जन्मु अलेषि, धरम बिहूणा धामीयहं।।
कंठ बिहूणुं गानु, गुरु निवहूणउ पाढ पुण।
गरथ बिहूणुं अभिमान, ए त्रिहूइं असुहामणा ए।।
- पुस्तक : आदिकाल की प्रामाणिक रचनाएँ (पृष्ठ 32)
- संपादक : गणपति चंद्र गुप्त
- रचनाकार : शालिभद्र सूरि
- प्रकाशन : नेशनल पब्लिशिंग हॉउस
- संस्करण : 1976
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