हासउं म करिसि कंठइं कूया, गरथि मूढ म खेलि जूया।
म भरिसि कूडी साषि किहइं।।
गांठि सारि विणज चलावे, ते आरंभी जं निरवाहे।
निय नारी संतोष करे।।
मोटर सरिसुं वयर न कीजिइं, वडा माणस वितउ न दीजइ।
बइसि म गोठि फलहणीया।।
गुरुयां उपरि रीस न कीजइ, सीष पूछंतां कुसीष म देजे।
विणउ करंतां दोष नवि।।
म करिसि संगति वेशासरसी, धण कण कूड करी साहरसी।
मित्री नीचिइ सिं म करे।।
थोडामाहि थोडेरु देजे, बेला लाधी कृपणु म होजे।
गरव म करीजे गरथतणुं।।
व्याधि शत्रु ऊठतां वारउ, पाय ऊपरि कोइ म पचारु।
सतु क छंडिसि देहि पडीउ।।
अजाण्यारहि पढू म थाए, साजुण पीढ्यां वाहर धाए।
मंत्र म पूछिसि स्त्री कन्हए।।
अजाणि कुलि म करि विवाहो, पाछइ होसिइं हीयडइ दाहो।
कन्या गरथिइ म वीकणसे।।
देव म भेटिसि ठालइ हाथि, अणउलषीतां म जाइसि साथिइं।
गूझ म कहिजे महिलीयह।।
परहुणइं आव्यइ आदर कीजइं, जूनूं ढोर न कापड लीजिइं।
हूतइ हाथ न खांचीइए।।
गाढइं घाई ढोर म मारउ, मातइ कलहि म पइसि निवारु।
पर घरि मा जिमसि जा सकूया।।
भगति म चूकीसि बापह मायी, जूठउ चपल म छंडिसि भाई।
गुरवु म करि गुरु सुहासिणी य।।
नीपनइं धानि म जाइसि भूषिउ, गांठि गरथि म जीविसिलूषउं।
मोटां पातक परहरउ ए।।
गिउ देशांतरि सूयसि म रातिइ, तिम न करेवुं जिम टलपांतिइं।
तृष्णा ताणिउ म न वहसे।।
धणि फीटइं बिवसाइं लागे, आंचल उडी म साजण मागे।
कुणहइ कोइ नइ ऊधरीउ।।
[जीवतणु जीवि राषीजइ, सविहुं नइ उपगार करीजइ।
सार संसारह एतलु।।]
माणसि करिव सवि व्यवहारु, पापी धरि म न लेजे आहार।
म करिस पूत्र पडोगणुं ए।।
जइ करिवुं तो आगइ म मागिं, गांधीसिउं न करेवउं भागि।
मरतां अरथु म लेसि पुण।।
उसड म करिसि रोग अजाणिइं, कृणह्नं गुरथु म लेसि पराणि।
सिरज्यां पाषइ अरथ नवि।।
धरमि पडीगे दुत्थित श्रवण, अनि आवतुं जाणे मरण।
माणस धरम करावीइ ए।।
इसि परि वइदह पाप न लागइं, अनइ जसवाउ भलेरउ जागइ।
राषे लोभिइं अंतरीउ।।
- पुस्तक : आदिकाल की प्रामाणिक रचनाएँ (पृष्ठ 32)
- संपादक : गणपति चंद्र गुप्त
- रचनाकार : शालिभद्र सूरि
- प्रकाशन : नेशनल पब्लिशिंग हॉउस
- संस्करण : 1976
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