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बुद्धि रास (ठवणि २)

buddhi ras (thawani २)

शालिभद्र सूरि

शालिभद्र सूरि

बुद्धि रास (ठवणि २)

शालिभद्र सूरि

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    हासउं करिसि कंठइं कूया, गरथि मूढ खेलि जूया।

    भरिसि कूडी साषि किहइं।।

    गांठि सारि विणज चलावे, ते आरंभी जं निरवाहे।

    निय नारी संतोष करे।।

    मोटर सरिसुं वयर कीजिइं, वडा माणस वितउ दीजइ।

    बइसि गोठि फलहणीया।।

    गुरुयां उपरि रीस कीजइ, सीष पूछंतां कुसीष देजे।

    विणउ करंतां दोष नवि।।

    करिसि संगति वेशासरसी, धण कण कूड करी साहरसी।

    मित्री नीचिइ सिं करे।।

    थोडामाहि थोडेरु देजे, बेला लाधी कृपणु होजे।

    गरव करीजे गरथतणुं।।

    व्याधि शत्रु ऊठतां वारउ, पाय ऊपरि कोइ पचारु।

    सतु छंडिसि देहि पडीउ।।

    अजाण्यारहि पढू थाए, साजुण पीढ्यां वाहर धाए।

    मंत्र पूछिसि स्त्री कन्हए।।

    अजाणि कुलि करि विवाहो, पाछइ होसिइं हीयडइ दाहो।

    कन्या गरथिइ वीकणसे।।

    देव भेटिसि ठालइ हाथि, अणउलषीतां जाइसि साथिइं।

    गूझ कहिजे महिलीयह।।

    परहुणइं आव्यइ आदर कीजइं, जूनूं ढोर कापड लीजिइं।

    हूतइ हाथ खांचीइए।।

    गाढइं घाई ढोर मारउ, मातइ कलहि पइसि निवारु।

    पर घरि मा जिमसि जा सकूया।।

    भगति चूकीसि बापह मायी, जूठउ चपल छंडिसि भाई।

    गुरवु करि गुरु सुहासिणी य।।

    नीपनइं धानि जाइसि भूषिउ, गांठि गरथि जीविसिलूषउं।

    मोटां पातक परहरउ ए।।

    गिउ देशांतरि सूयसि रातिइ, तिम करेवुं जिम टलपांतिइं।

    तृष्णा ताणिउ वहसे।।

    धणि फीटइं बिवसाइं लागे, आंचल उडी साजण मागे।

    कुणहइ कोइ नइ ऊधरीउ।।

    [जीवतणु जीवि राषीजइ, सविहुं नइ उपगार करीजइ।

    सार संसारह एतलु।।]

    माणसि करिव सवि व्यवहारु, पापी धरि लेजे आहार।

    करिस पूत्र पडोगणुं ए।।

    जइ करिवुं तो आगइ मागिं, गांधीसिउं करेवउं भागि।

    मरतां अरथु लेसि पुण।।

    उसड करिसि रोग अजाणिइं, कृणह्नं गुरथु लेसि पराणि।

    सिरज्यां पाषइ अरथ नवि।।

    धरमि पडीगे दुत्थित श्रवण, अनि आवतुं जाणे मरण।

    माणस धरम करावीइ ए।।

    इसि परि वइदह पाप लागइं, अनइ जसवाउ भलेरउ जागइ।

    राषे लोभिइं अंतरीउ।।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आदिकाल की प्रामाणिक रचनाएँ (पृष्ठ 32)
    • संपादक : गणपति चंद्र गुप्त
    • रचनाकार : शालिभद्र सूरि
    • प्रकाशन : नेशनल पब्लिशिंग हॉउस
    • संस्करण : 1976

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