भरतेश्वर बाहुबली रास (ठवणि १)
bharteshwar bahubli ras (thawani १)
प्रहि उगमि पूरवदिसिहिं, पहिलउं चालीय चक्क तु
धूजीय धरयल धरहर ए, चलीय कुलाचल चक्क तु।।१८।।
पूठि पीयाणुं तउ दियए, भयबलिं भरह नरिंद तु
पिडि पंचायख परदलहुं, इलियल अवर सुरिद तु।।१९।।
कज्जीय सयहरि संचरीय, सेनापति सामंत तु
मिलीय महाधर मंडलीय, गाढिम गुण गज्जंत तु।।२०।।
गडयडतु गयवर गुडीय, जंगम जिम गिरिशृंग तु
सुंड दण्ड चिर चालवइं, वेलइं अंगिहि अङ्ग तु।।२१।।
गंजइं फिरि फिरि गिरि सिहरि, भंजइं तरूवर डालि तु
अंकस वसि आवइं नहीं य, करइं अपार अणालि तु।।२२।।
हीसइं हसमिसि हणहणइं ए, तरवर तार तोषार तु
खूंदइं खुरलइं खेडवीय, मन मानइं असुवार तु।।२३।।
पाखर पंखि कि पंख रूय, ऊडाऊडाहिं जाइं तु
हुँफइ तलपइं ससइं धसइं, जड़इं जकारीय धाइ तु।।२४।।
फिरइ फेकारइं फोरणइं, फुड़ फेणीउलि फार तू
तरणि तुरंगम सम तुलइं, तेजीय तरल ततार तु।।२५।।
धडहडंत धर द्रम दमीय, नह रूधइं रवाट तु
रव भरि गणइं न गिरि गहण, थिर थोभइ रहथाट तु।।२६।।
चमर चिंघ धज लहलहइं ए, मिल्हइं मयगल माग तु
वेगि बहंता तींह तणइं ए, पायल न लहइं लाग तु।।२७।।
दडवडत दह दिसि दुसह एं, सरिय पायक चक्क तु
अंगो अंगिइं अंगमइं, अरीयणि असणि अणंत तु।।२८।।
ताकडूं, तलपई तालि मिलिहिं, हणि हणि हणि पभणंत तु
आगलि कोइ न अछइ भलु ए, जे साहमु झूझंत तु।।२९।।
दिसि दिसि दारक संचरीय, वेसर वहइं अपार तु
संख न लाभइं सेंन तणीं, कोइ न लहइ सुधि सार तु।।३०।।
बंधव बंधवि नवि मिलइं ए, न बेटा मिलइं बाप तु
सामि न सेवक सारवइं, आपहि आप विथाप तु।।३१।।
गयवडि चंडीउ, चक्कधरो, पिडि पयंड भूयदण्ड तु
चालीय चिहूँदिसि चलचलीय, दिइं देसाहिव दंड तु।।३२।।
वज्जीय समहरि द्रम द्रमीय, घण निनाद निसाण तु
संकीय सुखरि सग्ग सवे, अवरहं कमण प्रमाण तु।।३३।।
ढाकडूक त्रंबक त्रणइं ए, गाजीय गयण निहाण तु
षड षंडह षंडाहिं वहं, चालतु चमकीय भाण तु।।३४।।
भेरीय रव भर तिहुँ भूयणि, साहित किमइं न माइ तु
कंपिय पर्य भरि शेष रहिउ, विण साहीउ न जाइ तु।।३५।।
सिर डोलावइ धरणि हिं ए, टूक टोल गिरि शृंग तु
सायर सयल वि झलझलीय, गहलीय गंग तुरंग तु।।३६।।
खर रवि खूं दीय मेहरवि, महिपलि मेहंधार तु
उजू आलइ आउध तणइं, चालइं राय-खंधार तु।।३७।।
मंडिय मंडलवइ न मुहे, ससि न कवइं सामन्त तु,
राउतं राउतवर रहीय, मनि मूझइ मतिवन्त तु।।३८।।
कटक न कवणिहिं भर तणुं, भाजइ भेडि भिडंत तु
रेलइं रयणायर जमले, राणोराणि नमंत तु।।३९।।
साठि सहस संवच्छरहं, भरहस भरह छ खण्ड तु
समरेगणि साधइ सधर, वरतइ आण अखण्ड तु।।४०।।
बार वरिस नमि विनमि, भड भिडीय तानावीय आण तु
आवाठी तडि गंग तणइ, पामइ नवह निहाण तु।।४१।।
छत्रीस सहस मउडुध सिउं, चऊद रयण सम्पत तु
आविउ गंगा भोगवीय, एक सहस वरसाउ तु।।४२।।
- पुस्तक : आदिकाल की प्रामाणिक रचनाएँ (पृष्ठ 3)
- संपादक : गणपति चंद्र गुप्त
- रचनाकार : शालिभद्र सूरि
- प्रकाशन : नेशनल पब्लिशिंग हॉउस
- संस्करण : 1976
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