(दोहा)
पुहुकर जो मन में बसे, नैन बिलोकै ताहि।
मूरति पूज पषान की, ध्यान धरत कर जाहि॥
काम कुँवर बस काम के, कामिन कर गहि लीन॥
चतुर चारु चुंबन उरज, आलिंगन पुन दीन॥
(चौपही)
चतुर चारु जोवन भरि दोऊ। सरवर रूप न पूजै कोऊ॥
दोऊ काम कला परवीना। दोऊ नख सिख नेह नवीना॥
दोऊ सेज एक छबि छाजै। एक रासि जनु रबि ससि राजै॥
उतहि कुँवर मनमथ मतवारौ। विविध भाउ रस विलसन हारौ॥
इतहिं नवल नव वधू पियारी। गुननि पौढ़ अरु जोबन वारी॥
करहिं कलोल काम कर क्रीड़ा। क्रम-क्रम तजहि मदन बस ब्रीड़ा॥
प्रथम सुरति पिय चातुर ताई। उतहिं प्रान पति आतुरताई॥
ललित लाज भय भामिनि सोहै। चितवत चतुर चातुरी मोहै॥
(दोहा)
प्रथम सुरति प्रीय है, पहुकर सरल विलास।
कामी के चित आतुरी, कामिनि के मन आस॥
(छंद तोटकी)
मन कामिनी त्रास प्रकास लसै। जुग लोचन भीतर लाज बसै॥
उनमीलत अच्छ बिराज इमं। रवि उग्गत वारिज हास जिमं॥
जुग मूल उरोजनि आड़ दियै। कर पल्लव नीबी निरोध कियै॥
जुग जंघनु बंधनु बाँध रही। कर सौं कर आरत रूपगही॥
हिय कंपत साँस उसास भरै। मृग अच्छ कटाच्छन चोट करै।
रति केलि विलोकत वान लजै। नव नूपुर की झनकार बजै॥
छिन में जब प्रीति प्रतीति भई। छल कै बल कै उरलाइ लेई॥
दोई आनंद आनंद अंक भरै। रुचि सौं अधरामृत पान करैं॥
अवलोकन चुंबन हास रसं। रति रीति करंति बिलास वसं॥
कटि छीन पयोधर प्रान प्रिया। हरषै हित सौंह लसंत हिया॥
महकै जनु मध्यी सुगंध रची। कुहकै जनु कोकिल केलि सची॥
परसै जनु पारस प्रीत जिमं। दरसै मुख चंद चकोर इमं॥
(दोहा)
सिथलित सिर अलकावली, सिथलित जंघ दुकूल॥
मैटि लाज मरजाद तन, बढ़ी परसपर फूल॥
(सवैया)
उरज उतंग अरु उद्दित अनंग अंग,
सोभी पिय संग रति रंग के विहार की।
कुंडिल कपोल सोभा जगमगै जु दीप जोति,
पहुकर प्रीत परिरंभन प्रकार की॥
सिथिलित सुदेस केस भाल श्रम सीकरनि,
तैसियै उर लसति छबि मौतिनि के हार की।
रोम-रोम देति सुख-सुख न्यारे-न्यारे भेद,
धुनि रसनानकार रसना झनकार की॥
(दोहा)
पुहुकर सर जस वोस कन, ढिगहिं चलत विव चंद।
अहिपतिनी तहिं पर लसत, पति पावत मकरंद॥
दोऊ जोबन ज़ोर में, मदन महा मद अंध।
पुहुकर प्रेम प्रकास तैं, छूटे सकुचे बंध॥
जुरत सुरत संग्राम में, पहुकर उभै अजीत।
हारे हारि न मानहीं, केलि रची विपरीत॥
(छंद तोटक)
विपरीति रची रति केलि कला। घन ऊपर ज्यौं चमकै चपला॥
विथुरी लट आनन रूप रसै। रजनी तम वे रजनीसु लसै॥
कवरी छुटि फूल परत्ति इमं। निसि स्याम नच्छत्र गिरंति जिमं॥
मुकता गन छूटति टूटि परै। जनु फूलझरी छुटि फूल झरै॥
श्रम सीकर ल्हास सुखं हरषै। दधिजात सुधा कर से बरषै॥
कुच ऊपर मुत्तिय हार चलं। सिर संकर गंग प्रवाह ढलं॥
चमकै चल कुंडिल केस मिलै। थहरै रजनीकरु राहु गिलै॥
कट किंकिनि कंकन भेद बजै। तरुनी तिहिं ऊपर नृत्य सजै॥
रसना रस चुंबन चौज करै। तिहि तालनि में झपताल परै॥
अधरामृत पानि सुदंत लगै। हय ताजनु ज्यौं मनमथ्य जगै॥
अति लालचु लोभ सु आतुरता। अरु तैतिस बैनु सुचातुरता॥
उडुपत्ति कला जिमि रूप चढ़ै। पल ही पल प्रेम हुलासु बढ़ै॥
(दोहा)
दंपति जोबन ज़ोर तै, भिरति सुरति-संग्राम।
हारे हार न मानहीं, संग सहायक काम॥
पुहुकर नाइक मैन मय, पाइ प्रथम नवनारि।
सुख लूटत निधि रंक ज्यों, देखौ रसिक विचारि॥
(सवैया)
गाढ़ौ गढु लाज लै ढहाइ डारी कोट वोट,
नीबी पट खोलि रस जीति करि लीनै है।
छाती नख रेख, छत दसन अधर हँसि,
किधौ मधुपान सुख प्राननि कौ दीनै है॥
लूट्यौ लंकु लंका जैसे संकु तजि अंकु भरि,
पुहुकर कहै अंग-अंग बसि कीनै है।
काम की अलोल कोक कलाकी कलोल करि।
सुरति समूह सुखरंग रस भीनै है॥
(दोहा)
इत नागर नव जोवना, नव अनंग नव नेह।
मनमथ मन रथ सारथी, सुरति जुद्ध नहि छेह॥
(सवैया)
मन के सुरथ चढ़ि सारथी अनंग संग,
भृगुटी धनुक धरे वरुनी के बान जू।
अंचल धुजा सौं सोहै कंचुकि जिरह जेबि।
सुभट कटाछ सेज मसर मैदान जू॥
रति सौं रुचिर रूप रैनि रति जुद्ध कियौ,
कंकन किंकिनि बाजै विजै के निसान जू।
पुहुकर तीखे नख घाइ सनमुख लागे,
मुरी न मयंक मुखी सुरति सुजान जू॥
(दोहा)
पुहुकर रस भरि रीझि करि, आनंद भरे अपार।
त्रिपिति भये करि केलि रुचि, मदन जुद्ध तिहिं वार॥
- पुस्तक : रसरतन (पृष्ठ 117)
- संपादक : शिवप्रसाद सिंह
- रचनाकार : पुहकर
- प्रकाशन : नागरीप्रचारिणी सभा, काशी
- संस्करण : 1963
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