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नाटक

हिंदी नाटक-साहित्य का उदय आधुनिक काल की देन है। इससे पूर्व संस्कृत और प्राकृत में समृद्ध नाट्य-परंपरा रही थी जिसका प्रभाव आधुनिक युग तक बना रहा था। इनकी मूल प्रवृत्ति प्रायः शृंगारिक थी। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में पारसी थिएटर कंपनियों की लोकप्रियता के साथ नाटकों का मुख्य बल हल्के मनोरंजन पर रहा। इस परिदृश्य में भारतेंदु ने हिंदी नाटकों को साहित्यिक-कलात्मक रूप देने का आरंभिक प्रयास किया। भारतेंदु की परंपरा को जयशंकर प्रसाद ने नया स्वरूप और नई दिशा प्रदान की। हिंदी नाटक विधा में जयशंकर प्रसाद केंद्रीय महत्त्व रखते हैं। आगे मोहन राकेश और सुरेंद्र वर्मा सरीखे नाटककारों ने इसे आधुनिक यथार्थ से जोड़ा।