आलोचनात्मक लेखन
आलोचना किसी कृति, कृतिकार और उसके समय के मूल्यांकन की विधा है। मूल्यांकन की प्रक्रिया प्रतिमानों के निर्माण और फिर उसके आधार पर वास्तविक मूल्यांकन के दो पक्षों पर आधारित होती है। इन दोनों पक्षों को क्रमशः सैद्धांतिक और व्यवहारिक समीक्षा के रूप में जाना जाता है। नए मानदंडों की स्थापना के साथ आचार्य रामचंद्र शुक्ल को हिंदी आलोचना के इतिहास में केंद्रीय महत्त्व प्राप्त है। बतौर विधा आलोचना ने शुक्ल-पूर्व युग में प्रमुखता प्राप्त की और शुक्लोत्तर युग में इसका सर्वतोन्मुखी विकास हुआ।
जगदीशचंद्र माथुर
जैनेंद्र कुमार
प्रेमचंदोत्तर युग के समादृत कथाकार, उपन्यासकार और निबंधकार। गद्य में मनोविश्लेषणात्मक परंपरा के प्रवर्तक।