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वियोगी हरि

1895 - 1988 | छतरपुर, मध्य प्रदेश

शुक्लयुगीन हिंदी गद्यकार और ब्रज भाषा के कवि। गांधीवाद के अनुसरण और दलित सेवा के लिए भी उल्लेखनीय।

शुक्लयुगीन हिंदी गद्यकार और ब्रज भाषा के कवि। गांधीवाद के अनुसरण और दलित सेवा के लिए भी उल्लेखनीय।

वियोगी हरि की संपूर्ण रचनाएँ

दोहा 110

कहा भयौ इक दुर्ग जो, ढायौं रिपु रणधीर।

तुम तौ मानिनि-मान-गढ़, नित ढाहत, रति-बीर॥

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जयतु कंस-करि-केहरि! मधु-रिपु! केशी-काल।

कालिय-मद-मर्द्दन! हरे! केशव! कृष्ण कृपाल॥

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तुच्छ स्वर्गहूँ गिनतु जो, इक स्वतंत्रता-काज।

बस, वाही के हाथ है, आज हिन्द की लाज॥

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सहस फनी-फुंकार औ, काली-असि-झंकार।

बन्दों हनु-हुंकार त्यौं, राघव-धनु-टंकार॥

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गिरिवरू जापै धारि कै, राखी ब्रज-जन-लाज।

ताही छिगुनी कौ हमैं, बल बानो, यदुराज॥

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निबंध 1

 

पुस्तकें 4

 

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