सूरदास का परिचय
सूरदास विट्ठलनाथ द्वारा स्थापित ‘अष्टछाप’ के अग्रणी भक्त-कवि थे। सूरदास श्री वल्लभाचार्य से १० दिन छोटे थे, इस आधार पर यह निश्चित किया गया है कि सूरदास का जन्म वैशाख शुक्ल ५, संवत् १५३५ वि. (सन् १४७८ ई०) को हुआ था। सूरदास के विषय में आज जो भी ज्ञात है, उसका आधार मुख्यतया 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' ही है। उसके अतिरिक्त पुष्टिमार्ग में प्रचलित अनुश्रुतियाँ जो गोस्वामी हरिराय द्वारा की गई 'भावप्रकाश' नाम की टीका और गोस्वामी यदुनाथ द्वारा लिखित 'वल्लभ दिग्विजय' में प्राप्त होती हैं—सूरदास के जीवनवृत्त की कुछ घटनाओं की सूचना देती हैं।
'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' से ज्ञात होता है कि प्रसिद्ध मुगल सम्राट अकबर ने सूरदास से भेंट की थी, परन्तु यह आश्चर्य की बात है कि उस समय के किसी फ़ारसी इतिहासकार ने सूरदास का कोई उल्लेख नहीं किया। तुलसीदास का भी मुग़लकालीन इतिहासकारों ने उल्लेख नहीं किया। गोस्वामी हरिराय के 'भाव प्रकाश’ के अनुसार सूरदास का जन्म दिल्ली के पास सीही नाम के गाँव में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वैरागी होकर वे आगरा और मथुरा के बीच यमुना के किनारे गऊघाट पर आकर रहने लगे। 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' में सूर का जीवनवृत्त गऊ-घाट पर हुई वल्लभाचार्य से उनकी भेंट के साथ प्रारम्भ होता है। अरैल से जाते समय वल्लभाचार्य ने उनसे भेंट की और उन्हें पुष्टिमार्ग में दीक्षित किया। 'वार्ता' में बताया है कि सूरदास उस समय तक कृष्ण की आनन्दमय ब्रजलीला से परिचित नहीं थे और वे दैन्यपूर्ण दास्यभाव की भक्ति में अनुरत्त थे, वल्लभाचार्य ने उनका ‘घिघियाना' (दैन्य प्रकट करना) छुड़ाया और उन्हें भगवद्-लीला से परिचत कराया। वल्लभाचार्य ने उन्हें गोकुल में श्रीनाथ जी के मन्दिर पर कीर्तनकार के रूप में नियुक्त किया और वे आजन्म वहीं रहे। गोस्वामी हरिराय के अनुसार प्रसिद्ध संगीतकार तानसेन के माध्यम से अकबर और सूरदास की भेंट मथुरा में हुई। 'वार्ता' में सूरदास के गोलोकवास का प्रसंग है। गोसाईं विट्ठलनाथ ने अपने सेवकों से कहा कि, 'पुष्टिमार्ग का जहाज' जा रहा है, जिसे जो लेना हो ले ले।
सूरदास की सर्वसम्मत प्रामाणिक रचना 'सूरसागर' है। यह उनकी सम्पूर्ण रचनाओं का संकलन है। 'सूरसागर' के अतिरिक्त 'साहित्य लहरी' और 'सूरसागर सारावली' को भी कुछ विद्वान उनकी प्रामाणिक रचनाएँ मानते हैं परन्तु इनकी प्रामाणिकता सन्दिग्ध है। उनकी प्रेम-भक्ति के सख्य, वात्सल्य और माधुर्य भावों का चित्रण जिन असंख्य संचारी भावों, अनगिनत घटना-प्रसंगों, बाह्य जगत प्राकृतिक और सामाजिक—के अनन्त सौन्दर्य चित्रों के आश्रय से हुआ है, उनके अन्तराल में उनकी गम्भीर वैराग्य-वृत्ति तथा अत्यन्त दीनतापूर्ण आत्म निवेदात्मक भक्ति-भावना की अन्तर्धारा सतत् प्रवाहमान रही है परन्तु उनकी स्वाभाविक विनोदवृत्ति तथा हास्यप्रियता के कारण उनका वैराग्य और दैन्य उनके चित्त को अधिक ग्लानियुक्त और मलिन नहीं बना सका। आत्महीनता की चरम अनुभूति के बीच भी वे उल्लास व्यक्त कर सके। उनकी गोपियाँ विरह की हृदय विदारक वेदना को भी हास-परिहास के नीचे दबा सकीं। करुण और हास का जैसा एकरस रूप सूर के काव्य में मिलता है, अन्यत्र दुर्लभ है। सूर का काव्य एक साथ ही लोक और परलोक को प्रतिबिम्बित करता है। आचार्य शुक्ल ने ‘सूरसागर’ की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि “यह रचना इतनी प्रगल्भ और काव्यांगपूर्ण है कि आगे होने वाले कवियों की शृंगार और वात्सल्य की उक्तियाँ सूर की जूठी सी जान पड़ती है! अतः सूरसागर किसी चली आती हुई गीतकाव्य-परंपरा का; चाहे वह मौखिक ही रही हो, पूर्ण विकास सा प्रतीत होता है।“ उन्होंने उपदेश अधिक नहीं दिये, सिद्धान्तों का प्रतिपादन पण्डितों की भाषा में नहीं किया, सांसारिक जीवन के आदर्शों का प्रचार करने वाले सुधारक का बाना नहीं धारण किया परन्तु मनुष्य की भावात्मक सत्ता का आदर्शीकृत रूप गढ़ने में उन्होंने जिस व्यवहार बुद्धि का प्रयोग किया है, उससे प्रमाणित होता है कि वे किसी मनीषी से पीछे नहीं थे। उनका प्रभाव सच्चे कान्तासम्मित उपदेश की भाँति सीधे हृदय पर पड़ता है। वे निरे भक्त नहीं थे, सच्चे कवि थे—ऐसे द्रष्टा कवि, जो सौन्दर्य के ही माध्यम से सत्य का अन्वेषण कर उसे मूर्त रूप देने में समर्थ होते हैं। युगजीवन का प्रतिबिम्ब देते हुए उसमें लोकोत्तर सत्य के सौन्दर्य का आभास देने की शक्ति महाकवि में ही होती है, निरे भक्त, उपदेशक और समाज सुधारक में नहीं। नीचे उनकी रचनाओं का सामान्य परिचय दिया जा रहा है।
सूरसागर : 'सूरसागर' नाम से सूचित होता है कि यह सूर की सम्पूर्ण रचनाओं का संकलन है। 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' में सूरदास की वार्ता के प्रसंग (तीन) के अनुसार 'सूरदास जी ने सहस्रावधि पद किये हैं ताको सागर है यह सो सब जगत में प्रसिद्ध भये' अर्थात् सूरदास ने हजारों की संख्या में पद रचे थे, उन्हीं को 'सूरसागर' में संकलित किया गया है। सूरदास ने अपनी रचना (भागवत) के आधार पर की थी। परन्तु सूरसागर का सूक्ष्म अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि 'सूरसागर' का मुख्य वर्ण्य-विषय ब्रजवल्लभ श्रीकृष्ण की लीला का गायन है और यह गायन श्रीकृष्ण के जन्म से लेकर उनके मथुरा गमन तथा द्वारका-गमन और फिर कुरुक्षेत्र में ब्रजवासियों से भेंट करने तक की समस्त घटनाओं का क्रमबद्ध वर्णन करता है। इसके अतिरिक्त विनय के पद भी 'सूरसागर' का एक प्रमुख अंग है। सूर की रचना का तीसरा मुख्य अंग राम-कथा संबंधी पदों का है। 'सूरसागर' के शेष अंश में, जिसकी पद संख्या अत्यंत न्यून है, 'भागवत' के विविध स्कन्धों में प्राप्त भक्ति भावसम्बन्धी कथाओं का वर्णन हुआ है। सूरदास ने कृष्ण-लीला का गायन यद्यपि 'श्रीमद्भागवत' में वर्णित कृष्ण-लीला के आधार पर किया परन्तु यह आधार उन्होंने केवल सूत्र रूप में ही ग्रहण किया। विविध प्रसंगों के विवरणों में उनकी मौलिक कल्पना स्पष्ट प्रकट हो जाती है, साथ ही उन्होंने ऐसे अनेक नवीन प्रसंगों की उद्भावना की, जिनका 'भागवत' में संकेत भी नहीं मिलता।
यद्यपि कृष्ण-लीला के वर्णन में उन्होंने वात्सल्य, सख्य और माधुर्य भावों में ही अपनी तल्लीनता प्रकट की है परन्तु दैन्य भाव इन भावों का विरोधी नहीं है। वस्तुतः दैन्य भक्ति का मूल भाव है, प्रत्येक भाव अनुभूति की चरम स्थिति में दैन्य समन्वित हो जाता है, जैसा कि सूर के सभी भावों के विरह-संबंधी पदों से स्पष्ट सूचित होता है। प्रपत्ति अर्थात् आत्मसमर्पण की भावना दैन्यप्रधान विनय के पदों में अत्यन्त प्रत्यक्ष और अपने शुद्ध रूप में प्राप्त होती है। सत्संग की महिमा तथा हरि-विमुखों की निन्दा की गयी है। भक्ति के लक्षणों का भी यत्र-तत्र उल्लेख है, जिनमें नाम-स्मरण सर्वप्रमुख है परन्तु वस्तुतः भक्ति का मूल लक्षण प्रेमभाव है, जो इन पदों में दैन्यसमन्वित होकर दास्य-रति के रूप में प्रकट हुआ है।
'सूरसागर' के स्फुट पदों में राम-कथा सम्बन्धी पद भी महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें राम-जन्म, बाल-केलि, धनुभंग, केवट-प्रसंग, पुरवधू-प्रश्न, भरत-भक्ति, सीताहरण पर राम-विलाप, हनुमान द्वारा सीता की खोज, हनुमान-सीता संवाद, रावण-मन्दोदरी संवाद, लक्ष्मण के शक्ति लगने पर राम-विलाप, हनुमान का संजीवनी लाना, सीता की अग्नि परीक्षा और राम का अयोध्या प्रवेश—ये मार्मिक स्थल हैं, जिन पर सूरदास का ध्यान गया है। सीता उद्धार पर विशेष ध्यान देने के कारण लंका-काण्ड के बाद सुन्दर-काण्ड का विस्तार सबसे अधिक है। उन्होंने राम के शौर्य, पौरुष आदि का उतनी तन्मयता से वर्णन नहीं किया, जितनी तन्मयता और आत्मीयता के साथ सीता और लक्ष्मण के सम्बन्ध में उनकी वेदना का चित्रण किया है, फिर भी सूरदास के राम मर्यादा का सदैव पालन करते हैं। राम कथा-सम्बन्धी पदों की भाव-धारा में भी दैन्य की ही प्रधानता है।
'सूरसागर' में कृष्ण-लीला की दो धाराएँ प्रवाहित होती देखी जाती हैं—एक में कृष्ण के विस्मयकारी संहार कार्यों का वर्णन है, और दूसरी धारा में कृष्ण के शुद्ध परमानन्द रूप की अभिव्यक्ति हुई है। इसमें कृष्ण की वे सम्पूर्ण लीलाएँ आ जाती हैं, जिन्हें सुख-क्रीड़ाएँ कह सकते हैं और जो वस्तुत 'सूरसागर' की उत्कृष्ट भाव-संपत्ति का निर्माण करती हैं। कृष्ण की इन क्रीड़ाओं का भावात्मक विकास तीन दिशाओं में होता है: एक ओर उनके द्वारा यशोदा, नन्द तथा ब्रज के अन्य वयस्क नर-नारियों के हृदय में कृष्ण के प्रति अनुकम्पा रति की विकास-वृद्धि होती है, दूसरी ओर कृष्ण के सखाओं के हृदय में उनके प्रति प्रेम-रति का उदय होता है तथा तीसरी ओर ब्रज की कुमारी, किशोरी और नवोढ़ा गोपियों के मन में मधुर अथवा कान्ता रति का उदय और उत्तरोत्तर विकास होता है। संयोग के सुख तथा वियोग के दारुण दुःख—दोनों का चित्रण करने में सूरदास ने असंख्य मौलिक प्रसंगों की उद्भावना कर तथा मानव मन में उदय होने वाले असंख्य मनोरागों का बिम्बात्मक चित्रण कर अपनी काव्य प्रतिभा का परिचय दिया है। यदि महाकाव्य की शास्त्रीय परिभाषा में बताये गये लक्षणों का विचार न किया जाय तो सूरदास के इस गीति-प्रबन्ध को महाकाव्य कहा जा सकता है। इस काव्य की विलक्षण विशेषता यह है कि इसमें विभिन्न कथानक पृथक व्यक्तित्व रखते हुए भी सम्पूर्ण काव्य के अभिन्न अंग हैं तथा एक दूसरे पर निर्भर हैं। इसकी एक अन्य विशेषता यह भी है कि गीति-शैली में रचे जाने के कारण इसमें गीति और प्रबन्ध के परस्पर विरोधी लगने वाले तत्त्व समन्वित होकर एकाकार हो गये हैं।
सूरसागर सारावली : सूरसाहित्य के प्रसिद्ध विद्वान प्रभुदयाल मीतल इसे प्रामाणिक रचना मानते हैं। 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' में इसका उल्लेख नहीं है। वार्ताओं में परिवर्द्धन और उनकी व्याख्या करने वाले पुष्टिमार्ग के प्रसिद्ध विद्वान गोसाईं हरिराय ने भी 'सारावली' का कोई उल्लेख नहीं किया। 'सारावली' का उद्देश्य 'सूरसागर' का सार देना ही रहा है। ऐसा होते हुए भी 'सूरसागर' और उसकी इस तथाकथित 'सारावली' में अनेक अन्तर हैं। 'सारावली', 'सूरसागर' के पदों का सूचीपत्र नहीं है, यह एक स्वतन्त्र रचना है। सूरदास ने हरि-लीला विषयक जिन कथात्मक और सेवात्मक पदों का गायन किया, उन्हीं के सैद्धान्तिक सार रूप में उन्होंने 'सारावली' की रचना की। 'सारावली' में सार और सरसी नाम के 1107 छन्द हैं। प्रारम्भ में पुरुषोत्तम के नित्य विहार का उल्लेख करके सृष्टि विस्तार का संक्षेप में कथन हुआ है। सृष्टि रचना को कवि ने होली खेलने के रूप में प्रस्तुत किया है। चौबीस अवतारों का संक्षेप में वर्णन करते हुए रामावतार का विस्तार से वर्णन किया गया है। रामावतार के उपरान्त कृष्णावतार की भूमिका देते हुए कृष्ण लीला का क्रमिक वर्णन हुआ है। कृष्ण लीला के वर्णन में 'सूरसागर' की तुलना में 'सारावली' में अनेक नवीन बातें पाई जाती हैं। ग्रन्थ के अन्त में दिये हुए 'इति श्री सूरदास जी कृत संवत्सर लीला तथा सवा लाख पदों का सूचीपत्र समाप्त' कथन से सूचित होता है कि 'सूरसागर' का सार देने के अतिरिक्त इस रचना का उद्देश्य संवत्सर-लीला का वर्णन करना भी है। पुष्टिमार्गीय मन्दिरों में वार्षिक व्रतोत्सवों की सेवा को ही संवत्सर-लीला की सेवा कहा गया है। 'सूरसागर सारावली' की रचना का उद्देश्य संवत्सर के व्रतोत्सवों की कृष्ण-लीला के आधार पर सूची देना ही है। भाषा और शैली की दृष्टि से 'सारावली' का अधिक महत्त्व नहीं है। परन्तु पुष्टिमार्ग में उसका सांप्रदायिक महत्व असंदिग्ध है।
साहित्य लहरी : 'साहित्यलहरी' की प्रामाणिकता में सन्देह है। 'साहित्य लहरी' के सभी पदों में सूर, सूरदास, सूरज आदि कवि छापें प्रयुक्त हुई हैं, जिससे यह समझा गया कि यह रचना प्रसिद्ध कवि सूरदास की ही है। इसके एक पद में कवि ने अपना परिचय देते हुए अपनी लम्बी वंशावली दी है। कवि ने अपना नाम सूरजचन्द्र बताते हुए अपने पूर्वजों में चन्दबरदाई का उल्लेख किया है। 'साहित्य लहरी' के वर्ण्य-विषय, उसके दृष्टिकोण, उसकी भाषा-शैली आदि के आधार पर यह रचना और भी संदिग्ध हो जाती है। इसका रचनाकाल 18 वीं शताब्दी के पहले नहीं माना जा सकता। 'साहित्य लहरी' का वर्य विषय नायिका-भेद, अलंकार अथवा किसी-न-किसी काव्यांग का लक्षण और उदाहरण है। न तो लक्षणों और उदाहरणों की दृष्टि से उसका कोई महत्त्व है और न भाषा-शैली और काव्य-कला की दृष्टि से।