रैदास का परिचय
मध्ययुगीन संतों में रैदास का महत्त्वपूर्ण स्थान है। संत रैदास कबीर के समसामयिक कहे जाते हैं। अतः इनका समय सन् 1308 से 1518 ई. के आस-पास का रहा होगा। अंतःसाक्ष्य के आधार पर रैदास का ‘चमार’ जाति का होना सिद्ध होता है : ‘नीचे से प्रभु आँच कियो है कह रैदास चमारा’ आदि। संत रविदास काशी के रहने वाले थे। इन्हें रामानंद का शिष्य माना जाता है परंतु अंतःसाक्ष्य के किसी भी स्रोत से रैदास का रामानंद का शिष्य होना सिद्ध नहीं होता। इनके अतिरिक्त रैदास की कबीर से भी भेंट की अनेक कथाएँ प्रसिद्ध हैं परंतु उनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है। नाभादास कृत ‘भक्तमाल' में रैदास के स्वभाव और उनकी चारित्रिक उच्चता का प्रतिपादन मिलता है। प्रियादास कृत 'भक्तमाल' की टीका के अनुसार चित्तौड़ की झाला रानी उनकी शिष्या थीं, जो महाराणा सांगा की पत्नी थीं। इस दृष्टि से रैदास का समय सन् 1482-1527 ई. अर्थात् विक्रम की सोलहवीं शती के अंत तक चला जाता है। कुछ लोगों का अनुमान है कि यह चित्तौड़ की रानी मीराबाई ही थी और उन्होंने रैदास का शिष्यत्व ग्रहण किया था। मीरा ने अपने अनेक पदों में रैदास का गुरु रूप में स्मरण किया है :
“गुरु रैदास मिले मोहि पूरे, धुर से कलम भिड़ी।
सत गुरु सैन दई जब आके, जोती जोत रली।“
रैदास ने अपने पूर्ववर्ती और समसामयिक भक्तों के संबंध में लिखा है। उनके निर्देश से ज्ञात होता है कि कबीर की मृत्यु उनके सामने ही हो गयी थी। रैदास की कुल अवस्था 120 वर्ष की मानी जाती है।
रैदास अनपढ़ कहे जाते हैं। संत-मत के विभिन्न संग्रहों में उनकी रचनाएँ संकलित मिलती हैं। राजस्थान में हस्तलिखित ग्रंथों में भी उनकी रचनाएँ मिलती हैं। इसके अतिरिक्त इनके बहुत से पद ‘गुरु ग्रंथ साहिब' में भी संकलित मिलते हैं। यद्यपि दोनों प्रकार के पदों की भाषा में बहुत अंतर है, तथापि प्राचीनता के कारण 'गुरु ग्रंथ साहब' में संगृहीत पदों को प्रमाणिक मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। रैदास के कुछ पदों पर अरबी और फ़ारसी का प्रभाव भी परिलक्षित होता है। रैदास के अनपढ़ और विदेशी भाषाओं से अनभिज्ञ होने के कारण ऐसे पदों की प्रामाणिकता में संदेह होने लगता है। अतः रैदास के पदों पर अरबी-फ़ारसी के प्रभाव का अधिक संभाव्य कारण उनका लोक-प्रचलित होना ही प्रतीत होता है। रैदास की विचारधारा और सिद्धान्तों को संत-मत की परंपरा के अनुरूप ही पाते हैं। उनका सत्यपूर्ण ज्ञान में विश्वास था। उन्होंने भक्ति के लिए परम वैराग्य अनिवार्य माना है। परम तत्त्व सत्य है, जो अनिवर्चनीय है :
“जस हरि कहिए तह हरि नाहीं,
है अस जस कछु तैसा।“
यह परमतत्त्व एकरस है तथा जड़ और चेतन में समान रूप से अनुस्यूत है। वह अक्षर और अविनश्वर है और जीवात्मा के रूप में प्रत्येक जीव में अवस्थित है। संत रैदास की साधना-पद्धति का क्रमिक विवेचन नहीं मिलता। जहाँ-तहाँ प्रसंगवश संकेतों के रूप में वह प्राप्त होती है। विवेचकों ने रैदास की साधना में 'अष्टांग' योग आदि को खोज निकाला है।
संत रैदास अपने समय के प्रसिद्ध महात्मा थे। कबीर ने 'संतनि में रविदास संत' कहकर उनका महत्त्व स्वीकार किया है। इसके अतिरिक्त नाभादास, प्रियादास, मीराबाई आदि ने भी रैदास का ससम्मान स्मरण किया है। संत रैदास ने एक पंथ भी चलाया, जो ‘रैदासी पंथ’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस मत के अनुयायी पंजाब, गुजरात, उत्तर प्रदेश आदि प्रदेशों में पाये जाते हैं।