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कुंभनदास

1468 - 1582 | मथुरा, उत्तर प्रदेश

कृष्णभक्त कवि। पुष्टिमार्गीय वल्लभ संप्रदाय के अष्टछाप कवियों में से एक। गोस्वामी वल्लभदास के शिष्य। मधुर भाव की भक्ति के लिए स्मरणीय।

कृष्णभक्त कवि। पुष्टिमार्गीय वल्लभ संप्रदाय के अष्टछाप कवियों में से एक। गोस्वामी वल्लभदास के शिष्य। मधुर भाव की भक्ति के लिए स्मरणीय।

कुंभनदास का परिचय

कुंभनदास अष्टछाप के कवियों में सबसे पहले कवि थे। महाप्रभु वल्लभाचार्य इनके दीक्षा गुरु थे। अनुमानतः कुंभनदास का जन्म सन् 1468 ई., संप्रदाय प्रवेश सन् 1492 ई. और स्वर्गवास सन् 1582 ई. के लगभग हुआ था। पुष्टिमार्ग में दीक्षित तथा श्रीनाथजी के मंदिर में कीर्तनकार के पद पर नियुक्त होने पर भी उन्होंने अपनी वृत्ति नहीं छोड़ी और अंत तक निर्धनावस्था में अपने परिवार का भरण-पोषण करते रहे। निर्धन होते हुए भी ये किसी का दान स्वीकार नहीं करते थे। अपनी खेती के अन्न, करील के फूल तथा झाड़ के बेरों से ही पूर्ण संतुष्ट रहकर ये श्रीनाथ जी की सेवा में लीन रहते थे। ये श्रीनाथ जी का वियोग एक क्षण के लिए भी सहन नहीं कर पाते थे। प्रसिद्ध है कि एक बार अकबर ने इन्हें फतेहपुर सीकरी बुलाया था। अकबर के आग्रह पर इन्होंने यह पद गाया :

‘संतन को कहा सीकरी सों काम।
आवत जात पनहिया टूटी बिसरि गयो हरि नाम।
बाको मुख देखे दुख लागे ताको करन परी परनाम।
कुंभनदास लाल गिरिधरन यह सब झूठो धाम।’
अकबर ने कुंभनदास से अनुरोध किया कि वे कोई भेंट स्वीकार करें, परंतु कुंभनदास ने यह मांग की कि आज के बाद मुझे फिर कभी दरबार में न बुलाया जाय।

कुंभनदास के सात पुत्र थे, परंतु गोस्वामी विट्ठलनाथ के पूछने पर उन्होंने कहा था कि वास्तव में उनके डेढ़ ही पुत्र हैं। क्योंकि पाँच लोकासक्त हैं, एक चतुर्भुजदास भक्त हैं और आधे कृष्णदास हैं, क्योंकि वे भी गायों की सेवा करते हैं। कृष्णदास की असमय मृत्यु सुनकर कुंभनदास मूर्छित हो गए थे परंतु इस मूर्च्छा का कारण पुत्र-शोक नहीं था, बल्कि यह आशंका थी कि वे सूतक के दिनों में श्रीनाथ जी के दर्शनों से वंचित हो जाएँगे। भक्त की भावना का आदर करके गोस्वामीजी ने सूतक का विचार छोड़कर कुंभनदास को नित्य-दर्शन की अनुमति दे दी थी। श्रीनाथजी का वियोग सहन न कर सकने के कारण कुंभनदास विट्ठलनाथ के साथ द्वारका नहीं गए थे और रास्ते से लौट आये थे। कुंभनदास को निकुंजलीला का रस अर्थात् मधुर-भाव की भक्ति प्रिय थी और इन्होंने महाप्रभु से इसी भक्ति का वरदान माँगा था। अंत समय में इनका मन मधुर-भाव में ही लीन था। विट्ठलनाथजी के पूछने यह पूछने पर कि तुम्हारा अंतःकरण कहाँ है, कुंभनदास ने गाया था—

‘रसिकनि रस में रहत गड़ी।
कनक बेलि वृषभान नंदिनी स्याम तमाल चढ़ी।
विहरत श्री गोवर्धन धर रति रस केलि बढ़ी।’

कुंभनदास के पदों की कुल संख्या जो ‘राग-कल्पद्रुम’, ‘राग-रत्नाकर’ तथा संप्रदाय के कीर्तन-संग्रहों में मिलते हैं, पाँच सौ के लगभग हैं। इन पदों में आठ पहर की सेवा तथा वर्षोत्सवों के लिए रचे गए पदों की संख्या अधिक है। जन्माष्टमी, राधा की बधाई, पालना, धनतेरस, गोवर्द्धनपूजा, इंद्र मानभंग, संक्रांति, मल्हार, रथयात्रा, हिंडोला, पवित्रा, राखी, वसंत, धमार आदि के पद इसी प्रकार के हैं। कृष्णलीला से संबद्ध प्रसंगों में कुंभनदास ने गोचारण, छाप, भोज, बीरी, राजभोग, शयन आदि के पद रचे हैं जो नित्य सेवा से संबद्ध हैं। इनके अतिरिक्त प्रभु-रूपवर्णन, स्वामिनी-रूपवर्णन, दान, मान, आसक्ति, सुरति, सुरतांत, खंडिता, विरह, मुरली, रूक्मिणीहरण आदि विषयों से संबद्ध शृंगार के पद भी हैं। कुंभनदास ने गुरुभक्ति के भी अनेक पदों की रचना की। आचार्यजी की बधाई, गुसाईंजी की बधाई, गुसाईंजी के पालना आदि पद इसी प्रकार के हैं।

कुंभनदास का दृष्टिकोण सूर और परमानंद की अपेक्षा अधिक सांप्रदायिक था। कविता की दृष्टि से इनकी रचना में कोई मौलिक विशेषताएँ नहीं हैं। उसे हम सूर का अनुकरण मात्र मान सकते हैं। कुंभनदास के पदों का एक संग्रह 'कुंभनदास' शीर्षक से श्री विद्या विभाग, कांकरोली द्वारा प्रकाशित हो चुका है।

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