गुमान मिश्र का परिचय
जन्म :फ़ैज़ाबाद, उत्तर प्रदेश
शिवसिंह सेंगर ने गुमान मिश्र को साँडीवासी और सन् 1748 ई. में वर्तमान बताया है। गुमान मिश्र का नाम सर्वसुख मिश्र था। ये महोबे के रहने वाले थे और इनके पिता का नाम गोपालमणि था। इनके तीन और भाई दीप साहि, सुमान, और अमान भी कवि थे। कवि ने अपने परिचय में स्वयं को मिश्र बाह्मण और सबसुख मिश्र का शिष्य कहा है। ये हिंदी तथा संस्कृत भाषा एवं साहित्यशास्त्र के पंडित थे। इनकी कीर्ति का आधार ग्रंथ हालाँकि 'काव्यकलानिधि' ही है लेकिन रामचंद्र शुक्ल ने इनके दो अन्य ग्रंथों 'कृष्णचंद्रिका' और 'छंदाटवी' (पिंगल) की भी चर्चा की है। खोज-विवरणों में इसके अतिरिक्त भी इस कवि की दो कृतियाँ बतायी गयी हैं : 'अलंकार-दर्पण' और 'गुलाल चंद्रोदय'। क्रम से इनका रचनाकाल सन् 1760 और 1761 ई. है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, प्रथम रचना अलंकार-विवेचन से संबंधित है और दूसरी बिसवाँ (जिला सीतापुर) के तालुकेदार की संरक्षकता में लिखी गयी है।
ये पिहानी के महमूदी महाराज अकबर अली खाँ के आश्रित कवि थे। उन्हीं से प्रोत्साहन प्राप्त कर इन्होंने हर्षकृत 'नैषध' का 'काव्यकलानिधि' नाम से हिंदी में उल्था किया। इसका अनुवाद काल सन् 1746 ई. है। ग्रंथ के आरंभ में ही कवि ने अपने आश्रयदाता के मोहमदी नगर का जिक्र किया है और प्रत्येक सर्ग के अंत में अली अकबर खाँ का नाम लिया है।
यद्यपि कवि ने यथासंभव नाना छंदों में 'नैषध' के अनुवाद को सफल बनाने की चेष्टा की है तथापि वह पूर्ण सफल नहीं हो पाया है। बिना मूल ग्रंथ को सामने रखे अनूदित पंक्तियों का अर्थ खुलता नहीं है। कवि को काव्य-चमत्कार कितना प्रिय था, यह 'काव्यकलानिधि' के आदि भाग में अली अकबर खां की प्रशंसा में लिखे गये बहुत से कवित्तों में बड़ी स्पष्टता से देखा जा सकता है। ये साहित्य तथा कला-मर्मज्ञ थे। भाषा पर इनका पूरा-पूरा अधिकार था। इनकी अनुप्रास-बहुल भाषा पद्माकर की भाषा की याद दिला देती है। 'काव्यकलानिधि' केवल अनुवाद ही नहीं है बल्कि अनेक स्थलों पर कवि ने अपनी मौलिक कवित्व-शक्ति का परिचय दिया है। संस्कृत के नैषध में केवल 22 सर्ग हैं। गुमान मिश्र ने कथा का विस्तार 23 सर्गों में किया है। गुमान मिश्र ने आरंभ का सर्ग प्रस्तावना के रूप में अपनी ओर से जोड़ा है। इस अनुवाद की भाषा यत्र-तत्र जटिल हो गयी है किंतु भाव स्पष्ट हैं।
यद्यपि कवि का भाषा पर पूर्ण अधिकार है किंतु संस्कृत के भावों के सम्यक् अवतरण में वे असफल हैं। इस ग्रंथ में इंद्रवज्रा, वंशस्थ, मंदाक्रांता, शार्दूलविक्रीड़ित, आदि छंदों से लेकर दोहा, सोरठा, चौपाइयों तक का प्रयोग हुआ है। छंदों का परिवर्तन बहुत जल्दी-जल्दी मिलता है। भाव-जटिलता को लेकर रामचंद्र शुक्ल का कहना है कि "जिन श्लोकों के भाव जटिल नहीं हैं, उनका अनुवाद बहुत ही सरस और सुंदर है। वह स्वतंत्र रचना के रूप में प्रतीत होता है पर जहाँ कुछ जटिलता है, वहाँ की वाक्यावली उलझी हुई और अर्थ अस्पष्ट है। पुस्तक के संबंध में यही कहना चाहिये कि अनुवाद में वैसी सफलता नहीं हुई है।" इन सबके बावजूद आचार्य शुक्ल ने इन्हें निस्संदेह उत्तम श्रेणी का कवि माना है।