एका एक मिलै गुरु पूरा, मूल मंत्र जो पावै।
सकल संत की बानी बुझै, मन परतीत बढ़ावै॥
दूआ दुई तजै जो दुबिधा; रजगुन तमगुन त्यागै।
संतगुरु मारग उलटि निरेखै, तब सोवत उठि जागै॥
तीया तीन त्रिबेनी संगम, सो बिरले जन जाना।
तृस्ना तामस छोड़ि दे भाई, तब करु वहँ प्रस्थान॥
चौथे चारि चतुर नर सोई, चौथे पद कहँ लागी।
हँसि कै परम हिंडोलना झूलै, निरखत भा अनुरागी॥
पँचयें पाँच पचीसहिं बस करि; साँच हिये ठहरावै।
इँगला पिंगला सुखमन सोधै, गगन मँडल मठ छावै॥
छठयें छवो चक्र के बेंधे, सुन्न भवन मन लावै।
बिगसत कमल काया करि परिचै, तब चंदा दरसावै॥
सतयें सात सहज धुनि उपजै, सुनि सुनि आनंद बाढ़ै।
सहजहिं दीनदयाल दया करि, बूड़त भवजल काढ़ै॥
अठयें आठ अकासहिं निरखो, दृष्टि अलोकन होई।
बाहर भीतर सर्ब निरंतर, अंतर रहै न कोई॥
नवें नवो दुवारहिं निरखै, जगमग जगमग जोती।
दामिनि दमकै अमृत बरसै, निझर झरै मनि मोती॥
दसयें दस दहाइ पाइ कै, पढ़ि ले एक पहारा।
धरनीदास तासु पद बंदैं, अहि निसु बारंबारा॥
- पुस्तक : धरनीदासजी की बानी (पृष्ठ 46)
- रचनाकार : धरनीदास
- प्रकाशन : बेलवेडियर प्रेस
- संस्करण : 1931
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