लोचन नीर तटिनि निरमाने
lochan neer tatini nirmane
लोचन नीर तटिनि निरमाने।
करए कलामुखि तथहि सनाने॥
सरस मृनाल करए जपमाली।
अहनिस जप हरिनाम तोहारी॥
बृंदाबन कानु पनि तप करई।
हृदय बेदि मदनानल बरई॥
जिब कर समिध समर कर आगी।
करति होम बध होएबह भागी॥
चिकुर बरहि रे समरि कर लेअई।
फल उपहार पयोधर देअई॥
भनइ विद्यापति सुनह मुरारी।
तुअ पथ हेरइत अछि बरनारी॥
अपने अश्रु-जल से सरिता का निर्माण कर वह चंद्रमुखी उसी में स्नान कर रही है। वह कमल-नाल की माला बनाकर दिन-रात तुम्हारे नाम का जाप किया करती है। उसकी हृदय-वेदिका में कामाग्नि प्रज्वलित हो रही है। प्राणों को अग्निहोत्र की लकड़ी तथा स्मरण को अरणी बना कर वह यज्ञ कर रही है। वह केश रूपी कुशों को हाथ में सम्हाल कर रखी हुई है और यज्ञ के चढ़ावे के रूप में उरोज रूपी फल देती है। भाव यह है कि वह नायिका कृष्ण के चिंतन में वक्षस्थल पर हाथ रखे हुए बैठी रहती है और रूखे बाल उसके हाथों के ऊपर बिखरे रहते हैं। विद्यापति कहते हैं कि हे कृष्ण! सुनो, वह श्रेष्ठ युवती तुम्हारा मार्ग देख रही है।
- पुस्तक : विद्यापति का अमर काव्य (पृष्ठ 318)
- संपादक : गोपालाचार्य 'पराग'
- रचनाकार : विद्यापति
- प्रकाशन : स्टूडेंट स्टोर बिहारीपुर बरेली
- संस्करण : 1965
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