ऊधो! तुम हौ अति बड़भागी
udho! tum hau ati baDbhagi
ऊधो! तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेहतगा तें, नाहिंन मन अनुरागी॥
पुरइनि-पात रहत जल-भीतर ता रस देह न दाग़ी।
ज्यों जल मांह तेल की गागरि बूँद न ताके लागी॥
प्रीति-नदी में पाँव न बोर्यो, दृष्टि न रूप परागी।
सूरदास अबला हम भोरी गुर चींटी ज्यों पागी॥
गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव, तुम्हीं सबसे अच्छे और भाग्यशाली हो जो समस्त प्रेम-सूत्रों से अनासक्त हो और किसी में भी तुम्हारा मन अनुरक्त नहीं है। तात्पर्य यह है कि तुम अत्यंत अभागे हो जो प्रेम-रस को नहीं समझते। तुम्हारी दशा तो उस कमल-पत्र की भाँति है जिसने जल के भीतर रहते हुए भी जल से अपने शरीर में दाग़ नहीं लगाया। आशय यह है कि तुम रहते तो श्रीकृष्ण के निकट हो, लेकिन उनके प्रेम से सदैव अनासक्त रहे। यही नहीं, जैसे जल में तेल की गगरी को डुबा दिया जाए तो उस पर जल की एक बूँद भी नहीं रुकती। तुम प्रेम के संबंध में क्या जानो जब कि तुमने कभी न तो प्रेम की नदी में अपने पाँव को निमज्जित किया और न श्रीकृष्ण के सौंदर्य पराग में तुम्हारी दृष्टि ही अनुरक्त हुई। सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन है कि सबसे पगली और भोली-भाली हम अबलाएँ ही हैं जो गुड़ और चींटी की भाति श्रीकृष्ण की रूप-माधुरी में चिपट गईं।
- पुस्तक : भ्रमरगीत सार (पृष्ठ 93)
- रचनाकार : आचार्य रामचंद्र शुक्ल
- प्रकाशन : लोकभारती
- संस्करण : 2008
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