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ऊधो! कोकिल कूजल कानन

udho! kokil kujal kanan

सूरदास

सूरदास

ऊधो! कोकिल कूजल कानन

सूरदास

और अधिकसूरदास

    ऊधो! कोकिल कूजल कानन।

    तुम हमको उपदेस करत हौ भस्म लगावन आनन।

    औरों सब तजि, सिंगी लै लै टेरन, चढ़त पखानन।

    पै नित आनि पपीहा के मसि मदन हनत निज बानन॥

    हम तौ निपट अहिरि बावरी जोग दीजिए ज्ञानिन।

    कहा कथत मामी के आगे जानत नानी नानन॥

    सुन्दरस्याम मनोहर मूरति भावति नीके गानन।

    सूर मुकुति कैसे पूजति है वा मुरली की तानन॥

    हे उद्धव, ज़रा कोयल की कूक पर तो ध्यान दीजिए। वह वन में कूकती हुई बसंत की सूचना दे रही है और तुम हमें निर्गुण ब्रह्मोपासना का उपदेश देकर मुख पर भस्म लगाने का आग्रह कर रहे हो। सभी साज-शृंगार को छोड़कर पर्वत की शिलाओं पर बैठ कर योगियों की सी मुद्रा में तुम सिंगी-बाजा फूँकने पर बल दे रहे हो, लेकिन इस साधना को ग्रहण करने में हम सब असमर्थ हैं, क्योंकि इधर पपीहा की पी-पी की आवाज़ के रूप में कामदेव हमें अपने बाणों से घायल कर रहा है। हम लोग तो बिल्कुल पगली और अहीरिनी हैं, निर्गुण ज्ञान की बातों का उपदेश तो आप ज्ञानियों को दीजिए। हम सब ख़ूब जानती हैं कि योग-संदेश श्रीकृष्ण का भेजा हुआ नहीं है। भला, यह तो बताओ कि नानी-नाना क्या नहीं जानते जो मामी के आगे कह रहे हो? तात्पर्य यह है कि कल तो वह हम सब का दूध-दही चुराता रहा और आज वह योग-साधना की बातें करने लगा! सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन है कि उद्धव, हमें तो श्रीकृष्ण की मनोहारिणी मूर्ति और उनके सुंदर गीत ही अच्छे लगते हैं। क्या श्रीकृष्ण की मधुर वंशी की ध्वनि के आनंद की समता तुम्हारा मुक्ति-जनित आनंद कभी कर सकता है?

    स्रोत :
    • पुस्तक : भ्रमरगीत सार (पृष्ठ 97)
    • रचनाकार : आचार्य रामचंद्र शुक्ल
    • प्रकाशन : लोकभारती
    • संस्करण : 2008

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