सिव हो उतरब पार कओन बिधि
siw ho utrab par kaon bidhi
सिव हो उतरब पार कओन बिधि।
लोढब कुसुम तोरब बेल पात।
पुजब सदासिब गौरिक सात॥
बसहा चढ़ल सिव फिरहूँ मसान।
भँगिया जरठ दरदो नहिं जान॥
जप-तप नहिं कैलहुँ नित दान।
बित गेला तिन पन करईत आन॥
भन विद्यापति सुन हे महेस।
निरधन जानि के हरहु कलेस॥
हे शिव। मैं भवसागर से किस प्रकार पार उतर सकूँगा। मैं पुष्प चुनूँगा, बेल-पत्र और नैवेद्यों के द्वारा सनातन शिव की, उनकी अभिन्न शक्तिरूपा पार्वती के साथ पूजा करूँगा। हे शिव! आप बैल पर आरूढ़ होकर श्मशान भूमि में घूमते फिरते हो; आप भंग के नशे में उन्मत्त रहते हैं, इसलिए मुझ आराधक की पीड़ा तक से अनवगत हैं। हे प्रभो! मैंने अपने जीवन में न तो तुम्हारे नाम का ही स्मरण किया है और न ही कठिन तप ही किया है। इसके अतिरिक्त न ही मैंने दूसरों की हित-साधना के लिए अपनी किंचित-मात्र भी सुख-सुविधा की अर्पणा की है अर्थात् मुझसे प्रतिदिन का दान भी देते नहीं बन पड़ा है। मेरे जीवन की तीनों अवस्थाएँ-बालापन, यौवन तथा वृद्धपन इस जप-तप-दान की पुण्य-त्रयी के बिना ही व्यतीत हुआ है। विद्यापति कहते हैं कि हे महेश! मेरी प्रार्थना सुनिए। आप मुझे नितांत अकिंचन जान कर ही मेरे क्लेशों का हरण कीजिए।
- पुस्तक : विद्यापति का अमर काव्य (पृष्ठ 129)
- संपादक : गोपालाचार्य 'पराग'
- रचनाकार : विद्यापति
- प्रकाशन : स्टूडेंट स्टोर बिहारीपुर बरेली
- संस्करण : 1965
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