सीतानाथ विनय चित धारौ
sitanaath vinay chit dharau
सीतानाथ विनय चित धारौ।
अखिल जगत पति आप जगत गति, मेरिहु ओर निहारौ॥
असरन सरन आप करुनानिधि, दीन दुखित हितकारी।
वेद पुरान संत सुर गावत, महिमा अमित तिहारी॥
पराधीन नारीजन-जीवन, पग-पग संकट भारी।
धरै उभयकुल लाज-भार सिर, जानत आपु खरारि॥
सुनि आपु गनिका तिय तारी, तारी गौतम नारी।
तारी तिय बनवासिनी सबरी, तासु गेह पगु धारी॥
सुमिरत ही श्री कृष्ण रूप सों द्रौपदी धाम पधारे।
दुरवासा मुनि-साप भीति हरि, पांडव काज सम्हारे॥
भरी सभा दूसासन द्रौपदी, नगन करन मन ठानी।
चीर बढ़ायो थक्यो उतारत, नीच निलज अभिमानी॥
रुकमिनी टेर सुनत झट थाए, गही बाँह अपनाई।
सीता हरी दुष्ट रावन जब, लाये जीति लराइ॥
अनगिनत तीय आपु उद्धारी, किमि मो सुरति बिसारी।
हों तव चरन दास की दासी, रत्न लहों दुःख भारी॥
बिनु अवलंब कठिन तिय जीवन, पति प्रधान अवलंबा।
सो तजि गये तिनहिं, प्रभु प्रैरौ, भई नाथ बिनु अंबा॥
- पुस्तक : रत्नावली (पृष्ठ 52)
- संपादक : वेदव्रत शास्त्री
- रचनाकार : रत्नावली
- प्रकाशन : उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान
- संस्करण : 1990
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